Sunday, August 02, 2015

जन संस्कृति मंच के लिए


31 जुलाई को दिल्ली के हिंदी भवन में जन संस्कृति मंच के सम्मेलन में बोलने के लिए मैंने एक टिप्पणी तैयार की थी, जो नीचे है। वहाँ बोलते हुए इसमें से कुछ बातें मैं बोल पाया और कुछ अलग बातें कहीं। जिन्हें रुचि हो उनके लिए यहाँ पेस्ट कर रहा हूँ :-


जन संस्कृति मोर्चा के इस 14 वें राष्ट्रीय सम्मेलन में शामिल सभी साथियों को लाल सलाम। मुझे फ़ख़्र है कि क्रांतिकारी कवियों, लेखकों और अन्य रचनाकारों के जुझारू मंच की इस सभा में मैं आप सबका साथी होने का सम्मान पा सका हूँ। इसके लिए आयोजकों को और खास तौर पर साथी प्रणय को शुक्रिया कहता हूँ।

प्रो. राजेंद्र कुमार ने दोपहर में हमें नबारुण भट्टाचार्य की पंक्ति याद दिलाई थी - यह मृत्यु उपत्यका मेरा देश नहीं है। वाकई आज हम ऐसी एक उपत्यका में हैं, जहाँ लोगों को चुन-चुन कर मारा जा रहा है; जहाँ विरोध है, दमनचक्र पूरी तरह से सक्रिय है। हर अकादमिक संस्था में दक्षिणपंथियों को डाला जा रहा है। आज जब संस्कृति पर अंधकार छाता जा रहा है, आप सबके बीच खड़े होकर उम्मीद बढ़ रही है कि अँधेरे को चीरकर रोशनी लाने की मुहिम जारी है।

दोस्तो, मंच की राष्ट्रीय परिषद ने जो आह्वान जारी किया है, उसमें मुक्तिबोध की कविता की खूबसूरत पंक्तियों के तुरंत बाद ही 'भारत के नए कंपनी राज' का उल्लेख है। यह बड़ी रोचक बात है कि आज बीसवीं सदी के हिंदी साहित्य के सबसे बड़े नाम, प्रेमचंद की जन्मवार्षिकी है और साथ ही यह साल आज़ादी के बाद प्रेमचंद की ही परंपरा से निकल कर और आगे का कथा साहित्य रचने वाले भीष्म साहनी की जन्म शतवार्षिकी है। एक कंपनी राज वह था, जिसके बारे में भीष्म जी ने अपने उपन्यास 'मय्यादास की माड़ी' में चर्चा की है। कंपनी राज से बर्तानवी राज तक का वह सफर याद करते हुए हम अपने आप से पूछने लगते हैं कि सचमुच हम किस सदी में हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम वापस उन्नीसवीं सदी में पहुँच गए हैं? मुझे उपन्यास का एक प्रसंग याद आता है कि लंदन में किसी सभा में ब्रिटिश सरकार का मंत्री आँकड़े पेश करता है कि भारत में व्यापार से ब्रिटेन को कितना मुनाफा हुआ है। श्रोताओं में एक अध्यापक बैठा हुआ है जो लगातार सवाल उठाता है कि इस हद तक मुनाफाखोरी कि लोग बड़ी तादाद में भुखमरी से मर रहे हों, क्या यह उन उदार मूल्यों के खिलाफ नहीं है, जिनके बारे में अंग्रेज़ गर्व से बात करते हैं। विड़ंबना देखिए कि कंपनी के हितैषी और बाद में सरकारी प्रवक्ता लगातार यह कहते हैं कि वे तो हिंदुस्तान को एक आधुनिक राष्ट्र बनाना चाहते हैं, जहाँ आधुनिक तक्नोलोजी पूरी तरह से चल रही हो। भीष्म साहनी के उपन्यास में खलनायक अंग्रेज़ नहीं हैं, असली खलनायक यहाँ के लोग हैं, जिन्होंने अंग्रेज़ों के हाथ देश और समाज को लुटा दिया था।

दक्षिण एशिया में आज कमोबेश वही स्थिति है जो कंपनी राज के दिनों में थी। यूरोपी पूँजीवाद यहाँ देर से आया और यहाँ की सामंती संरचनाओं से जुड़कर बहुत ही क्रूर व्यवस्था में बदलता रहा है। 'लूट-झूठ-टूट-फूट' की संस्कृति का उल्लेख मंच के आह्वान परचे में है। आज भी हम देख रहे हैं कि यहाँ के शासक वर्ग जनता को इसी तरह छल रहे हैं कि हम स्मार्ट सिटीज़ और बुलेट ट्रेन लाने वाले हैं, जब बड़ी तादाद में किसान आत्म-हत्याएँ कर रहे हैं। कंपनी राज और बाद में ब्रिटिश राज के दौरान जो यूरोपी उदारवादी हमारे पक्ष में बोलते थे, वे अक्सर सिर्फ कथनी में नहीं, अधिकतर अपनी करनी में सच्चे थे। आज यह कहना मुश्किल होता जा रहा है कि हमारा उदारवादी वर्ग सचमुच किस तरफ खड़ा है। आज़ादी के तकरीबन सत्तर साल बाद आज जहाँ शासक वर्ग पैने दाँत दिखलाते हुए नंगी लूट का जश्न मना रहा है, हम आज भी समझने की कोशिश में हैं कि अंग्रेज़ों ने हमारा सत्यानाश कर दिया। यह सच है कि उपनिवेशकालीन शोषण से जो नुकसान पहुँचा था, उससे उबरने में लंबा समय लगेगा। पर आज़ादी की लड़ाई के दौरान जिस परिप्रेक्ष्य से हम इन बातों को जानते समझते थे, आज आज़ादी के सत्तर सालों बाद उससे अलग एक नए परिप्रेक्ष्य से हमें सोचना पड़ेगा। हमें इस बात की चिंता होनी चाहिए कि हम अपने समाज की विसंगतियों को न भूलें। यूरोप में उन्नीसवीं सदी में बड़ी तेज़ी से वैज्ञानिक और तकनीकी तरक्की हो रही थी, और हमारी आधुनिक भाषाओं में सैद्धांतिक ज्ञान उपलब्ध नहीं था। जो कुछ संस्कृत या फारसी में था, उससे आम लोग वंचित थे। वे स्थितियाँ कैसी भयंकर रही होंगी कि हमारे समाज-सुधारकों के प्रतिनिधि ब्रिटिश सरकार के पास गुहार लेकर गए कि हमें आधुनिक ज्ञान की शिक्षा उपलब्ध करवाई जाए। इसके पीछे सदियों से जाति और वर्ग के आधार पर समाज में व्याप्त भेदभाव को हम नकार नहीं सकते। फिरकापरस्ती की वजह से बहुत सारा आधुनिक ज्ञान जो उर्दू में लिखा गया था, उन्नीसवीं सदी के अंत तक उसका औचित्य कम हो गया। आज़ादी के बाद देश के वे इलाके जो पहले पूरी तरह अंग्रेज़ों के अधीन नहीं थे, वे सरकार और केंद्रीय सत्ता के अधीन हुए हैं। संपन्न वर्गों को हर तरह की सुविधाएँ मुहैया हैं जिनकी कल्पना भी आज़ादी के पहले नहीं की जा सकती थी। पर हर तरह की गैरबराबरी बढ़ती जा रही है। जब विरोध होता है तो दमनतंत्र दनदनाता आता है। हमारे बुद्धिजीवी इस बात को भी दुहराते रहते हैं कि देश में वाम ताकतें खत्म होने को हैं, जबकि सच्चाई यह है कि देश भर में जहाँ भी संगठित विरोध हो रहा है, वह वाम ताकतों के नेतृत्व में हो रहा है। पर इस बात को इतना दुहराया गया है कि लोग चुनावों में वाम के लिए वोट डालने से कतराते हैं कि वोट बर्बाद तो नहीं हो जाएगा। हमारे बुद्धिजीवी बहस करते रहते हैं और वे लोग जो जनता के साथ खड़े हैं, कोई मारे जाते हैं, किसी पर सी बी आई का हमला होता है और क्या-क्या नहीं। वे उम्मीद करते रहते हैं कि प्रधान मंत्री इन ज्यादतियों पर ध्यान दें। अगर इस सरकार से ऐसी उम्मीद कोई मायने रखती तो इनकी विचारधारा के खिलाफ इतने सालों से लड़ते क्यों। इधर राष्ट्रीय इतिहास परिषद को पोंगापंथियों को थमाया जा रहा है, उधर फिल्म इंस्टीटिउट में छात्रों को धमकी दे दी गई है कि हड़ताल बंद करो, नहीं तो निकाल देंगे, रस्टीकेट कर देंगे। और अंग्रेज़ीदाँ विद्वान लगे हैं कि मोदीजी ध्यान दें; क्या कहा जाए, हम आप बस हँस ही सकते हैं।

मैं दो-तीन विषयों पर कुछ बातें आपसे साझा करना चाहूँगा। हालाँकि जसम साहित्य-संस्कृति का मंच है, यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि यह एक राजनैतिक मंच है और बराबरी पर आधारित समाज बसाने के लिए जहाँ भी जद्दोजहद चल रही है, वहाँ मंच की उपस्थिति काम्य है। अपने निजी समझौतों में बँधे हुए मैं कई सालों से अलग-अलग जनांदोलनों में थोड़ा बहुत जुड़ा रहा हूँ। जहाँ भी वाम के प्रति प्रतिबद्ध साथी कुछ करते नज़र आए, मैंने उनके साथ हाथ जोड़ने की कोशिश की। मेरे जैसे हजारों लोग ऐसी स्थिति में रहे हैं जो किसी पार्टी के साथ जुड़े बिना एक इंच दो इंच काम करते रहे हैं। वाम दलों में सही लाइन को लेकर जो बहसें होती हैं, उसी के मुताबिक उनके मास-ऑर्गनिज़ेशन अलग-अलग काम करते रहते हैं। इससे जो नुकसान पहुँचा है, उसमें एक यह है कि मेरे जैसे हजारों लोग कभी तय नहीं कर पाए कि सही मंच कैसे चुना जाए। मैंने करीब अट्ठाइस साल पहले ज्ञानरंजन जी को ख़त लिखा था कि लेखक संगठनों के एकजुट न होने से बहुत नुकसान हो रहा है। क्या इन संगठनों के सभी सदस्य जानते हैं कि उनमें क्या वैचारिक मतभेद हैं? निश्चित ही नेतृत्व में इसकी समझ होगी, पर ज्यादातर लेखक या संस्कृतिकर्मी किसी संगठन में निजी संबंधों और दूसरे आग्रहों से जुड़ते हैं। अच्छी बात यह है कि मुख्यधारा के वामदलों में इधर बात चली है कि शायद जल्दी ही कभी एकीकरण हो सके, पर अलग होने की जो गतिकी है, वह ऐसी ही है कि उसे वापस मोड़ना आसान नहीं होता। ठीक अभी बिहार के चुनावों की तैयारी के वक्त यह बहुत ज़रूरी सवाल बन गया है। नब्बे के बाद के पहले सालों में बिहार में वाम ताकतें बहुत मजबूत थीं। आज जैसा मंच बना है, वैसा अगर तब बना होता तो चुनाव जीतने की संभावना थी। आज वाम नेतृत्व ने आपस में एकजुट होकर स्वतंत्र गठबंधन बनाया है, इस वक्त सभी सांस्कृतिक और साहित्यिक मंचों के लिए ज़रूरी है कि वे इस नए गठबंधन के समर्थन में पुरजोर लड़ाई शुरू करें। वाम दलों में इतिहास पर बहसें ज्यादा होती रहती हैं, ज़रूरी भी हैं, पर वर्तमान की माँग यह है कि हम उदार लोकतांत्रिक ढाँचे बनाएँ, जो सचमुच अपनी पहुँच में व्यापक हों। बराबरी की न्यूनतम माँगें, जैसे समान शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सुविधाएँ, ये हमारे मुद्दे हों और पचास साल पहले के झगड़े नहीं। खास तौर पर साहित्य-संस्कृति के संगठनों का अलग होना कोई मायने नहीं रखता - ज़रूरत यह है कि ऐसी लोकतांत्रिक संस्कृति बनाई जाए कि एक ही मंच पर नीतियों पर बहसें हों और अपनी अलग राय बिना किसी डर के कही जा सके। मेरा अनुभव यही बतलाता है कि साहित्य-संस्कृति से जुड़े अधिकतर लोग जानते भी नहीं होते कि अलग-अलग संगठनों में कैसे वैचारिक फ़र्क हैं, क्योंकि आलोचक भले ही अपनी सोच में व्यवस्थित हो, एक लेखक, कवि या संस्कृतिकर्मी स्वभाव से और अपने काम में अराजक होता है। यह सोचने की बात है।

अगली बात मुझे भाषा के बारे में कहनी है। सोचने पर यह कमाल की बात लगती है कि जिस देश में एक तिहाई जनता आज भी निरक्षर है, जहाँ बुद्धिजीवी वर्ग जनसंख्या के 10% से ही आते हैं, वहाँ कैसे एक विदेशी भाषा को ज़बरन हिंदुस्तानी ज़ुबान बना दिया गया है। इस बात को कहने पर मुझे चरमपंथी करार दिया जाएगा, जबकि फैनाटिक तो वे हैं जो ज़बरन हम सब पर अंग्रेज़ी लाद रहे हैं। जब यूरोप में प्रबोधन या इनलाइटेनेमेंट का समय था, तो वहाँ लड़ाई लड़ी गई थी कि हर तरह का ज्ञान आम लोगों की ज़ुबानों में मिले और हमारे बुद्धिजीवी ऐसे कमाल के हैं कि वे चाहते हैं कि लोग पहले विदेशी ज़ुबान सीखें और फिर ज्ञान पाने की सोचें। भारतीय भाषाओं के लिए, खासतौर पर हिंदी के लिए ऐसा घोर संकट दिखता है, जिससे निकलने के लिए बड़ी लड़ाई लड़नी पड़ेगी। एक सांस्कृतिक मंच के रूप में जसम को भाषा पर स्पष्ट नीति बनाने की ज़रूरत है। इस संदर्भ में अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच के प्रो. अनिल सदगोपाल और उनके सहयोगियों की यह कोशिश कि देश के हर बच्चे को अपनी ज़ुबान में मुफ्त तालीम दी जाए, एक महत्वपूर्ण लड़ाई है। जसम के कई साथी इस राष्ट्र-व्यापी आंदोलन में शामिल हैं। जाहिर है कि मैं उन लोगों मे से नहीं हूँ जो अंग्रेज़ी का विकल्प हिंदी को या संवैधानिक मान्यता प्राप्त भाषाओं को ही मानते हैं। हिंदी के बहुभाषी स्वरूप को जैसे खत्म किया गया है, उससे नुकसान हुआ है। मैं मानता हूँ कि आज तकनोलोजी की मदद से सौ ज़ुबानों में पठनीय सामग्री तैयार की जा सकती है। पढ़ाने वाले लोग भी मिल जाएँगे। बेशक इसके लिए सरकार को पैसा लगाना पड़ेगा। पैसा कहाँ से आएगा? इस सवाल के कई जवाब हैं, मेरा सीधा सा जवाब यह है कि दक्षिण एशिया के हुक्मरानों, जनता को बेवकूफ बनाना बंद करो और आपसी मारकाट में आम जनता के खून-पसीने का पैसा बर्बाद करना बंद करो। हिंद-पाक-चीन कहीं भी आम लोगों में आपस में लड़ने की कोई तमन्ना नहीं है। लोग शांति और बुनियादी सर्वांगीण विकास चाहते हैं। बदकिस्मती से हमारा बुद्धिजीवी वर्ग आज भी संपन्न वर्गों से ही आता है और अपनी सोच में काफी हद तक सामंती है - इसके साथ राष्ट्रवाद का ऐसा अजीब मेल हुआ है कि भाषा के मुद्दे पर सरल सी बातें भी उन्हें समझ नहीं आती हैं। वे या तो संस्कृत थोपेंगे या अंग्रेज़ी। चूँकि अंग्रेज़ी के साथ सत्ता और पैसा है, इसलिए गरीबों और दलितों को लगने लगा है कि उनके बच्चों को अंग्रेज़ी पढ़नी है - जो सही है, पर हमें यह बात समझनी और समझानी है कि अंग्रेज़ी हम तभी सीख सकते हैं जब हमें अपनी ज़ुबान में महारत हासिल हो। कम से कम प्राथमिक स्तर तक तो अंग्रेज़ी पढ़ाने का कोई मतलब ही नहीं है और इसके बाद भी अंग्रेज़ी भाषा को एक विषय की तरह पढ़ाया जा सकता है, न कि इसे तालीम का माध्यम ही बना दिया जाए। इसके लिए जसम जैसे मंच को एक स्पष्ट नीति बनानी पड़ेगी। तकनीकी ज्ञान के लिए जहाँ ज़रूरी हो प्रचलित अंग्रेज़ी लफ्ज़ों का इस्तेमाल हो सकता है; कृत्रिम तत्सम शब्दों के इस्तेमाल से नुकसान ही हुआ है कि लोग अपनी ज़ुबानों में तकनीकी विषय पढ़ने से घबराने लगे हैं। तालीम के बारे में प्रेमचंद से लेकर इब्ने इंशा तक ने बहुत लिखा है। अंग्रेज़ी पढ़ने की आफत पर 'बड़े भैय्या' कहानी में प्रेमचंद ने क्या खूब कहा है - ‘... रात-दिन आँखें फोड़नी पड़ती है और ख़ून जलाना पड़ता है, तब कहीं यह विधा आती है। और आती क्या है, हाँ, कहने को आ जाती है। बड़े-बड़े विद्वान भी शुद्ध अंग्रेज़ी नहीं लिख सकते, बोलना तो दूर रहा। ...तुम कैसे आशा करते हो कि तुम यों खेल-द में वक़्त, गँवाकर पास हो जाओगे? मुझे तो दो ही तीन साल लगते हैं, तुम उम्र-भर इसी दरजे में पड़े सड़ते रहोगे।' अपनी ज़ुबान क्या होती है, इसकी एक मिसाल हाल में ब्रिटिश संसद में बीस साल के उम्र की युवा सांसद माइरी ब्लैक के भाषण में है - जब वह युवा स्कॉट सांसद में बोल रही थी, लगता था कि पूरा स्कॉटलैंड बोल रहा है, उसकी आवाज में वह आग थी। ऐसे हिंदुस्तानी ज़ुबानों में इस तरह बोलने वाले सैंकड़ों बीस की उम्र के मिल जाएँगे, पर यहाँ जब कोई बड़ी उम्र का भी अंग्रेज़ी में बोलता है तो कितना खोखला लगता है। यह अजीब विड़ंबना है कि हमारे अंग्रेज़ीदाँ लोग अंग्रेज़ी में विमर्श करते हैं कि इंसान की अस्मिता में भाषा का महत्व क्या है। अंग्रेज़ी में एक दूसरे को समझाते हैं कि भाषा बड़ी चीज़ है। शिक्षा में बढ़ते निजीकरण का भी ज़बरन अंग्रेज़ी थोपे जाने के साथ सीधा रिश्ता है। इब्ने इंशा ने पचास साल पहले तालीम के निजीकरण पर व्यंग्य किया कि तू भी स्कूल खोल, ऊँची फीस ले और फिर और स्कूल खोल – और आज हम देख रहे हैं कि क्रमबद्ध ढंग से सरकारी स्कूल व्यवस्था को तबाह किया जा रहा है और निजीकरण को बढ़ाया जा रहा है। गैट्स नियमों के तहत उच्च-शिक्षा को विदेशी संस्थानों के लिए खोल दिया जा रहा है। जैसे स्कूलों को तबाह किया गया, वैसे ही विश्वविद्यालयों को तबाह किया जाएगा। सिर्फ पैसे वालों के लिए अंग्रेज़ी में दोयम दर्जे की ही सही वैश्विक पहुँच की तालीम होगी। बाकी लोगों को कामगार बनाया जाएगा ताकि वे संपन्न वर्गों के ऐशो-आराम के लिए मेहनत करते रहें। जब तालीम ही नहीं मिलेगी तो साहित्य क्या और संस्कृति क्या? वह तालीम भी क्या जो हमें अपनी ज़ुबान और रवायतों से दूर ले जाए। अपनी ज़ुबानों से कटकर हम धीरे-धीरे मनुष्य के रूप में खत्म होते जाएँगे। भविष्य में कभी इतिहासकार हमारे बारे में लिखेंगे कि ये भी कैसे लोग थे जिन्होंने अपनी ज़ुबानों को खत्म होने दिया, खुद को यूँ खत्म होने दिया। इसलिए तालीम की लड़ाई भी इस मंच की लड़ाई है। तालीम के निजीकरण के खिलाफ, सांप्रदायिकता के खिलाफ, हर तरह के भेदभाव के खिलाफ और अपनी ज़ुबान में मुफ्त तालीम के लिए मंच आवाज उठाए और शिक्षा अधिकार मंच के समर्थन में हल्ला बोले, यह हम चाहेंगे। मंच से जुड़े साथी संगठन 9 अगस्त को गैट्स में उच्च-शिक्षा को लाने के खिलाफ देशव्यापी मुहिम पर उतर रहे हैं, यह बड़ी खबर है।

ूसरी ज़रूरी बात वैज्ञानिक सोच के बारे में है। उन्नीसवीं सदी में यूरोप में तर्कशीलता और वैज्ञानिक सोच को लेकर समझ विकसित हुई। हमारे यहाँ लंबे समय तक इन दोनों बातों को एक माना गया। पिछले पचास वर्षों में यह समझ बनी कि तर्कशीलता कई तरह की हो सकती है। एक ही व्यक्ति अलग-अलग तर्कशीलताओं में जी सकता है। वह प्रयोगशालाओं में वैज्ञानिक तर्कशीलता दिखलाता है, घर परिवार में सामंती, कर्मकांडी तर्कशीलता के साथ जीता है। आज हम वैज्ञानिक तर्कशीलता को और बेहतर समझते हैं, हालाँकि इस पर भी कोई आखिरी समझ बनी हो, ऐसा हम नहीं कह सकते हैं। जो समझ आज है, वह सारी मार्क्सवादियों से नहीं आई है, पर सिर्फ इस वजह से हम उसे खारिज नहीं करेंगे। कोई सिद्धांत किन स्थितियों में ग़लत साबित हो सकता है, उसकी कल्पना कर पाना उस सिद्धांत के वैज्ञानिक कहलाने के लिए ज़रूरी है। वेद कुरान और दीगर धर्मग्रंथों में सारा आधुनिक ज्ञान मौजूद है, यह बात वैज्ञानिक इसलिए नहीं हो सकती कि हम इस तरह की आस्था को ग़लत कैसे प्रमाणित करें, इसका कोई उपाय नहीं है। आप कुछ भी कहें वे कहेंगे पुष्पक विमान से लेकर गणेश के सिर की सर्जरी सब कुछ इस या उस वेद में है। अगर आस्था किसी को सुकून देती है, हमें उससे क्या एतराज होगा, मार्क्स ने भी यही कहा था कि एक ऐसी दुनिया जहाँ दिल नहीं है, यानी संवेदनाएँ मर रही हैं, वहाँ धर्म संवेदनाओं भरा जिगर बन कर आता है, पर जब आस्था नफ़रत का सौदा करने वालों के हाथ सत्ता हथियाने का औजार बनती है, तो हमें इसका विरोध करना है। पर इसके लिए हमें यह समझ बनानी होगी कि क्या विज्ञान है और क्या नहीं है। विज्ञान और तकनोलोजी का आपस में संबंध क्या है। किस तरह विज्ञान का स्वरूप आज बदल रहा है। पिछली सदियों में विज्ञान का तरीका यह था कि जटिल बातों को हम टुकड़ों में बाँट कर समझें। यही अब समाज विज्ञान में भी दिखता है। इसकी अपनी सीमाएँ हैं। आज तकनोलोजी की मदद से विज्ञान की पद्धति पहसे से ज्यादा सर्वांगीण हो रही है। इन बातों को समझने और इन पर चर्चा के लिए के लिए हमारे पास जो भाषा होनी चाहिए थी, वह नहीं है, क्योंकि हमने लोगों की ज़ुबानों से शब्द न लेकर ज़बरन कृत्रिम संस्कृत के शब्द अपनाए। इस तरह हम अपने ही खिलाफ षड़यंत्र में शामिल हुए। आज हमारे पास विज्ञान की शब्दावली के लिए अंग्रेज़ी के अलावा कोई विकल्प नहीं है। हिंदी प्रदेशों में ही विरले ही ऐसे वैज्ञानिक मिलेंगे जो अपना शोध कार्य हिंदी में समझा सकें। इसलिए विज्ञान के संदर्भ में भी भाषा का सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है।

हम आप इन बातों को जानते थे कि मौजूदा सरकार के आने पर पोंगापंथियों को बढ़ावा मिलेगा, हर जगह ये अपने लोग बैठाएँगे, जो इतिहास भूगोल विज्ञान हर विषय को फिरकापरस्त नज़रों से देखते हैं। तो वैसा हो रहा है, आगे और भी होगा। इसलिए अब सभी तरक्कीपसंद लोगों को बड़े मंच पर इकट्ठे होने की ज़रूरत है। आपस में बहसें होती रहें, पर अगर आज वाम लोकतांत्रिक मंच बनाने में असफल रहा तो इतिहास हमें कभी मुआफ़ नहीं करेगा। एक सांस्कृतिक मंच के जिम्मे यह काम भी आता है कि हम भावनात्मक रूप से लोगों के साथ जुड़ें, सिर्फ सैद्धांतिक धरातल पर ही नहीं। मार्क्स ने भावनात्मक समझ पर बहुत जोर दिया था, धार्मिक आस्था पर उनका लिखा इसका एक बेहतरीन उदाहरण है। यह एक कमजोरी हमें साफ दिखती है। हम एक खास तरह की तर्कशीलता में ऐसे उलझे हुए हैं कि हमें हाशिए में खड़े लोगों को जोड़ पाने में सफल नहीं रहे हैं। हमारे नेतृत्व में स्त्रियाँ कम होती हैं, दलित कम हैं। इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है। संज्ञान का एक पहलू भावनात्मक भी होता है।

सम का अधिकतर कार्यक्षेत्र हिंदी प्रदेशों में है। यहाँ के पढ़ने-लिखने वालों में, अलग-अलग मंचों पर बेकार की बहसें खूब चलती हैं। आजकल तो हर कोई दो-चार लाइनों में इंकलाब लाने को बेताब दिखता है। इस माहौल में सार्थक बहसें चलाना, लोगों को बेहतर समाज के लिए लामबंद करने में तरक्कीपसंद ताकतों के साथ मिलकर आगे बढ़ना चुनौतीपूर्ण काम है। बिहार के चुनावों में आप सब लोग जी-जान से जुटेंगे, मैं जानता हूँ। घर-घर तक स्वस्थ संस्कृति ले जाते हुए आम लोगों को सही राजनैतिक दिशा दिखलाने में आपका एक-एक पल समर्पित रहेगा, मुझे मालूम है। यह सोच पाना मुश्किल है कि कितने अन्यायों के खिलाफ मंच इस सम्मेलन में प्रस्ताव पारित करेगा - तीस्ता सीतलवाड़ के साथ जो हो रहा है और पूना में फिल्म इंस्टीटिउट पर थोपे गए जुधिष्ठिर चौहान और छात्रों को दी गई धमकी पर तो बात होगी ही। फिलहाल यहीं अपनी बात खत्म करते हुए मैं फिर एकबार सभी साथियों को सलाम और जोहर कहता हूँ।

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