Sunday, July 12, 2015

आशीष बनाम आशीष - 2


(पिछली पोस्ट से आगे)  - 


दो (भाग तीन अगली पोस्ट में) 
 

बहुलतावाद, सिक्योलरिज़्म और राष्ट्र-राज्य: नंदी और सेन

राष्ट्र-राज्य, राष्ट्रवाद, सिक्योलरिज़्म, तरक्की, इतिहास, तर्कशीलता और '

 रीयलपोलिटिक' – इन पाँच घटकों को नंदी जी ने आज के हिंदुस्तान की 

तकरीबन वैश्विक चेतना के प्रधान अंग कह कर चिह्नित किया है।



यही विषय अमर्त्य सेन की चर्चा के विषय भी हैं। बहुलतावाद अमर्त्य सेन का 

बहुत प्रिय विषय है। दरअसल भारतीय इतिहास, दर्शन और संस्कृति का मुख्य 

झुकाव हमेशा ही बहुलतावाद की ओर रहा है। साफ तर्कों और तथ्यों के जरिए 

इस बात को उन्होंने साबित किया है। पर उनके और आशीष नंदी के 

बहुलतावाद में ज़मीन आस्मान का फर्क है। सिक्योलरिज़्म अमर्त्य की 

योजनाओं का मुख्य आधार है। उन्होंने गौर किया है कि हाल के वक्तों में 

सिक्योलरिज़्म पर कई दिशाओं से चोट आ रही है। हिंदुत्ववादी हमलों की बात 

तो हर कोई जानता है। पर अमर्त्य खेद के साथ गौर करते हैं कि यह हमला 

सिर्फ हिंदुत्ववादियों में ही सीमित नहीं है, बल्कि 'भारतीय समाज और 

संस्कृति के मसलों पर उच्च-स्तरीय चर्चाओं' (high theory of Indian culture and society)1 में भी तकलीफदेह रूप से दिखता है। जिनमें यह 

दिखता है, उनमें सबसे बड़े नाम आशीष नंदी हैं। दरअसल आशीष बाबू के 

विचार में सिक्योलरिज़्म ही सभी बुराइयों की जड़ है। 'आधुनिक' युग में धर्म 

नहीं, सिक्योलरिज़्म ही जनता का 'नया अफीम' है। उनके सोच की दिशा इस 

तरह की है - भारत जितना 'आधुनिक' हो रहा है, मजहब आधारित 

फिरकापरस्ती की मारकाट बढ़ रही है। जबकि प्राक-आधुनिक भारतीय 

लोकसमाज में युगों से पारंपरिक जीवन-यात्रा में ही समुदायों के बीच आपस में 

अंत:-सामुदायिक सहिष्णुता की नीति विकसित हुई थी। सिक्योलरिज़्म 

नामक नए विचार की मदद करते हुए राष्ट्र-राज्य ने समुदायों के बीच की 

सहिष्णुता के उस सिद्धांत को खत्म कर दिया। सिक्योलरिज़्म, 'आधुनिकता'  

और 'तरक्की' में अंतरंग जुड़ाव है। आधुनिकता और तरक्की के विचारों का 

आदर्श ही सिक्योलरिज़्म के विचार के आदर्श की मदद करता है और ऐसा 

करते हुए राष्ट्र-राज्य के जरिए बल-प्रयोग कर लोगों पर एक अजीब धारणा 

थोप देता है। किस्म-किस्म के लोकसमाजों की गहराइयों में से अपने आप 

पनपी विविधता को मिटाकर वह ज़बरन स्टीमरोलर चलाकर 'सभ्य समाज'  

गढ़ना चाहता है। बिना बल-प्रयोग के, बिना हिंसा के यह सिक्योलरिज़्म टिक 

नहीं सकता है। इसलिए इस आधुनिकता, यह तरक्की, यह राष्ट्र-राज्य, इस 

सिक्योलरिज़्म का त्याग करना होगा।

अमर्त्य सेन ने आशीष बाबू के इस सिद्धांत पर कुछ साफ सवाल उठाए हैं

1) 'आधुनिकता' क्या चीज़ है, इसे आशीष बाबू ने इतनी निश्चितता से कैसे 

जान लिया? आधुनिकतावादी और उत्तर-आधुनिकतावादी क्या खुद जानते हैं 

कि आधुनिकता का मतलब क्या है? 2) अलग-अलग लोक-समुदायों में 

फर्क मिटाकर भारतीय राष्ट्र-राज्य असल में अपनी धौंस जमाना चाहता है, यह 

बात सही है, पर एक मजहब आधारित फिरके की जगह दूसरे को मदद देना 

रोकते ही राष्ट्रीय हिंसा प्रकट हो उठती है, क्या यह बात सही है? 3)  

सिक्योलरिज़्म को खासकर 'आधुनिक' युग का विचार ही क्यों माना जाए?  

अशोक या अकबर के जमाने में भी राष्ट्र धर्म-समभाव की नीति मानकर चलता 

था। उस नीति के लागू होने पर राष्ट्रीय हिंसा बढ़ी हो, ऐसा कोई प्रमाण नहीं है। 

इसलिए सिक्योलरिज़्म को राष्ट्रीय स्तर पर हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराना,  

या जनता का 'नया अफीम' कहना तर्क और इतिहास के धरातल पर टिकता 

नहीं है।

आशीष नंदी राष्ट्र-राज्य के विपरीत लोकसमाज को खास महत्व देते हैं। इस 

बारे में भी अमर्त्य बाबू का बयान खास ध्यान देने योग्य है। लोकसमाज-पंथी  

'बड़ी तीखी आवाज़ में यह बखान रहे हैं कि कोई भी लोकसमाज आधारित  

(केवल धर्म-संप्रदाय आधारित नहीं) पहचान ही आमतौर पर बहुत महत्वपूर्ण 

है। बहुत दूर के किसी नेशन की सामूहिकता का हिस्सा बनने की तुलना में 

किसी 'खंड टुकड़े' का हिस्सा बनने में जिस अंतरंग आत्मीयता का अहसास 

होता है, जो प्रासंगिकता और जो बड़े पैमाने की समृद्धि होती है, उस पर ये 

जोर दे रहे हैं।'2 'नेशन' (कौम) और राष्ट्र-राज्य (नेशन-स्टेट) एक बात नहीं 

हैइस बयान को ठोस बनाते हुए अमर्त्य सेन ने लिखा है: 'राष्ट्र वर्चस्व और 

हिंसा थोपने का दोषी है, यह बात सही है। पर परंपराओं में बँधे कई 

लोकसमाज भी अपने कमजोर सदस्यों पर (जैसे स्त्री, कन्याशिशु या निम्न- 

जाति-वर्ग के लोग) निरंतर कई तरह के जोर-ज़ुल्म और अत्याचार करते हैं। और फिर इन मामलों में राष्ट्र ही कभी-कभी रक्षक की भूमिका अदा करता है।'3  

इसलिए चर्चा इस बात पर होनी चाहिए कि लोकसमाज और राष्ट्र में कैसा संबंध 

होना चाहिए। पर इसके विपरीत आशीष नंदी ने राष्ट्र के विलोम के रूप में लोक 

समाज को पेश किया है और सिक्योलरिज़्म को राष्ट्र द्वारा थोपा हुआ अन्याय 

कह कर चिह्नित किया है। इसके अर्थ बहुमुखी हैं और यथार्थ में भयंकर स्वरूप 

लेेने की संभावना से भरे हुए हैं।


संदर्भ:

1. अमर्त्य सेन, द आर्गुमेंटेटिव इंडियन, ऐलेन लेन, पेंगुइन, लंदन, 2005, पृ. 194
2. अमर्त्य सेन, भारतेर अतीत -व्याख्या प्रसंगे (मूल से बांग्ला में अनुवाद – आशीष लाहिड़ी), एशियटिक सोसायटी 1999, पृ. 20
3. वही, पृ. 22

No comments: