Skip to main content

वन्देमातरम!

इंस्टीटिउट आफ फिजिक्स में प्रोफेसर माइकेल बेरी का भाषण सुनने गया था। एक बुजुर्ग मिले। पूछा कहाँ से आया हूँ। इंडिया और हैदराबाद सुनकर कहा मैं कभी इंडिया गया नहीं हूँ| थोडी देर बातचीत के बाद पूछा, आपका इलाका पीसफुल है?

पीसफुल?! आधुनिक समय में भारत का दुनिया को एक अवदान है - एक नारा - ओम् शांति।

कल मेरे शहर में बम फटा. पिछले कुछ दिनों से पंजाब में दंगे हो रहे थे। एम एस यू बडोदा के बवाल पर किसी का कहना है:

लाल्टू जी ये "अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता" वाले ऐसे ही जूते खाने लायक हैं, इनके लिये अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता मतलब हिन्दुओं के देवताओं की नग्न तस्वीरें बनाना, सरस्वती वन्दना का विरोध करना आदि है, इन्हें तो अभी अभी ही मारना शुरु किया है, ऐसे लोग अभी और-और पिटेंगे।

यह चिट्ठाकार उज्जैन का है। पिछले साल वहाँ छात्रों के चुनाव के दौरान एक प्रोफेसर की हत्या कर दी गई थी। यह चिट्ठाकार मेरी तरह सरस्वती वन्दना कर सकता है। मैं और वह भारत की उस आधी जनता का हिस्सा नहीं हैं, जो स्कूल नहीं जा पाए।

इंग्लैंड की एक तीन साल की बच्ची मैडलीन गायब हो गई है, दुनिया भर के लोग तलाश में हैं, होना भी चाहिए। मेरे शहर हैदराबाद में बच्चे अमूमन गायब होते रहते हैं। अभी हाल में पुलिस ने एक महिला को पकडा था। किस को खबर है!

वन्देमातरम!

Comments

कहाँ थे बन्धु? कौन से IOP में गए थे?अब लगा कि आ गए मोर्चे पर।साधुवाद।
अच्छे विचार प्रेषित किए हैं।
Divine India said…
बहुत उत्तम विचार…।
अभिनव said…
नमस्कार लाल्टूजी, बहुत समय बाद आपको नेट पर देखा। आशा है कि आगे भी आपके अग्निधर्मा लेख पढ़ने को प्राप्त होते रहेंगे।
ये अच्‍छा विचार कोलाज खींचा आपने। उधर अविनाश भी मोर्चा ले रहे हैं, इस मुद्दे पर।
आइए हाथ उठाएं हम भी

Popular posts from this blog

फताड़ू के नबारुण

('अकार' के ताज़ा अंक में प्रकाशित) 'अक्सर आलोचक उसमें अनुशासन की कमी की बात करते हैं। अरे सालो, वो फिल्म का ग्रामर बना रहा है। यह ग्रामर सीखो। ... घिनौनी तबाह हो चुकी किसी चीज़ को खूबसूरत नहीं बनाया जा सकता। ... इंसान के प्रति विश्वसनीय होना, ग़रीब के प्रति ईमानदार होना, यह कला की शर्त है। पैसे-वालों के साथ खुशमिज़ाजी से कला नहीं बनती। पोलिटिकली करेक्ट होना दलाली है। I stand with the left wing art, no further left than the heart – वामपंथी आर्ट के साथ हूँ, पर अपने हार्ट (दिल) से ज़्यादा वामी नहीं हूँ। इस सोच को क़ुबूल करना, क़ुबूल करते-करते एक दिन मर जाना - यही कला है। पोलिटिकली करेक्ट और कल्चरली करेक्ट बांगाली बर्बाद हों, उनकी आधुनिकता बर्बाद हो। हमारे पास खोने को कुछ नहीं है, सिवाय अपनी बेड़ियों और पोलिटिकली करेक्ट होने के।' यू-ट्यूब पर ऋत्विक घटक पर नबारुण भट्टाचार्य के व्याख्यान के कई वीडियो में से एक देखते हुए एकबारगी एक किशोर सा कह उठता हूँ - नबारुण! नबारुण! 1 व्याख्यान के अंत में ऋत्विक के साथ अपनी बहस याद करते हुए वह रो पड़ता है और अंजाने ही मैं साथ रोने लगता हू...

मृत्यु-नाद

('अकार' पत्रिका के ताज़ा अंक में आया आलेख) ' मौत का एक दिन मुअय्यन है / नींद क्यूँ रात भर नहीं आती ' - मिर्ज़ा ग़ालिब ' काल , तुझसे होड़ है मेरी ׃ अपराजित तू— / तुझमें अपराजित मैं वास करूँ। /  इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूँ ' - शमशेर बहादुर सिंह ; हिन्दी कवि ' मैं जा सकता हूं / जिस किसी सिम्त जा सकता हूं / लेकिन क्यों जाऊं ?’ - शक्ति चट्टोपाध्याय , बांग्ला कवि ' लगता है कि सब ख़त्म हो गया / लगता है कि सूरज छिप गया / दरअसल भोर  हुई है / जब कब्र में क़ैद हो गए  तभी रूह आज़ाद होती है - जलालुद्दीन रूमी हमारी हर सोच जीवन - केंद्रिक है , पर किसी जीव के जन्म लेने पर कवियों - कलाकारों ने जितना सृजन किया है , उससे कहीं ज्यादा काम जीवन के ख़त्म होने पर मिलता है। मृत्यु पर टिप्पणियाँ संस्कृति - सापेक्ष होती हैं , यानी मौत पर हर समाज में औरों से अलग खास नज़रिया होता है। फिर भी इस पर एक स्पष्ट सार्वभौमिक आख्यान है। जीवन की सभी अच्छी बातें तभी होती हैं जब हम जीवित होते हैं। हर जीव का एक दिन मरना तय है , देर - सबेर हम सब को मौत का सामना करना है , और मरने पर हम निष्क्रिय...

 स्त्री-दर्पण

 स्त्री-दर्पण ने फेसबुक में पुरुष कवियों की स्त्री विषयक कविताएं इकट्टी करने की मुहिम चलाई है। इसी सिलसिले में मेरी कविताएँ भी आई हैं। नीचे उनका पोस्ट डाल रहा हूँ।  “पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता” ----------------- मित्रो, पिछले चार साल से आप स्त्री दर्पण की गतिविधियों को देखते आ रहे हैं। आपने देखा होगा कि हमने लेखिकाओं पर केंद्रित कई कार्यक्रम किये और स्त्री विमर्श से संबंधित टिप्पणियां और रचनाएं पेश की लेकिन हमारा यह भी मानना है कि कोई भी स्त्री विमर्श तब तक पूरा नहीं होता जब तक इस लड़ाई में पुरुष शामिल न हों। जब तक पुरुषों द्वारा लिखे गए स्त्री विषयक साहित्य को शामिल न किया जाए हमारी यह लड़ाई अधूरी है, हम जीत नहीं पाएंगे। इस संघर्ष में पुरुषों को बदलना भी है और हमारा साथ देना भी है। हमारा विरोध पितृसत्तात्मक समाज से है न कि पुरुष विशेष से इसलिए अब हम स्त्री दर्पण पर उन पुरुष रचनाकारों की रचनाएं भी पेश करेंगे जिन्होंने अपनी रचनाओं में स्त्रियों की मुक्ति के बारे सोचा है। इस क्रम में हम हिंदी की सभी पीढ़ियों के कवियों की स्त्री विषयक कविताएं आपके सामने पेश करेंगे। हम अपन...