तीस्ता
सीतलवाड़ का सच और झूठ पर खड़ी
संघी राजनीति
संघ
परिवार और भाजपा सरकार के अनेक
कारनामों में से एक जुझारू
सांप्रदायिकता विरोधी कार्यकर्ता
तीस्ता सीतलवाड़ को बदनाम कर
उसे लगातार परेशान करने का
सिलसिला है। गुजरात सरकार
ने तीस्ता सीतलवाड़ और उनके
सबरंग प्रकाशन संस्थान पर
ग़लत ढंग से विदेशी मुद्रा लेने
और सार्वजनिक काम के लिए इकट्ठा
किए गए चंदे का निजी खर्च के
लिए इस्तेमाल करने का आरोप
लगाया है। राज्य सरकार ने ऐन
उस वक्त केंद्रीय गृह मंत्रालय
को सी बी आई द्वारा जाँच के
लिए कहा, जब
गुजरात में 2002
के
जनसंहार के कुछ दोषियों के
खिलाफ तीस्ता और उसके सहयोगियों
की अगुवाई में अदालत में लाए
मामलों की सुनवाई अंतिम चरण
पर आ पहुँची है। सी बी आई में
लगातार गुजरात से लाए पुलिस
अफसरों को ऊँचे पदों पर लाया
गया है, इसलिए
अचरज नहीं कि त्वरित कारवाई
हुई और उनके घरों पर सी बी आई
के छापे पड़े। गुजरात पुलिस
ने मीडिया को बतलाया कि कैसे
मदिरा, फास्ट
फूड आदि पर पैसे खर्च किए गए
हैं। तीस्ता और उनके पति जावेद
आनंद पर लगाए ये आक्षेप बहुत
पुराने हैं और निष्पक्ष जाँच
से कुछ निकलने का होता तो साल
भर पहले ही सामने आ गया होता।
तीस्ता और जावेद सी बी आई और
अन्य एजेंसीज़ को सारे कागज़ात
दे चुके हैं,
जिसमें
विदेशी मुद्रा लेने के सारे
विवरण हैं। यह भी कि गृह मंत्रालय
और उनकी (तीस्ता
की) समझ
में फ़र्क है कि विदेशी मुद्रा
लेने में उन्होंने अपराध किया
है नहीं। सरकारी नियमों के
अनुसार विदेशी संस्था से पैसे
लेने के लिए विदेशी मुद्रा
पंजीकरण नियम (FCRA
registration) के
मुताबिक नाम दर्ज़ करवाना
पड़ता है। तीस्ता और जावेद का
कहना है कि एफ सी आर ए नियमों
के मुताबिक अगर यह पैसा
कन्सल्टेंसी यानी सलाहकार
के काम के लिए मिला है तो इसमें
अनुमति की ज़रूरत नहीं पड़ती।
इसी बात को लेकर विवाद है -
जिसकी
निष्पत्ति अदालत में चल रही
सुनवाई से हो सकती है। अभी तक
कहीं इस बात का कोई प्रमाण
नहीं है कि उनके अपराध की पुष्टि
हो गई है। गुजरात पुलिस के
बयानों पर यकीन करना मुश्किल
है, क्योंकि
पिछले दशकों में कई ऐसे मामले
आए हैं, जहाँ
उसकी भूमिका पर सवाल उठे हैं।
कभी राज्य पुलिस का उच्चतम
अधिकारी रह चुका शख्स अभी तक
जेल में है,
और एकाधिक
ऊँचे पदों पर रह चुके अधिकारियों
को ज़बरन निलंबित किया गया
है। तीस्ता ने अपने तईं दस साल
के खर्चे का पूरा हिसाब दिखलाया
है, जिसमें
दस साल में उनकी सैंतालीस लाख
से जरा कम और जावेद की सवा अड़तीस
लाख से जरा ज्यादा की तनख़ाह
या मानदेय के अलावा हर खर्च
की नामी अकाउंटेंट डी एम साठे
समूह द्वारा बाकायदा ऑडिटिंग
हुई है। तीस्ता और सहयोगियों
द्वारा आयोजित गतिविधियों
में देश के प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी
शामिल रहे हैं,
जिनमें
सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व
न्यायधीश व्ही आर कृष्णा अय्यर
और पी बी सावंत जैसी विभूतियाँ
शामिल रही हैं। इंसाफ और अम्न
के लिए इकट्ठे हुए मुंबई के
जिस सचेत नागरिक समूह की पहल
से ये गतिविधियाँ शुरू हुई
थीं, उनमें
विजय तेंदुलकर जैसे जानेमाने
साहित्य-संस्कृति
कर्मी रहे हैं। तो क्या वे सभी
लोग देश की सुरक्षा के लिए
खतरा हैं?
गौरतलब
है कि इनमें से किसी ने भी
तीस्ता पर भ्रष्टाचार का आरोप
नहीं लगाया है। सबरंग की तरह
ही अम्न और इंसाफ पसंद नागरिक
गुट के खर्चों का भी नामी
ऑडिटर्स हरिभक्ति कंपनी के
द्वारा हर साल हिसाब रखा गया
है। दोनों ऑडिटर्स ने पुलिस
की अपराध शाखा को सूचना दी है
कि कहीं कोई गड़बड़ नहीं हुई है।
उनको जो विदेशी मुद्रा की राशि
मिली है, उससे
कहीं गुना (बिना
अतिशयोक्ति के,
कम से
कम हजार गुना ज्यादा)
ज्यादा
संघ परिवार के संगठनों को
विदेशों से पैसा मिला है। क्या
ऐसे संगठनों पर सी बी आई के
छापे पड़े हैं?
कभी
किसी राज्य की पुलिस या खुफिया
संस्थाओं ने इन संगठनों को
देश की सुरक्षा के लिए खतरा
नहीं कहा,
जबकि
सांप्रदायिक हिंसा में पीड़ित
लोगों के लिए की गई पहल और इस
पर जागरुकता फैलाने को देश
के लिए खतरनाक कहा जा रहा है।
यह संभव है कि बहीखाते में पाई
पाई का हिसाब न मिलता हो। पर
उन्हें अपराधी मानना और जैसा
कि सी बी आई के किसी अधिकारी
ने कहा है कि वे देश की सुरक्षा
के लिए खतरा हैं,
बिना
किसी प्रमाण के ऐसी बातें कहते
रहना हमारे समय में फासीवाद
के बढ़ते शिकंजे की पहचान है।
देश
की कई संस्थाएँ और संस्थान
कई देशी-विदेशी
संस्थाओं से सहायता लेने की
कोशिश करते रहते हैं। तो क्या
उन संस्थाओं में काम कर रहे
हर किसी के घर पर सी बी आई का
छापा पड़ेगा?
क्या
लाखों युवाओं के घर छापे पड़ेंगे
जो ऐसी कंपनियों में काम करते
हैं जिनका विदेशी मुद्रा में
लेनदेन कितना कानूनी है कहना
मुश्किल है। देश में शायद ही
ऐसी कोई कंपनी होगी जो विदेशी
मुद्रा में लेनदेन पूरी तरह
से कानूनी ढंग से करती है। बात
यह नहीं है कि उन सब की तरह
तीस्ता को भी छोड़ दिया जाए।
सवाल यह है कि ढंग से अदालती
कार्रवाई कर दोषियों को सजा
दी जा सकती है। गुलबर्ग सोसायटी,
जहाँ
2002 में
एहसान जाफरी समेत 69
लोगों
का कत्ल हुआ था,
वहाँ
स्मारक बनाने के लिए सबरंग
निधि ने 4.6
लाख
रुपए इकट्ठे किए थे। तीस्ता
पर यह इल्ज़ाम है कि इन पैसों
का ग़लत उपयोग हुआ है। सच यह है
कि ज़मीन की कीमतें हद से ज्यादा
बढ़ जाने की वजह से स्मारक बन
नहीं पाया और सारे पैसे निधि
के बैंक खाते में जमा हैं। अगर
सचमुच कोई घोटाला है तो जाँच
कर दोषियों को सजा दी जाए,
पर हर
दिन सी बी आई के द्वारा बुलाया
जाना और एक ही सवाल बार बार
पूछे जाना,
इसका
मतलब क्या है?
तीस्ता
के खिलाफ जो माहौल तैयार किया
जा रहा है,
वह एक
षड़यंत्र है,
ताकि
गुजरात में हुई हत्याओं के
जिन मामलों को,
खास तौर
पर गुलबर्ग सोसायटी के जिन
मामलों को वे अदालत में ले आई
हैं, उनसे
जुड़े गवाहों में और न्यायाधीशों
में ऐसा ख़ौफ़ पैदा कर दिया जाए
कि ये मामले कभी अपनी सही परिणति
पर न पहुँच पाएँ और पीड़ितों
को न्याय नहीं मिल पाए। यू एन
ओ के भूतपूर्व मानव अधिकार
मामलों के कमिश्नर जज नवी
पिल्लै ने चिंता प्रकट की है
कि सरकारें मानव अधिकार
कार्यकर्ताओं को राष्ट्रविरोधी
करार देती हैं। अगर विदेशी
पैसे की समस्या है तो इसका हल
यही है कि मानव अधिकार संस्थाओं
को सरकार द्वारा आर्थिक मदद
मुहैया करवाई जाए।
भाजपा
के सत्तासीन होने के बाद से
संघ परिवार के कई ग़लत कारनामों
के बावजूद देश में संघ और सरकार
के समर्थकों की कमी नहीं है।
वे सभी इस वक्त तीस्ता को बदनाम
करने के लिए पुरजोर कोशिश कर
रहे हैं। देश की आम जनता के
खिलाफ काम कर रही सरकार को
विकास का रहनुमा कहने वाले
इन लोगों को पता है कि अस्सी
साल पहले जर्मनी में हिटलर
की सरकार ने जितनी तेजी से
तकनीकी तरक्की लाई थी,
उसकी
तुलना में यह सरकार बहुत पीछे
है। सौ साल पहले का हो,
या पिछले
दो दशकों का,
इतिहास
हमारे सामने खुली किताब बन
मौजूद है। एक ज़माने में सारी
जर्मन क़ौम को हिटलर पसंद था।
उनकी संतानें आज तक इस बात को
समझ नहीं पा रही हैं कि ऐसा
कैसे हुआ।
कई
लोग तीस्ता पर लगे इल्ज़ामों
का जिक्र करते हुए दुहाई देते
हैं कि सवाल उठाना ही लोकतंत्र
की निशानी है। बात सही है। पर
कौन नहीं जानता है कि सवाल
उठाने की वजह से ही तीस्ता को
तंग किया जा रहा है। निरपेक्षता
का दावा करना,
खास तौर
पर ऐसे विवादों में जहां एक
पार्टी खुलेआम सांप्रदायिक
हो और जिसके बारे में साफ तौर
पर पता हो कि वे हिंसा की राजनीति
करते हैं और निर्दोषों का कत्ल
करवाते रहे हों,
ऐसा
दावा एक राजनैतिक पक्षधरता
है। मौजूदा सरकार और संघ परिवार
के अधीन हर एजेंसी की पहली
रणनीति हिटलर के सूचना अधिकारी
गोएबेल्स की तरह जोर-शोर
से झूठी बातें फैला कर झूठ को
सच में बदलने की कोशिश होती
है। यह बात भूलनी नहीं चाहिए
कि तीस्ता के खिलाफ इल्ज़ाम
उस गुजरात पुलिस ने लगाए हैं,
जो बुरी
तरह बदनाम है।
यह
संभव है कि गुजरात पुलिस की
सारी बातें सच हों,
पर जब
तक वे प्रमाणित न हों,
उन्हें
सच मान लेना और दूसरे पक्ष को
निश्चित रूप से दोषी ठहराना
लोकतांत्रिक नहीं कहला सकता।
काश कि हम कह पाते कि तीस्ता
पर उठाए इल्ज़ामों को दुहराने
वाले लोग लोकतांत्रिक परंपराओं
को मजबूत कर रहे हैं। फिलहाल
तो यही कहा जा सकता है कि वे
एक जनविरोधी सत्ता के समर्थन
में बड़ी सच्चाइयों को नज़रअंदाज़
कर रहे हैं। जिस तरह से सी बी
आई और एन आई ए आदि जाँच संस्थाओं
का इस्तेमाल सत्तासीन राजनैतिक
दल के हितों की रक्षा के लिए
होने लगा है,
अगर
तीस्ता को जेल हो भी जाती है,
फिर भी
सवाल तो रह जाएँगे,
पर अदालत
की राय आने के पहले ही गुजरात
पुलिस के बयानों के आधार पर
उन्हें दोषी ठहराया जाना बीमार
मानसिकता ही दर्शाता है।
तीस्ता ने बार बार इन आरोपों
का खंडन करते हुए लोगों तक
जानकारी पहुँचाने की कोशिश
की है। यह जानकारी भी सार्वजनिक
है। हम किस जानकारी को क्यों
याद रखते हैं,
और किसको
भूल जाते हैं,
यह हमारी
राजनैतिक पक्षधरता को दिखलाता
है। जब पढ़े-लिखे
लोग इस तरह शासक वर्गों के
समर्थन में आग्रह के साथ खड़े
होने लगते हैं,
तो यह
फासीवाद को जन्म देता है। कई
लोगों को चिढ़ होती है कि 1984
या 2002
की घटनाओं
पर कब तक बात होती रहेगी। अव्वल
तो न्याय की गुहार तो तब तक
उठती रहेगी जब तक न्याय मिलता
नहीं है, पर
ज्यादा गंभीर बात यह है कि
इतिहास को,
खास तौर
पर निर्दोषों के साथ हुए
ज़ुल्मों को इसलिए बार-बार
याद करना पड़ता है कि वैसी
स्थितियाँ दुबारा न आ पाएँ।
अतीत के अन्यायों को छिपाना
देश का गौरव बढ़ाता नहीं है,
बल्कि
उन्हें याद कर यह सुनिश्चित
करना कि भविष्य में फिर कभी
ज़ुल्म न ढाए जाएँ,
यही
सभ्यता और गर्व की बात है। अगर
हमें अपने अंदर पूरी तरह
इंसानियत को बसाना है तो हमें
दूसरों के दर्द को समझना पड़ेगा
और इंसानियत पर कहर ढाने वालों
को सजा देने के लिए आवाज़ उठानी
पड़ेगी, चाहे
वे कितने भी ताकतवर क्यों न
हों। तीस्ता की लड़ाई इसी संघर्ष
का हिस्सा है।
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