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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Friday, July 02, 2010

किसी की आँखों का बादल छूता हूँ।

घर तो बदल लिया।
फिर बदलना है।
एक मंजिल और ऊपर चढ़ना है।
यानी अभी तक फालतू की व्यस्तता । आगे और चलेगी दो चार हफ्ते।

इस बीच में नए घर आकर वर्ल्ड कप की वजह से टी वी क्या चालू कर लिया, फुरसत का वक़्त सारा उसी में गायब हो जाता है।
नए मकान के चारों ओर अभी भी काम काज चल रहा है। घड़ घड़ धड़ धड़ दिन भर चलता रहता है। जब आया था तो वुड वर्क हुआ नहीं था पांच दिन बुरादे की गंध में सोया। नए मकान में आकर पेट ज्यादा तंग करने लगा है, बचपन से ही पेट का मरीज़ हूँ ।

बहरहाल इसी बीच में काम बढ़ता चला था, धीरे धीरे निपटा रहा हूँ।

इधर बादलों का मौसम है तो यह कविता -

मुझमें बहते बादल

मुझमें बहते बादल।

अंधकार में स्तब्ध सुनता हूँ
बूँदों का आह्वान।

पर्वतों के पार से
आती उफनती नदियों की हुंकार

हाथ बढ़ा किसी की आँखों का बादल छूता हूँ।

अँधेरे में चमकते बादल
दूर गाँवों में नीले बादल
जीवन को घोलें भय रंग में
स्नेह ममता समाहित प्रलय रंग में

टिपटिप मायावी संसार पार
दहाड़ते गड़गड़ाते बादल।

जीवन कविता बन
मुझमें बहते लयहीन बादल

विश्रृंखल उत्श्रृंखल बादल।

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3 Comments:

Blogger Dr. Zakir Ali Rajnish said...

आपकी कल्पना को दाद देता हूँ।
………….
दिव्य शक्ति द्वारा उड़ने की कला।
किसने कहा पढ़े-लिखे ज़्यादा समझदार होते हैं?

5:35 PM, July 02, 2010  
Blogger शारदा अरोरा said...

शीर्षक बहुत सुन्दर है ...किसी की आँख का बादल छूता हूँ , जैसे आँख की नमी छू लेता हूँ .

12:27 PM, July 03, 2010  
Blogger koshish said...

कविता में बादल की चर्चा
और उसपे मौसम ये वर्षा
मन को छू गए शब्द ये
कविता कहो सदा ही ऐसे...

11:57 AM, July 21, 2010  

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