आज जनसत्ता में -
(पहला पैरा बाद में जोड़ा है)
(पहला पैरा बाद में जोड़ा है)
दुश्मनी
नहीं,
दोस्ती
में ही हित है
प्रधान
मंत्री बांग्लादेश के दौरे
पर गए, साथ
में भारतीय राजनीति में उनकी
फिर से मित्र बनी पश्चिम बंगाल
की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी
गईं। दशकों से चले आ रहे छिटपुट
सीमा विवाद खत्म हुए। किसी
ने इस पर ना नुकुर नहीं कि किस
को फायदा और किसको नुकसान हुआ।
पिछली आधी सदी से भी अधिक समय
से जो माहौल रहा है,
वैसे
लगता तो यही था कि दक्षिण एशिया
में ऐसा संभव नहीं है कि शांति
से विवाद निपटाएँ जाएँ,
पर यह
हुआ। यह अच्छी शुरूआत है।
क्या
आपने कभी भारत-चीन
विवाद पर चीन का पक्ष जानने
की कोशिश की है?
पाकिस्तान
आखिर क्या कहता है -
क्यों
उसे भारत से लड़ना है। ऐसा सवाल
सुनकर कई लोगों को हँसी आएगी।
पाकिस्तान जैसा देश – पिछड़ा
हुआ, मुसलमान
देश – उसका भी क्या पक्ष होगा।
चीन तो खुराफाती है ही,
हर किसी
के साथ पंगे लेता रहता है -
लद्दाख
और अरुणाचल प्रदेश से हमारी
सैंकड़ों एकड़ ज़मीनें छीन लीं,
उसका
पक्ष क्या?
कल्पना
करें कि आप चीन या पाकिस्तान
के नागरिक हों तो ऐसा ही आप
भारत के बारे में सोचेंगे।
अरे देखो काश्मीर में धौंस
जमा रखी है -
सिक्किम
को खा गया -
भारत
का क्या पक्ष!
अपने
यहाँ भगतों को कितनी भी नाराज़गी
हो, पर
उनके आम लोगों की नज़र में
पिछड़ा हुआ तो हमें माना जाता
है।
आम
लोगों को जानकारी कम होती है,
जानकारी
पाने के सभी साधन भी उनके पास
नहीं होते। पर अच्छे-भले
पढ़े लिखे सुविधा-संपन्न
लोग जब ऐसी बातें करते हैं कि
वो तो दुश्मन मुल्क हैं,
तो
आश्चर्य होता है। क्या यही
इंसान की फितरत है?
फिलहाल
तो ऐसा ही लगता है। क्या और
मुल्कों में भले लोग नहीं
होते? तो
जवाब होगा -
होंगे,
पर भले
लोगों की कहाँ चलती है -
यह बड़े
स्तर की राजनीति है जनाब,
जीओपॉलिटिक्स
– भू-राजनीति
की स्ट्रैटिजी यानी रणनीतियाँ
होती हैं -
यह सब
भले लोगों के बस की बात नहीं
है।
इंसान
में दूसरे के प्रति भला और
दुश्मनी का रुख रखने की
प्रवृत्तियाँ साथ चलती हैं।
इसके वैज्ञानिक कारण भी बतलाए
जाते हैं। मानव की प्रजाति
को आगे बढ़ाते रहने के लिए हममें
जैविक प्रवृत्ति होती है कि
हम एक दूसरे को सुरक्षित रखें।
यह भलापन या आल्ट्रुइज़्म
है। साथ ही सीमित संसाधनों
की वजह से स्पर्धा या कंपीटीशन
भी चलती रहती है। तो क्या इससे
निजात नहीं है?
दरअसल
पिछले हजारों सालों का इतिहास
देखें तो कुल मिलाकर भले पक्ष
की जीत दिखती है। हालाँकि चीन
या पाकिस्तान से भिड़ लेंगे
जैसे कथन के पीछे दरअसल वहशीयाना
सोच होती है,
पर इसे
कहने के लिए हमें तर्क ढूँढने
पड़ते हैं। हमें उन मुल्कों
को मानवीयता में अपने से पिछड़ा
कहना पड़ता है। इस पूरी प्रक्रिया
में हम खुद कितने अमानवीय होते
रहते हैं,
इसका
हिसाब हम नहीं रखते। जो लोग
हमारी सोच में विरोधाभासों
को सामने रखने की कोशिश करते
हैं, उन्हें
हम गद्दार कह देते हैं;
पाकिस्तान
और बांग्लादेश में भारत के
लोकतांत्रिक ढाँचे के पक्ष
में कहनेवालों को भी हिंदूपरस्त
तक कह दिया जाता है;
भारत
में आम सोच है कि पाकिस्तान
के पक्ष में कहनेवाला तो निश्चित
ही कोई मुसलमान होगा जो देश
से पहले मजहब को रखता है और
चीन को तो बस कम्युनिस्ट ही
समर्थन कर सकते हैं।
आम
लोग मानते हैं कि सरकारें बड़ी
फौजों और मारक शस्त्रों के
जरिए हमारी सुरक्षा बरकरार
रखेंगी। इसलिए हर मुल्क अपने
संसाधनों का बड़ा हिस्सा दुरुस्त
फौज बनाए रखने में लगाता है।
इन दिनों अमेरिका और चीन क्रमश:
करीब
600 और
150 अरब
डॉलर प्रति वर्ष खर्च कर सामरिक
खाते में निवेश कर रहे देशों
की सूची में सबसे ऊपर आते हैं।
भारत आठवें नंबर पर है,
पर सकल
घरेलू उत्पाद के अनुपात के
पैमाने में चीन की तुलना में
तकरीबन दुगुना खर्च कर रहा
है। यह हिसाब सार्वजनिक जानकारी
पर आधारित है। जाहिर है कि कोई
भी देश अपने सामरिक खर्च को
पूरी तरह उजागर नहीं करता,
इसलिए
सच यह है कि असल में खर्च कहीं
अधिक पैमाने पर हो रहा है। यह
सब पैसा कहाँ से आता है?
अगर
मुल्कों में दुश्मनी न होती
तो यह पैसा कहाँ जाता?
यह पैसा
लोगों की भलाई में जाता,
शिक्षा,
स्वास्थ्य,
आवास
आदि बुनियादी क्षेत्रों में
लगाया जाता। यहीं समस्या आती
है। हमारे अंदर वह शख्स जो
पाकिस्तानियों और चीनियों
को दुश्मन के अलावा कुछ और
नहीं मानना चाहता,
वह कहता
है कि ऐसा ही है,
ज़िंदा
रहना है, तो
फौज और जंगें तो होती रहेंगीं।
ग़रीबी रहेगी,
हर कोई
पढ़-लिख
थोड़े ही सकता है -
देश के
हित में यह मानना ही पड़ेगा।
पिछली
सदियों में सबसे भयंकर जंगें
जिन मुल्कों के बीच लड़ी गईं,
जिनके
लिए हमारे देश के हजारों
सिपाहियों ने भी जानें दीं,
जैसे
फ्रांस और जर्मनी,
उन दो
मुल्कों के बीच आज कोई ऐसी
सरहद नहीं है,
जहाँ
फौजें खड़ी हों। यह सिर्फ इसलिए
नहीं हुआ कि पचास सालों में
उनमें सारी दुश्मनी खत्म हो
गई, बल्कि
इसलिए कि एक ओर तो सरमायादारों
को लगा कि खुद लड़ने से अच्छा
है कि दीगर और मुल्कों को लड़ाओ
और उनको अरबों रुपयों के औजार
बेचो और दूसरी ओर आम लोगों में
यह समझ बढ़ी कि इंसान हर कहीं
एक जैसा है और आपसी दुश्मनी
का फायदा उठाकर कुछ लोग
अरबों-खरबों
कमा रहे हैं। इसलिए उन मुल्कों
के आपसी झगड़ों को सुलझाने के
लिए विश्व-संस्थाएँ
बनी हुई हैं।
तो
ये आलमी संस्थाएँ हमारे झगड़ों
को क्यों नहीं सुलझा सकतीं।
सरहद सही-सही
कहाँ है, इसके
लिए ज़रूरी कागज़ात विश्व-न्याय-अदालत
में पेश किए जाएँ और जो निर्णय
हो उसे मान लिया जाए। इसका
जवाब यह मिलता है कि यू एन ए
या विश्व न्याय-संस्थाओं
पर अमेरिका और पश्चिमी मुल्कों
का जोर है और वे हमारे हित में
निर्णय नहीं देंगी। भारत,
चीन,
पाकिस्तान,
तीनों
मुल्कों में यह तर्क चलता है।
इसलिए अपनी सुरक्षा के लिए
तो हमें ही कुछ करना होगा। और
दुनिया चाहे कुछ भी कहे,
हमारी
ज़मीन हमें जान से भी प्यारी
है।
बेशक
दो मुल्कों में आपसी झगड़ों
को सुलझाने पर दोनों को कुछ
तो नुकसान होगा। पर दोनों को
कुछ फायदा भी होगा। हो सकता
है एक को दूसरे से थोड़ा ज्यादा
फायदा हो जाए। पर अगर इसका
नतीजा यह हो कि विपुल परिमाण
पैसा मारकाट के खर्चे से हट
कर लोगों सी भलाई में लग जाए,
हर बच्चे
को शिक्षा मिले,
सबके
लिए साफ पानी मिल सके तो हमें
क्या चुनना चाहिए?
लगता
तो यही है कि हमें शांति के
पक्ष में समझौता कर और नुकसान-फायदा
जो भी हो,
मानकर
फौजों पर खर्च न कर विकास पर
पैसा लगाना चाहिए। पर ऐसा नहीं
होने वाला है। अनुमान यह है
कि 2045 तक
भारत फौज पर खर्च की सूची में
तीसरे नंबर पर आ जाएगा।
जैसे
हमारे यहाँ शांति के पक्ष में
कुछ आवाज़ें उठती हैं,
वैसे
ही चीन-पाकिस्तान
और दुनिया के सभी मुल्कों में
उठती रहती हैं। पर सरकारें
समझौते नहीं करतीं और लोगों
को लगातार इस भ्रम में रखती
हैं कि उनकी सुरक्षा के लिए
मारक शक्ति बढ़ाते रहना ज़रूरी
है। लोग बहकावे में आ जाते हैं
और यह खेल चलता रहता है। छोटी-बड़ी
जंगें चलती रहती हैं। सिपाही
मारे जाते हैं। हर मुल्क अपने
मृत सिपाही को शहीद कहता है
और दूसरे को बर्बर। होता यह
है कि इंसान बेवजह मारे जाते
हैं। उनके बच्चे अनाथ हो जाते
हैं। कोई मुआवजा इस नुकसान
को भर नहीं सकता है। पर हम इसे
सामान्य बात मान कर दुबारा
इस खेल में जुट जाते हैं कि हम
शहीद – दूसरे खल्लास।
इधर
कुछ सालों से आलमी स्तर पर यह
समझ बढ़ रही है कि धरती के दिन
कम रह गए हैं। इंसानी फितरत
ने धरती को रहने लायक नहीं
छोड़ा। स्टीफेन हॉकिंग ने कहा
है कि इंसान को अब इस धरती से
परे कहीं और बस्ती बसाने की
सोचना चाहिए क्योंकि धरती अब
रहने लायक नहीं है। तो हम किसकी
सुरक्षा की बात कर रहे हैं?
कौन है
जिसने धरती को विनाश के कगार
पर ला छोड़ा है?
ये वही
हुक्मरान हैं जो हमें बतलाते
हैं कि उनके झगड़े नॉन-नीगोशिएबल
हैं यानी उनके हितों पर,
जिन्हें
वे देश के हित कहते हैं,
कोई
समझौता नहीं हो सकता। आश्चर्य
इस बात का है कि हर कोई जानता
है कि जीवन की समय सीमा है।
परंपराओँ में तो इसे क्षणभंगुर
कहा जाता है,
पर फिर
भी लोगों को लगता है कि आने
वाले हजारों सालों तक उनके
हुक्मरानों के हित देश के हित
बने रहेंगे। जबकि आज के पाकिस्तान,
चीन और
भारत सौ साल पहले भी ऐसे देश
नहीं थे, जैसे
कि आज हैं। दो सौ साल पहले तो
कतई नहीं। आगे कब तक क्या रहेगा,
कौन कह
सकता है। हमारे देखते-देखते
कुछ देश मिल कर एक हो गए तो कुछ
टूट कर अलग हो गए। इन प्रक्रियाओं
में वहाँ के आम लोगों में कहीं
एक दूजे के लिए रंजिश रही,
कहीं
नहीं रही,
कुच समय
बाद शांति बहाल हो गई और लोग
पहले जैसी या बेहतर ज़िंदगिया
जीने लग गए।
साथ
ही लोकतंत्र की ताकत का सवाल
भी है। अगर हमें लगता है कि
हमारे लोकतंत्र में ताकत है
तो हमें अपने सरकारी पक्ष को
आलोचनात्मक नज़रिए से देखने
की आदत डालनी चाहिए। इसके लिए
ज़रूरी है कि हम उन दीगर मुल्कों
के पक्ष को जानने-समझने
की कोशिश करें। न तो चीन और न
ही पाकिस्तान के साथ हमारे
झगड़े ऐसे हैं जिनमें हम पाक-साफ
हों। सरकार की ओर से झूठ फैलाने
की तमाम कोशिशों के बावजूद
आज बहुत सारी जानकारी सूचना
के विभिन्न माध्यमों से मिल
जाती है। इनमें से हर बात सच
हो, यह
ज़रूरी नहीं। पर आँख मूँद कर
किसी एक को दोषी ठहराना
लोकतांत्रिक सोच नहीं कहला
सकती। प्रधान मंत्री के विदेश
भ्रमणों से कई लोेग खुश होते
हैं कि दुनिया में भारत का
डंका बज गया,
यह दरअसल
बचकानी बात है,
ठीक
वैसी जैसी कि चीन के प्रधानमंत्री
के भारत आने पर चीनी देशभगतों
को लगता होगा कि अब तो चीन ने
भारत के छक्के छुड़ा दिए। हमें
यह समझना पड़ेगा कि हमारे
हुक्मरानों ने हममें जंगखोरी
मानसिकता भर दी है। जैसे हम
अपनी ग़रीबी और भुखमरी से परेशान
हैं वैसे ही दीगर मुल्कों के
भले लोग परेशान हैं। फायदा
इसी में है कि हमारे बुद्धिजीवी
लोगों को दुश्मनी के सबक न
सिखाएँ और यह सच बतलाएँ कि
जंगखोरों के खिलाफ दुनिया भर
में मुहिम चल रही है। हमारा
हित यही है कि हम दुनिया के उन
सभी लोगों से हाथ मिलाएँ जो
इस मुहिम में शामिल हैं और हम
अपनी सरकारों को मजबूर करें
कि वे एक दूसरे के झगड़े मिल
बैठ कर सुलझाएँ और हमें बेवकूफ
बनाना बंद करें। ग़रीब और सताए
लोग हर मुल्क में एक जैसी
यंत्रणाओं से गुजरते हैं और
अब सवाल धरती को बचाए रखने का
है। जहाँ भी जालिम सरकारें
हैं वह केवल एक मुल्क नहीं,
सारी
दुनिया के लिए खतरा हैं।
विश्व-स्तर
पर समस्याओं के समाधान के लिए
तैयारी करनी होगी। एक दूसरे
की अस्मिता का सम्मान करते
हुए सेनाओं पर न्यूनतम निवेश
के लिए लड़ाई छेड़नी होगी।
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