'समयांतर' पत्रिका के जुलाई अंक (10) में प्रकाशित
आशीष
नंदी:
ग़फलत-में-सुकून
का उल्लास
आशीष
लाहिड़ी की बांग्ला निबंधों
की किताब 'भद्रलोकि
जुक्तिबादेर दक्षिणावर्त
(भद्रलोक तर्कशीलता का दक्षिण को मुड़ना)' में संकलित लेख 'आशीष नंदी:
भ्रांति-सुखेर
उल्लास'
का
अनुवाद। लेख के तीन भाग हैं। यहाँ सिर्फ पहला भाग
पोस्ट कर रहा हूँ।
अगले भाग अगली पोस्टों में -
मूल
लेखक का परिचय:
आशीष
लाहिड़ी विज्ञान के इतिहास पर
शोध करते
हैं
और कोलकाता
के एसियटिक सोसायटी और राष्ट्रीय
विज्ञान संग्रहालय में
अध्यापन
करते रहे हैं। उन्होंने बांग्ला
और अंग्रेज़ी
में कई किताबें लिखी हैं। वे
कोलकाता के पावलोव इंस्टिटिउट
के सदस्य हैं।
एक
'अभ्यास
की सीमाओं में बँधी चेतना के
संकीर्ण संकोच'
की वजह
से कहीं
अधिकतर बांगाली चिंतकों
के ज़ेहनों में जाले तो नहीं
पड़ गए? क्या
उन्हें
कायनात जीर्ण दिखती
है? ऐसी
आशंका कभी-कभी
होती है। इसकी एक
पहचान यह है
कि सवाल उठाने की जगह तुरत
जवाब ढूँढने में उनका आग्रह
अधिक है, वह
जवाब कैसा भी क्यों न हो। ऐसी
समझ आजकल कम दिखती
है कि यह
ज़रूरी है कि सही सवाल उठाया
जाए, सही
सवाल उठे तो जवाब भी
किसी न
किसी तरीके से ज़रूर मिल जाएगा।
(पहली
पंक्ति में 'अभ्यास
की सीमाओं में बँधी चेतना के
संकीर्ण संकोच'
कथन
रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता
'नीलमणिलता'
से
उद्धृत है।)
बांगाली
चिंतकों की चेतना की इस जड़ता
पर आशीष नंदी जैसे लेखकों ने
सख्त चोट की। उन्होंने खाकों
में बँधे जवाब की तलाश छोड़कर
खाका तोड़ते
सवालों की खोज की।
उन्होंने ऐसे कोणों से सवाल
उठाए जो व्यवहार की
सीमाओं
में बँधी हमारी चेतना को झटका
देते हैं,
हमें
हिल-डुल
कर बैठने को
मजबूर कर देते
हैं। इस नज़रिए से आशीष बाबू
की किताब The
Savage
Freud (1995) (जंगली
फ्रायड) थोड़े
ही वक्त में छोटे-मोटे
क्लासिक का
दर्ज़ा अख्तियार
कर चुकी है। इस किताब में वे
जिन विषयों को ले आए हैं और
ज्ञान के कई सारे क्षेत्रों
को मिलाकर जिस पद्धति से
उन्होंने उन पर चर्चा की है,
उसकी
नवीनता को मानना ही होगा।
समर्पण
के पन्ने से ही यह किताब चौंकाती
है। तीन प्रसिद्ध भारतीयों
को यह
किताब समर्पित है :
विनायक
दामोदर सावरकर (1880-1965),
दामोदर
धर्मानंद कोसंबी (1907-1960)
और
नीरदचंद्र चौधरी (1897-1997)।
उन्नीसवीं सदी के बीच से
'भारतीय'
पहचान
को नया स्वरूप देने की जिस
प्रक्रिया की शुरूआत हुई,
नंदी
जी के अनुसार ये तीन उस प्रक्रिया
के तीन
पहलुओं के खाँटी प्रतिनिधि
हैं। सावरकर हिंदू राष्ट्रवाद
के प्रतीक हैं। वे हिंदुओं
को और अधिक जंगी,
अधिक
पौरुषमय,
अधिक
ठोस और संगठित करना
चाहते थे।
दूसरी ओर कोसंबी 'अनथक
तर्कशील'
थे। वे
और अधिक वैज्ञानिक
चेतना,
अधिक
भौतिकतावदी सोच,
अधिक
इतिहास-बोध
से भारतीयों को
लैस करना चाहते
थे। और 'गोरों
का बोझ' ढोने
के काम में खुद को लगाने वाले
नीरद बाबू भारत को 'एडवर्ड
युग' की
आधुनिकता में बाँध रखने के
आखिरी
प्रवक्ता थे। मोटामूटी
इन तीन धाराओं में आज के भारतीयों
की सोच-समझ
को ढालकर आशीष बाबू उसकी एक
चीरफाड़ करना चाहते हैं। एक
ओर इस
सोच का सजा-सँवरा
प्रकाशित रूप है (उनके
शब्दों में 'language
of
public life' – सार्वजनिक
जीवन की भाषा)
और दूसरी
ओर अवचेतन में
मौजूद
उसका छिपा स्वरूप है (उनके
शब्दों में 'secret
selves' – छिपे
आत्म), इन
दोनों में द्वंद्व ढूँढ निकालने की
कोशिश उन्होंने की है।
नंदी
जी ने जिन तीन धाराओं का उल्लेख
किया है,
उन्हें
थोड़ा हटकर,
ज़रा
पारंपरिक ढाँचे में यूँ समझ
सकते हैं:
1) जंगी
हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद,
2) आधुनिक
विज्ञानमना तर्कशीलता
(सिक्योलरिज़्म
जिसका हिस्सा है),
और
3)
दलाल
संस्कृति। इन तीन धाराओं में
हरेक को लेखक ने अपने विश्लेषण
के औजारों से ध्वस्त करने की
कोशिश की है,
मकसद
यह कि इस ध्वंस-पर्व
को पार कर आधुनिक भारतीय
आत्म-पहचान
की कोई एक या एकाधिक राह
ढूँढी
जा सकती है या नहीं,
इसकी
पड़ताल की जाए;
वह राह
सँकरी भी हो तो
उन्हें कोई
हर्ज़ नहीं है। आज के हिंदुस्तान
में, जिसे
वे 'सामान्य
ज्ञान की
संस्कृति (the
cultutre of common sense)' कहते
हैं, इसके
पीछे
'ज़बर्दस्त
तकरीबन वैश्विक-चेतना
(dominant quasi-global
consciousness)' है।
चाहे टूटा-फूटा
या तोड़ा-मरोड़ा
सही, एक
ग्लोब
आज हिंदुस्तानी ज़ेहन
की मेज पर सजा रहता है। भारत
के आम लोगों को
लेकर एक के बाद
एक जो तर्क-वितर्क
सामने आ रहे हैं,
वे उस
quasi-
global
consciousness के
ढाँचे में ही सक्रिय हैं। उनके
विचार में उस
तकरीबन वैश्विक-चेतना
का बीज-कोश
कुछ मूल विचारों के इर्द-गिर्द
पनपा
है: 1)
राष्ट्र-राज्य,
2) राष्ट्रवाद,
3) सिक्योलरिज़्म,
4) तरक्की,
5)
इतिहास, 6) तर्कशीलता
और 7) बिल्कुल
रूमानी एक 'रीयलपोलिटिक'
की
धारणा
जो कि 'विषयवस्तु
के नज़रिए से न तो वास्तविकता
से मेल खाता है,
न
सही
मायने में राजनैतिक'
है।
उनके विचार में ये धारणाएँ
भारतीय राष्ट्र की
संस्कृति
के विविध 'ढाँचे
या साँचे'
हैं।
उनका मकसद यह है कि वे राष्ट्र
के इन
साँचों और ढाँचों से
भारतीय जनजीवन को बाहर निकालकर
दिखलाएँ कि इन
सबकी नींव में
असल में कुछ 'वर्चस्व
की नीतियाँ'
काम कर
रही हैं। उन्हीं
नीतियों ने
ही इन धारणाओं को राजनैतिक
मायनों में बनाए रखा है।
यह
बात माननी होगी कि आधे-गोरे
मेट्रोपोलिटन भारतीयों की
राजनैतिक
चेतना में कुछ-कुछ
अछूत, नितांत
चिढ़ पैदा करती समझे जाने वाली
बातें
आज भी ऐसे हिंदुस्तानियों
के लिए काफी मायने रखती हैं
जो उस चेतना
टेबिल के बाहर जी
रहे हैं। आशीषबाबू इन्हीं
हस्तक्षेपों से जन्मी 'भ्रांतियों'
पर ही
चर्चा करते हैं। सिर्फ चर्चा
करना कहना कम होगा,
क्योंकि
दरअसल उनकी यह
किताब इसी
ग़फलत-में-सुकून
के उल्लास में रची गई है:
'This book
celebrates that ability to confuse and exasperate (यह
किताब भ्रांति और परेशानी
पैदा करने की उस क्षमता का
जश्न मनाती है)'।
इन
भ्रांतियों पर चर्चा के लिए
उन्होंने भारतीय समाज और
संस्कृति के एक
विशाल क्षेत्र
से समस्याओं को चुना है। किताब
के सात निबंधों में पहला 1984
में दो
हवाई जहाजों के अपहरण पर है,
जिसे
खालिस्तानियों ने किया था।
दूसरे
निबंध का विषय रूपकँवर
का 'स्वेच्छा'
से किया
सतीदाह है। तीसरे का विषय
अंतर्राष्ट्रीय अदालत में
युद्ध-अपराधों
पर राधाविनोद पाल की अलग राय
पर
है। चौथा किताब का शीर्षक
निबंध है -
The Savage Freud: The
first non-western psychlogist and the politics
of
secret selves in colonial countries (जंगली
फ्रॉयड: पहला
गैर-पश्चिमी
मनोविश्लेषक और औपनिवेशिक
मुल्कों में छिपी
आत्म-पहचानें),
विषय
है - फ्रॉयड
के विचारों से मेल खाता पर
फ्रॉयड से
आगे जाता गिरीन्द्रशेखर
बसु का मनोविश्लेषण सिद्धांत।
छठा और सातवाँ
निबंध दो भारतीय
फिल्मों पर हैं;
एक का
विषय सत्यजित राय है,
दूसरे
का
विषय आम 'लोकप्रिय'
भारतीय
सिनेमा है। तीसरे और चौथे
निबंधों को अलग
कर दें तो बाकी
हरेक ऐसी किसी 'घटना'
पर रचित
है, जिसकी
'लोकमानस'
में ज़बर्दस्त मौजूदगी है। और इस
ज़बर्दस्त मौजूदगी की जड़ में
मीडिया नामक
'सत्ता'
के
कार्यकलाप हैं। यह मीडिया,
खासकर
अंग्रेज़ी भाषा में प्रचारित
'सर्वभारतीय'
मीडिया
नंदी जी कथित इस तकरीबन वैश्विक
चेतना का सबसे
प्रकट रूप है।
इन
निबंधों के अलग-अलग
मकसद से और अलग-अलग
तरीकों से लिखे
जाने के बावजूद,
इनके
संयोजन और संपादन में सोच की
विशिष्ट दिशा साफ
उभर आती है।
इसे एक लाइन में यूँ बयाँ कर
सकते हैं -
अपने
भविष्य के बारे
में हम कैसे
सोचें?
वैसे
आशीष जी ने बड़ी अच्छी तरह जता
दिया है कि वे खुद 1)
ग्रामीण
भारत
में पैदा नहीं हुए हैं,
2) गाँधीवादी
सामाजिक कार्यकर्ता नहीं हैं
और 3) शहरों
के भ्रष्टाचार में लिप्त
चरित्रहीनता के खिलाफ आंदोलन
करने वाले अधीर
पर्यावरणवादी
नहीं हैं। यानी कि ध्यान रहे
कि 'आधुनिक'
भारतीयों
के 'मनन
टेबिल' पर
हाजिर रहकर ही वे अपना बयान
पेश कर रहे हैं। उन्होंने यह
भी
बतलाया है कि इस किताब में
शामिल निबंध 'अतीत
का ऐतिहासिक
पुनर्निर्माण नहीं हैं',
ये 'इंसान
के बहुलतावादी भविष्य के
राजनैतिक पूर्वाख्यान
के
हिस्से हैं'।
यहाँ बुनियादी सक्रिय दो लफ्ज़
हैं - 'बहुलतावादी
भविष्य'।
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