'गर्भनाल' के जुलाई अंक में प्रकाशित आलेख
आई
आई टी - एम
कांड को कैसे देखें
हाल
में आई आई टी मद्रास में
आंबेडकर-पेरियार
के नाम से चल रहे छात्रों के
एक विमर्श-केंद्रित
संगठन पर प्रतिबंध के बखेड़े
पर कई टिप्पणियाँ आई हैं। आई
आई टी प्रशासन ने किसी अज्ञात
व्यक्ति द्वारा लिखे ख़त के
जवाब में मानव संसाधन मंत्रालय
(एम
एच आर डी) के
किसी सचिव के लिखे निर्देश
के आधार पर आंबेडकर-पेरियार
के नाम से बनी छात्र संस्था
को प्रतिबंधित कर दिया था;
बाद में
देशव्यापी विरोध के चलते यह
कदम वापस लिया गया। कहा गया
है कि साल भर पहले भी उनसे
(छात्र
संगठन से)
नाम
बदलने को कहा गया था,
जबकि
स्वामी विवेकानंद के नाम से
चलता संघी विचार मंच बेरोक
चल रहा है,
वगैरह
बातों की मीडिया में काफी चीर
फाड़ हो चुकी है।
इस
सारी बहस में यह मान लिया जा
रहा है कि देश के संपन्न वर्गों
में बड़ा उदारवादी हिस्सा भी
है, जो
इस तरह की असहिष्णुता स्वीकार
नहीं करता। इसमें कोई शक नहीं
कि हमारे सभ्य समाज का ऐसा एक
बड़ा उदारवादी हिस्सा है,
पर उसकी
उदारता सिर्फ इतनी है कि वह
- हाय,
हाल
बिगड़ते जा रहे हैं,
कह लेता
है। इसमें कोई बुरी बात नहीं
है कि ऐसी उदारता मौजूद है,
पर सच
यह है कि यह वर्ग हद से ज्यादा
उदासीन है और सचमुच इन्हें
कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि
आंबेडकर-पेरियारवादी
छात्रों को रोका जा रहा है।
इनमें से अधिकतर आंबेडकर और
पेरियार को दलितों और सिर्फ
दलितों का नेता मानते हैं।
उत्तर भारत में तो अधिकतर
लोगों को पता ही नहीं है कि
पेरियार कौन थे। आंबेडकर के
बारे में इधर जानकारी बढ़ी है,
पर आज़ादी
के बाद कई पीढ़ियाँ उनके बारे
में बिना कुछ जाने ही बड़ी हुई
हैं। यह शर्मनाक बात इस मुल्क
में ही संभव है कि देश का संविधान
बनाने वाली सभा में संविधान
का मसौदा तैयार करती समिति
के अध्यक्ष के बारे में पर्याप्त
जानकारी के बिना पचास साल गुजर
जाते हैं। यह और बात है कि
आज़ादी की लड़ाई के दौरान सबसे
अधिक पढ़े-लिखे
आदमी का नाम आंबेडकर था,
जिसने
अकल्पनीय स्थितियों में जीते
हुए अपने समय की श्रेष्ठ शिक्षा
पाई। उनकी उच्च शिक्षा का
ब्यौरा पढ़कर हैरानी होती है
कि सौ साल पहले यह आदमी इतनी
दूर तक कैसे पहुँच गया। यू एस
ए के कोलंबिया विश्वविद्यालय
से उन्होंने अर्थशास्त्र में
एम ए की डिग्री ली। इसके लिए
मानविकी के तमाम विषयों में
अध्ययन के अलावा उन्होंने
प्राचीन भारत में व्यापार पर
थीसिस लिखी। इसके बाद भारत
के इतिहास का विश्लेषण करते
हुए एक और थीसिस लिख कर एक और
एम ए की डिग्री ली। फिर तीसरी
थीसिस के साथ उन्हें पी एच डी
की डिग्री भी मिली। उसी दौरान
मानव विज्ञान (ऐंथ्रोपोलोजी)
में
अलेक्ज़ेडर गोल्डनवाइज़र
द्वारा आयोजित एक सेमिनार
में भारत की जाति-व्यवस्था
पर अपना पर्चा पढ़ा। फिर लंदन
में कानून की पढ़ाई और साथ में
लंडन स्कून ऑफ इकोनॉमिक्स
में भारत की आर्थिक मुद्रा
पर शोध का काम शुरू किया। वहाँ
से मास्टर की डिग्री और फिर
डी एस सी की डिग्री ली और कानून
की पढ़ाई खत्म कर वकालत की
योग्यता भी हासिल की। बाद में
दो डिग्रियाँ औपचारिक सम्मान
बतौर मिलीं। समझ,
शिक्षा
और संघर्ष के पैमाने पर भारत
के अधिकतर नेता आंबेडकर और
पेरियार के सामने बौने दिखते
हैं। संपन्न वर्गों में जिनको
यह सब पता है,
उनमें
से अधिकतर यह कहते हुए कि वे
महान दलित नेता थे,
यह गिनाते
हैं कि उनकी समझ में क्या कमियाँ
थी।
आंबेडकर
और पेरियार दोनों ही युगपुरुष
थे। पेरियार ने दक्षिण भारत
में, खास
तौर पर तमिलनाड में सशक्त
तर्कशील आंदोलन खड़ा किया था,
जिसके
पहले निशाने पर जाति-व्यवस्था
थी। उनका काम कितना महत्वपूर्ण
है, यह
इस बात से पता चलता है कि संयुक्त
राष्ट्र की तालीम,
विज्ञान
और संस्कृति विषयों की संस्था
यूनेस्को ने उन्हें सम्मानित
करते हुए इस तरह उल्लेख किया
- 'वे
नए जमाने के पैगंबर हैं,
दक्षिण
पूर्व एशिया के सुकरात हैं....।'
दोनों
का ही समकालीन भारतीय इतिहास
पर प्रभावी असर है और रहेगा।
दक्षिण में मुख्यधारा की
राजनीति में पेरियार की वजह
से बुनियादी बदलाव आए तो उत्तर
में गाँधी तक को आंबेडकर से
सीखते हुए अपने विचारों में
बड़े बदलाव लाने पड़े। उस जमाने
में देश की राजनीति पर जिस लघु
समूह का वर्चस्व था,
वे गाँधी
के साथ थे,
और आबादी
के बहुत बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व
करते हुए भी आंबेडकर के लिए
चुनाव तक जीत पाना संभव नहीं
था। निरपेक्ष ढंग से इतिहास
पढ़ने वाले लोग इस तथ्य को जानकर
शर्मिंदा होंगे कि एकबार
पूर्वी बंगाल से मुस्लिम लीग
के समर्थन से वे जीते तो देश
के बँटवारे के बाद सीट न रहने
पार दूसरी बार कांग्रेस के
समर्थन से वे संसद में आए। पर
हमारे प्रबुद्ध उदारवादी इसी
बात को ऐसे समझाते हैं कि
आंबेडकर दरअसल बड़े नेता नहीं
थे। अभी वह वक्त आया नहीं है
कि इस तरह कहने पर उन पर कोई
चाँटा जड़ दे,
पर उनके
निरंतर पाखंड को देखते हुए
यह डर ज़रूर है कि वह दिन दूर
नहीं जब ऐसा होने लगेगा।
ग़लतियाँ
हर किसी से होती हैं। जब हम
ऐसी स्थिति में होते हैं कि
लोग हम्मारा सम्मान करते हैं
और हमारी ग़लतियों को अनदेखा
कर देते हैं तो हम खुद ही अपनी
ग़लतियाँ मान कर उन्हें ठीक
कर लेते हैं। गाँधी जी ने भी
कई ग़लतियाँ कीं,
पर समय
के साथ उन्होंने निरंतर खुद
को सुधारा और वे वह बने जैसा
हम आज उन्हें जानते हैं। आंबेडकर
ने वर्ण-व्यवस्था
पर उनके आग्रहों की आलोचना
की तो अपनी नई तालीम की संरचना
में बदलाव लाए। गाँधी जी सही-ग़लत
अपनी बात पर अड़ जाते तो उनकी
बात लोगों को माननी पड़ती,
क्योंकि
जिन जातियों और वर्गों का
वर्चस्व तत्कालीन समाज पर
था, वे
उनके साथ थे। आंबेडकर के साथ
बिल्कुल इसके विपरीत स्थिति
थी। विश्व की जानी-मानी
उच्च-शिक्षा
संस्थाओं से डिग्रियाँ पाए
उस आदमी को उस घड़े का पानी पीने
की इजाज़त नहीं थी,
जिसमें
से ऊँची जाति के कहलाने वाले
निहायत ही छोटे लोग पानी पी
सकते थे। पूना पैक्ट पर गाँधी
जी अड़ गए तो आंबेडकर को झुकना
पड़ा, हालाँकि
देश में आज भी जाति-व्यवस्था
की जकड़ को देखते हुए लगता यही
है कि आंबेडकर की समझ सही थी।
संरक्षित क्षेत्रों से अनुसूचित
जाति के प्रार्थी चुने तो जाते
हैं, पर
वही जिनको ऊँची जातियों के
हाथों नियंत्रित मुख्यधारा
के दलों का समर्थन होता है।
आज़ादी के बाद जब स्त्रियों
के अधिकारों जैसे बुनियादी
मसलों पर आंबेडकर अड़ गए,
तो हार
उन्हीं की हुई,
और उन्हें
कानून मंत्री के पद से इस्तीफा
देना पड़ा। भारत और पाकिस्तान
दोनों देशों में पहले कानून
मंत्री अनुसूचित जातियों से
बने और दोनों को इस्तीफा देना
पड़ा। यह जाति की सच्चाई है।
आंबेडकर
से कई बातों पर असहमति हो सकती
है। किसी भी महान कहे जाने
वाले आदमी से असहमतियाँ हो
ही सकती हैं। आइंस्टाइन आजीवन
क्वांटम गतिकी को लेकर अपनी
शंकाएँ जताते रहे,
उन्होंने
कभी इसे स्वीकार नहीं किया।
पर इससे आइंस्टाइन छोटे नहीं
हो जाते। बीसवीं सदी के विज्ञान
में उनका कद शिखर पर ही रहेगा।
भारतीय राजनीति में व्यवहार
में गाँधी से कहीं कोई सहमति
नहीं है। उन्होंने तो कांग्रेस
दल को चुनावी राजनीति से अलग
करने तक की माँग कर दी थी। पर
भारतीय राजनीति में वाम से
दक्षिण तक हर कोई उन्हें बीसवीं
सदी के भारत का सबसे बड़ा
व्यक्तित्व मानता है। पर
आंबेडकर और पेरियार,
जिन्होंने
देश की मध्य युगीन सोच को बदलने
के लिए ताज़िंदगी संघर्ष किया,
उनको
इतिहास में अभी तक वह जगह मिली
नहीं है, जो
उन्हें मिलनी चाहिए।
इसलिए
मसला सिर्फ यह नहीं है कि
आंबेडकर-पेरियार
के नाम से कुछ दक्षिणपंथियों
को आपत्ति है। देश के उदारवादी
माने जाने लोगों को यह सोचना
है कि इन महान शख्सियतों के
बारे में हम सचमुच क्या
जानते-सोचते
हैं। 'हिंद-स्वराज'
पर बहुत
बातचीत होती है,
होनी
भी चाहिए,
पर
'जाति-व्यवस्था
के विनाश'
पर कितनी
बातें होती हैं। विड़ंबना यह
है कि दोनों कृतियों के बारे
में हमारा रवैया पाखंड भरा
है। पहली कृति के बारे में हम
शोर मचाते हैं और भूल जाते हैं
कि गाँधी का स्वराज केवल एक
नारा भर रह गया है। दूसरी कृति
के बारे में हमने जान लिया है
कि इसे आंबेडकर ने लिखा है और
हम कह लेते हैं कि वे बड़े 'दलित'
नेता
थे।
पर
देश के ग़रीब तबकों के लोग अब
इन नारों और उदार दृष्टियों
को मान कर चुप रहने वाले नहीं
हैं। जिस तरह से देश पर नवउदारवादी
हमला हो रहा है और खुलेआम लूट
मची है, यह
बहुसंख्यक लोगों के लिए
जीने-मरने
का सवाल हो गया है। इसे सत्तासीन
संपन्न वर्गों-जातियों
के लोग भी समझते हैं। इसलिए
आम लोगों को जाति और मजहब में
भरमाए रखने के लिए तीखी कोशिशें
जारी हैं। इस असहिष्णुता को
देखकर और इसके बारे में अंग्रेज़ी
में बयानबाजी कर लेने मात्र
से प्रबुद्ध तबकों की ज़िम्मेदारी
खत्म नहीं हो जाएगी।
अचरज
इस बात का है,
कि कई
लोग आई आई टी मद्रास में हुई
घटना जैसी ज्यादतियों का जिक्र
कर लिखते हैं कि मोदी जी को
क्या दिख नहीं रहा है कि
ज्यादतियाँ हो रही हैं!
पिछले
साल संसद के चुनावों के पहले
इस लेखक ने कई बार लिखा था कि
अब हमें तैयार हो जाना चाहिए
कि मुल्क में सांप्रदायिक
ताकतें मजबूत होंगी और लोकतांत्रिक
माहौल बदतर होगा। सहिष्णुता
के लिए प्रधान मंत्री के यदा-कदा
आते बयानों को कोई कैसे गंभीरता
से ले सकता है,
या फिर
कोई उनकी चुप्पी को कोसता रहता
है, यह
समझना मुश्किल है। सत्तासीन
दल की रीढ़ की हड्डी संघ परिवार
ने तो हास्यास्पद ढंग से यहाँ
तक कहना शुरू किया है कि आंबेडकर
पेरियार के खिलाफ थे। आंबेडकर
ने जाति-व्यवस्था
की भयंकर यंत्रणाओं को देखते
हुए यह कहा था कि -
मेरा
जन्म भले ही हिंदू धर्म में
हुआ, पर
मैं हिंदू रहकर मरूँगा नहीं।
और सब जानते हैं कि उन्होंने
बौद्ध धर्म को स्वीकार किया।
उसी आंबेडकर को हिंदू सुधारवादी
कहकर और पेरियार को दलित विरोधी
कहकर कुछ लोग नाटक कर रहे हैं।
इस देश की स्थिति इतनी खराब
हो गई है कि तमाम बड़ी घटनाओं
को दरकिनार कर ऐसी खबरें
सूचना-तंत्र
में बड़ी जगहें बनाती हैं। आज
का मीडिया वही बेचता है जो
बिकता है। आखिर ऐसी ऊल-जलूल
बातें क्यों बिकती हैं?
यह सोचने
का विषय है। क्या हमारा प्रबुद्ध
वर्ग सचमुच इतना सक्रिय है
जितना हमारे बयानों से लगता
है?
ये
बातें गंभीर चिंता का कारण
इसलिए हैं कि इतिहास से सबक
लेने में हम निहायत ही असफल
दिख रहे हैं। संघ परिवार का
एजेंडा दलितों को अपनी फासीवादी
सोच के दायरे में ले आना है।
हिंसा और अशिक्षा के माहौल
में ग़रीब तबकों के लोग जिजीविषा
की तड़प में किस ओर मुड़ेंगे,
हमारा
भविष्य इसी से यह होगा। बेहतर
और बदतर दोनों संभावनाएँ हैं
- हम
उस मोड़ पर खड़े हैं कि हमें अपनी
जड़ता को छोड़कर तैयार होना होगा
कि हम सही विकल्प चुनें। व्यापक
विविधताओं से भरे इस मुल्क
में पोंगापंथियों के लिए सभी
लोगों को भरमाकर हिंसा के बल
पर निरंकुश शासन हथिया लेना
अभी तक इतना आसान नहीं रहा है,
पर आगे
क्या होना है,
यह खुला
सवाल है। इसलिए अपनी बौद्धिक
जड़ता से निकलकर हमें अपनी समझ
में मौजूद कमियों की परख करनी
पड़ेगी। आई आई टी मद्रास कांड
को हमें इस नज़रिए से देखना
चाहिए।
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