बाय बाय चंडीगढ़
जब शाना ढाई साल की थी, उसे दूसरी बार अमरीका ले जाना पड़ा। त्सूरिख़ (ज़ूरिख़) में जहाज बदलना था। शाना क्रेयॉन्स रगड़ कर अपना संसार बनाने में व्यस्त थी। मैंने बतलाया कि त्सूरिख़ आ गया। अचानक ही वह जोर से चिल्ला उठी - बाय बाय इंडिया। आस पास के सभी लोग जोर से हँस पड़े।
मैं चंडीगढ़ को पहले भी एक दो बार बाय बाय कह चुका हूँ। पर बाद में वापस आ ही गए। इसलिए इस बार ऐसी हिमाकत न करुँगा। आने के पहले मैंने तो क्या अलविदा कहना था, मित्रों ने लगभग हाय लाल्टू चल पड़ा कहते हुए अलग अलग समूहों में विदाई दी। वामपंथी या प्रगतिशील जाने जाने वाले एक ग्रुप जिनकी ओर से मैं एकबार शिक्षक संघ का सचिव और एक बार अध्यक्ष चुना गया था, उन्होंने एक बुजुर्ग साथी जो रिटायर हो रहे थे और मुझे एकसाथ विदाई दी। उत्तर भारत में औपचारिकताएँ जरा ज्यादा ही हैं। एक स्मारक (मुझे लाल रंग का चंडीगढ़ की पहचान वाला हाथ - हाँ मसिजीवी लाल हाथ), फूलों के गुलदस्ते (दो दो मिले)। फिलहाल तो सारा सामान लाया नहीं हूँ। ट्रेन से आना था तो लाल हाथ चंडीगढ़ में छूट गया है। लाल लाल्टू निकल पड़ा।
क्रिटीक के साथियों ने एक दिन लंच खिलाया और आशीष अल सिकंदर के जुटाए मित्रों ने (यानी छात्रों ने) एक दिन देर तक घेरे रखा। मैं सोच रहा था इतना प्यार ठीक नहीं, क्या पता बार बार लौट कर फिर फिर जाने लगूँ कि ऐसा ही प्यार निरंतर मिलता रहे।
बहरहाल जल्दबाजी में फटाफट कुछ किताबें वगैरह समेटने की कोशिश में कुछ और जो चीजें हाथ लगीं, उनमें एक फोटोग्राफ भी है, जिसमें हमारे समय के एक प्रबुद्ध (प्रतीक, यह सचमुच व्यंग्य नहीं) बुद्धिजीवी के कुर्ते का एक हिस्सा दिख रहा है। जी हाँ, यह है योगेंद्र यादव का कुर्ता। अगर कभी इस धूमिल फोटोग्राफ की नीलामी हुई तो वह जो शक्ल दिख रही है, उसकी वजह से तो नहीं पर इस कुर्ते के टुकड़े की वजह से जरुर बड़ी कीमत में बिकेगा। और चूँकि मैं अब ऐसे संस्थान में आ गया हूँ जहाँ बिना बतलाए सर्भर मैनेजर इमेजेस ब्लॉक करने जैसी अच्छी बातें नहीं करते तो अब यह अमूल्य तस्वीर मैं अपलोड कर सकता हूँ। योगेंद्र ने दो साल पहले राष्ट्रीय चुनावों के पूर्व लोगों में चेतना फैलाने की एक मुहिम छेड़ी थी और उसी दौड़ में हमारे गाँधी भवन में भी एक भाषण दिया था। यह तब की तस्वीर है।
और जो लोग इस बात को जानना चाहते हैं कि दिल्ली स्टेशन पर मेरा और मसिजीवी का मिलन हुआ या नहीं तो
खबर यह है कि मसिजीवी ने सचमुच मिलना चाहा था, पर दिल्ली आखिर दिल्ली ठहरा।
Comments
वामपंथी (जाने जाने वाले) या प्रगतिशील जाने जाने वाले
यहीं से वाम और दक्षिण नामकरण हुआ।
लेकिन भाई लोग। मेरे कर्मों का दोष शहर के मत्थे न मढ़ें। मुझे गुनाह कबूल है, कबूल है, कबूल है।