Monday, December 07, 2015

रोते हो, इसलिए लिखते हो


पटना गया था। भाषा और शिक्षा पर साउथ एशिया यूनिवर्सिटी के एक सेमिनार में बोलने के लिए। इसके पहले पटना होकर कई बार गुजरा हूँ, पर यह पहली बार एक रात रुका। सुबह सवा चार बजे उठा था तो सिर दुख रहा था। जैसे तैसे भाषण देकर और सवाल जवाब से फारिग होकर कालिदास रंगालय पहुँचा कि साथियों को सलाम कह दूँ, पर वहाँ फिल्म चल रही थी और फिल्म में बैठने लायक हालत में नहीं था। तो अपने होटल आ गया। अगले दिन बड़ी मुश्किल से तीन-तीन घंटे के देर से चली फ्लाइट्स से वापस पहुँचा। गाँधी मैदान का इलाका देखकर लगा कि असली भारत में आ गए हैं। पर असली भारत को बदलना भी है न!


बहरहाल 'चकमक' में 'लाल्टू से बातचीत' शृंखला का एक हिस्सा सही चित्र न बन पाने से छूट गया है, अगला हिस्सा दिसंबर अंक में निकल चुका है, यहाँ पेस्ट कर रहा हूँ।


रोते हो, इसलिए लिखते हो


राधिका की ओर देखते ही मेरी नज़र दरवाजे के ऊपर दीवार पर गई। वहाँ एक मकड़ा था। लगा जैसे वह छलाँग मारने को है। मैंने कहा, 'अरे! देखना, ऊपर एक मकड़ा है।'

राधिका घबराती सी जल्दी आगे को बढ़ आई। उसने सँभलते हुए चाय नीचे रखी। फिर हम सब मकड़े की ओर देखने लगे। मकड़ा भी शायद हमें देख रहा था। वह उछला नहीं। मैंने कहा, 'देखो! कैसे देख रहा है! हमें डरा कर खुश हो रहा है?'

सुनते ही, लाल्टू तुरंत बोला, 'आपको कैसे मालूम कि वह खुश हो रहा है?'

मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहूँ। लाल्टू आगे बढ़ कर दरवाजे तक गया और उछलकर मकड़े से कहा, 'हलो, मकड़ू-वकड़ू।' और वह उछलता रहा।

मैंने कहा, 'अरे, ऐसे क्यों कर रहे हो?'

उसने कहा, 'तुम्हें एक बात बतलाऊँ?'

- 'हाँ, बतलाओ।'

-'इस मकड़े की न, मम्मी नहीं है।'

-'तुम्हें कैेसे मालूम?'

उसने मेरी ओर ऐसे देखा कि मैं कैसा आदमी हूँ, जिसे इतनी सी बात भी नहीं मालूम है! -'मम्मी होती तो उसको ऐसे अकेले-अकेले यहाँ आने थोड़े देती?'

वाजिब बात थी। मैंने कहा, 'पर वह बच्चा थोड़े ही है। वह तो बड़ा मकड़ा है।'

वह सोच में पड़ गया और फिर बोला -'तुम्हें एक बात बतलाऊँ?'

- 'हाँ, बतलाओ।'

-'अनि पता है क्या कहता है?'

-'अनि कौन?'

राधिका दूसरे कमरे चली गई थी, वहीं से हमारी बातें सुन रही होगी। उसने दूर से ही कहा, 'अनि इसके स्कूल में पढ़ता है।'

'तो, क्या कहता है अनि?'

वह अचानक हँसने लगा था और दरी पर हँसते हँसते लोट रहा था। 'अनि ने ना, मैम से पूछा कि बच्चों की देखभाल तो बड़े करते हैं, पर जो बड़े होते हैं, जो बूढ़े हो जाते हैं, उनकी देखभाल कौन करता है?'

-'तो इसमें हँसने की क्या बात है? सही सवाल है। तो मैम ने क्या कहा?'

पर उसने मेरे सवाल पर ध्यान नहीं दिया। झल्लाते हुए उसने पूछा, 'बड़ों की भी कोई देखभाल करता है? बड़े लोग क्या रोते हैं?'

'तो तुम्हें क्या लगता है सिर्फ उन्हीं की देखभाल करते हैं, जो रोते हैं। तुम्हारी देखभाल क्या तभी होती है, जब तुम रोते हो?'

पर वह वहीं अटक गया था। - 'बड़े लोग रोते नहीं हैं।'

-'अरे हाँ भाई, बड़े भी रोते हैं।'

-'तुम रोते हो?'

-'हाँ, रोता हूँ।'

-'कहाँ रोते हो, मैंने तो देखा नहीं!'

मैंने नकली रोने का नाटक किया। थोड़ी देर वह भौंचक था। फिर चिल्ला कर बोला,'तुम ऐसे ही कर रहे हो, तुम रो नहीं रहे हो।' वह पास आकर मेरे कंधे पर मुक्के मारने लगा।

अचानक मुझे एक बात सूझी। मैंने कहा, 'तुम उस दिन पूछ रहे थे न कि मैं लिखता क्यों हूँ? मैं इसलिए लिखता हूँ कि मैं रोता हूँ।'

अब तो वह चुप हो गया। उसे समझ नहीं आया कि मैंने क्या कहा था। फिर वह धीरे-धीरे बोला, 'तुम रोते हो, इसलिए लिखते हो?'

1 comment:

indian matrimony said...

I like your story 'rote ho isliye likhte ho' very much .very interesting story ,hope you will give us more chance to read more story at your blog .