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यह जो उफान है

 यह कविता दो हफ्ते पहले फेसबुक पर पोस्ट की थी - 


वक्त आएगा


वक्त आएगा वक्त आएगा वक्त आएगा

कि हम दरख्तों के बीच सुर्ख राहों पर चलेंगे

हमारे कदमों की आहटें आपस में गुफ्तगू करेंगी


राह पर पड़ी सूखी पत्तियाँ खुशामदीद कहने को उठ खड़ी होंगी।

उनके पीलेपन में से अदरक की शराब की खुशबू आएगी।


सारे परचम एक दरख्त के पास रख कर हम फिर

किसी शाम दरख्तों में गुम हो चुकी बातें करेंगे।

हम फिर साथ खुशी के गीत गाएँगे


यह जो उफान है

यह हमारी सदियों से जमा हो रही पीर है

हमने देखा कि दरख्तों पर ढेर सारी राख गिर चुकी है

हर शाख पर कुम्हलाई पत्तियाँ चुपचाप

देखती हैं कि पंछी बसेरा छोड़कर

कहीं दूर चले जा रहे हैं


हमने देखा कि शैतान अपनी शोहरत के नशे में अंधा है

हमारी पीर 


उदास नदी बन कर बहती है

क्या नहीं है पानी में

ढूँढो तो तैरते हुए हमारे सपने दिख जाएँगे

शैतान की शोहरत आज दिखती है

हमारी पीर का सैलाब उसे बहा ले जाएगा

वक्त आएगा हम फिर

किसी शाम दरख्तों में गुम हो चुकी बातें करेंगे।

हम फिर साथ मिल कर खुशी के गीत गाएँगे

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