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Location: हैदराबाद, तेलंगाना, India

बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Saturday, March 13, 2010

लाल्टू तुम कहाँ रहे

लाल्टू तुम कहाँ रहे - कहते हैं इस बीच इतिहास रचा गया।
मैं निहायत ही पिद्दी सी लड़ाई में लगा था। एक कहने को आधुनिक पर दरअसल सामंती संस्था से छूटने की जिहाद में जुटा था। तकरीबन कुछ भी नहीं करने के बावजूद कमाल यह कि दोस्तों की मुहब्बत फिर भी बढ़ती ही रही।

कई दोस्तों को कह चुका हूँ कि इस चिट्ठे की शुरुआत इस तरह करुँगा, इसलिए इस शुरुआत में वह मजा नहीं आ रहा जो चाहता था। तो रोचक बात क्या हुई। सबसे रोचक बात यह थी कि जहाँ से छूट रहा था वहाँ विभाग के गैरशैक्षणिक कर्मचारियों ने मुझे चाय समोसा पार्टी दी। मुझे अंदाजा भी न था कि मुझे चाहने वालों में वे भी हैं। अब इतना बूढ़ा हो गया हूँ कि आँसू सूख गए हैं, झट से रो नहीं पाता। इसलिए लंबे समय तक रोता हूँ। मेरे दोस्त दोस्त हैं क्योंकि वे जानते हैं कि तमाम कमजोरियों के बावजूद मैं अब भी सपने देखता हूँ कि एक सुबह ऐसी आएगी कि ज़मीं पर लोग फूल से महकेंगे, कि हर कोई ग़म की शायरी भूल जाएगा, कि हिटलर और मोदी भी नफरत के रथों पर सवार हो राज करने का खयाल छोड़कर प्यार के गीत गाते भंगड़े नाचना चाहेंगे।

बहरहाल चेतन की मदद से जाते जाते भी साथियों के साथ एक बेहतरीन शख्सियत से जुड़ी फिल्म देख ली। हावर्ड ज़िन और उसके संयुक्त राज्य अमरीका के जन इतिहास पर केंद्रित हिस्ट्री डाट काम चैनल की फिल्म देखी, जिसमें हालीउड के तरक्की पसंद कलाकारों की भागीदारी है। देखते हुए भावुक हो गया। मुझे लगा कि बेहतर समाज के सपने और उसके लिए संघर्ष की कल्पना में सबसे बड़ी बात एक सामूहिक प्यार की है। एक बहुत बड़ा भरा प्यार का समंदर है जिसमें सभी कलंदर दोस्तों के साथ हम सपने देखते डुबकियाँ लगाते फिर रहे हैं। इसलिए जब कुमार विकल कहता है कि मार्क्स और लेनिन भी रोए थे, पर रोने के बाद वे कभी नहीं सोए थे - इसमें जुड़ना चाहिए रोने के बाद वे सामूहिक प्यार में खोए थे।

तो इधर लोकसभा में महिला सांसदों के लिए आरक्षण पर जो जद्दोजहद चल रही है, इसमें हम सब जो जितना हो सके, सहयोग दें। उधर हुसेन पर जो हंगामा है, उस पर हर समझदार आदमी के साथ हम भी शर्मिंदा हो लें। बड़ी जल्दी बहुत कुछ हो रहा है, नाभिकीय दुर्घटनाओं के लिए सजा पर भी बिल आ रहा है, जिस पर सोचना ज़रुरी है। और एक हत्यारे को को देर से सही, न्याय के घर से बुलावा आया है। देखना है कि न्याय होता भी है या नहीं।

तो फिलहाल इतना ही, अगला चिट्ठा जरा सोच कर लिखूँगा।

4 Comments:

Blogger पारुल "पुखराज" said...

झट से रो नहीं पाता। इसलिए लंबे समय तक रोता हूँ


कित्ती अच्छी बात है ये !


जो रो नही पाते उनका जाने क्या बनता होगा

3:13 PM, March 13, 2010  
Blogger भारत भूषण तिवारी said...

मैं सोच रहा था कि 'पीपुल स्पीक' की डीवीडी खरीद कर आपको भेजूंगा. खैर...
मार्टिन एस्पादा भी हैं फिल्म में; कल उनसे मिल कर बहुत अच्छा लगा.

10:35 PM, March 13, 2010  
Blogger Aniket said...

कहीं मैं सही तो नहीं सोच रहा कि पहले पाराग्राफ का ये मतलब है कि आप ट्रिपल आई टी से जा चुके हैं... !?

6:05 AM, March 15, 2010  
Blogger प्रदीप कांत said...

अनिकेत ने जो पूछा वही मैं भी पूछूंगा।

और दूसरी बात यह भी कि मुझे तो यह पोस्ट भी बिना सोचे समझे तो लिखी नज़र नहीं आती।

12:11 PM, April 04, 2010  

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