हाल में फेसबुक पर पोस्ट की दो ग़ज़लनुमा लिखत -
1
दिन दिन में है, रात में रात होती है
दरमियान की घड़ी गुमनाम होती है
लफ्ज़ मानीखेज़ हो न हों
बात निकली किसी के नाम होती है
खिड़की-दर-खिड़की सोचता हूं
चुप-सी रात क्यों बदनाम होती है
बेनूर कह गई कल मुझसे यह रात
किसी बेचैन को इनाम होती है
रात का कोई वाकिफ नहीं है
रात मुसलसल बेनाम होती है।
2
बस हूँ क्या कहूँ जो आपने पूछा कैसे हो
अरसा हुआ भूल गए हँसना-रोना वैसे तो
मेरे और मेरे दरमियान कोई चीखता है
नफस-नफस खोया कुछ अपना जैसे तो
खुदी से गुफ्तगू और अक्स के संग रक्स है
धुँआ-धुँआ पल-पल का जलते जाना जैसे तो
जन्नत कह कर जिसको दोज़ख़ दिखला दिया
अब भी बेज़हन है पीटता सीना कैसे तो
पूछो और पूछो कि पूछते रहना चाहिए
देखेंगे देखेंगे कोई अलग सा सपना कैसे तो।
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