Skip to main content

21. एक नई ज़ुबान गढ़ी जा रही थी

जब चला था
ख़्वाब था मन में -
एक देश बनाऊँगा
हँसते-खेलते फूल-सा
तुम हँसोगे पर सच है कि मैं कविताएँ लिखता था
मानता था कि कविताएँ ही देश बनाएँगी
ख़्वाब था कि माहताब छाएगा देश की रातों पर
दुखी लोग भली नींद सो जाएँगे
सुख के सपने हो जाएँगे

ख़्वाब बदला और
चाहत हुकूमत की आ बैठी दिलो-दिमाग पर
भेड़-बकरों जैसे दिखने लगे देश के लोग
मैं सोचने लगा कि इनकी नियति ही रौंदे-लूटे जाने की है
इस तरह आईने में हर रोज़ देखा खुद को
इंसान से कीट बनते हुए
रेंगते हुए मैंने की अपनी तीर्थयात्रा
और आका को नतमस्तक किया सलाम।

मैंने देशनिकाला दिया खुद को
अपने ख़्वाबों के देश से
या कि देश ही निकल गया था ख़्वाब से
खंडहर मौजूद था या कि ज़मीं जिसे अब मेरे हाथों खंडहर होना था
चीखें थीं चारों ओर और मेरे सिपहसालारों की ललकारें
एक नई ज़ुबान गढ़ी जा रही थी

कि ख़्वाब देखना वतन के साथ गद्दारी है

देश से निकाले गए खुद का यह विलाप
सुनता हूँ खुद ही छिप-छिप कर।

In the beginning
There was the dream
That I will build a Nation -
Happy like a flower
You may be amused but I really used to write poems
I used to believe that poetry will build the Nation
I dreamt that moonlight will pour on the Nation in the nights
And that suffering people will sleep a good night
And they will have happy dreams

And then my dream changed
The desire to rule occupied my mind and heart
And suddenly the people appeared like sheep
And I thought that they are destined to be robbed
That is how I saw myself in the mirror everyday
metamorphosing from a human into an insect
I crawled for pilgrimage to holy places
And I fell on the feet of my Master.

I exiled myself
From the country of my dreams
Or may be the country was no longer there in my dreams
There were ruins or what were to become ruins in my hands
There were screams all around and the thundering voices of my foot-soldiers
They were drumming a new language 

That to dream is an act of treason

I listen secretly to this mourning
Of my exiled self.

Comments

Unknown said…
Thanks for giving words to exactly what i feel...te yakeenan eh soch bahut hamwatnaa di bhi hai

Popular posts from this blog

मृत्यु-नाद

('अकार' पत्रिका के ताज़ा अंक में आया आलेख) ' मौत का एक दिन मुअय्यन है / नींद क्यूँ रात भर नहीं आती ' - मिर्ज़ा ग़ालिब ' काल , तुझसे होड़ है मेरी ׃ अपराजित तू— / तुझमें अपराजित मैं वास करूँ। /  इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूँ ' - शमशेर बहादुर सिंह ; हिन्दी कवि ' मैं जा सकता हूं / जिस किसी सिम्त जा सकता हूं / लेकिन क्यों जाऊं ?’ - शक्ति चट्टोपाध्याय , बांग्ला कवि ' लगता है कि सब ख़त्म हो गया / लगता है कि सूरज छिप गया / दरअसल भोर  हुई है / जब कब्र में क़ैद हो गए  तभी रूह आज़ाद होती है - जलालुद्दीन रूमी हमारी हर सोच जीवन - केंद्रिक है , पर किसी जीव के जन्म लेने पर कवियों - कलाकारों ने जितना सृजन किया है , उससे कहीं ज्यादा काम जीवन के ख़त्म होने पर मिलता है। मृत्यु पर टिप्पणियाँ संस्कृति - सापेक्ष होती हैं , यानी मौत पर हर समाज में औरों से अलग खास नज़रिया होता है। फिर भी इस पर एक स्पष्ट सार्वभौमिक आख्यान है। जीवन की सभी अच्छी बातें तभी होती हैं जब हम जीवित होते हैं। हर जीव का एक दिन मरना तय है , देर - सबेर हम सब को मौत का सामना करना है , और मरने पर हम निष्क्रिय...

फताड़ू के नबारुण

('अकार' के ताज़ा अंक में प्रकाशित) 'अक्सर आलोचक उसमें अनुशासन की कमी की बात करते हैं। अरे सालो, वो फिल्म का ग्रामर बना रहा है। यह ग्रामर सीखो। ... घिनौनी तबाह हो चुकी किसी चीज़ को खूबसूरत नहीं बनाया जा सकता। ... इंसान के प्रति विश्वसनीय होना, ग़रीब के प्रति ईमानदार होना, यह कला की शर्त है। पैसे-वालों के साथ खुशमिज़ाजी से कला नहीं बनती। पोलिटिकली करेक्ट होना दलाली है। I stand with the left wing art, no further left than the heart – वामपंथी आर्ट के साथ हूँ, पर अपने हार्ट (दिल) से ज़्यादा वामी नहीं हूँ। इस सोच को क़ुबूल करना, क़ुबूल करते-करते एक दिन मर जाना - यही कला है। पोलिटिकली करेक्ट और कल्चरली करेक्ट बांगाली बर्बाद हों, उनकी आधुनिकता बर्बाद हो। हमारे पास खोने को कुछ नहीं है, सिवाय अपनी बेड़ियों और पोलिटिकली करेक्ट होने के।' यू-ट्यूब पर ऋत्विक घटक पर नबारुण भट्टाचार्य के व्याख्यान के कई वीडियो में से एक देखते हुए एकबारगी एक किशोर सा कह उठता हूँ - नबारुण! नबारुण! 1 व्याख्यान के अंत में ऋत्विक के साथ अपनी बहस याद करते हुए वह रो पड़ता है और अंजाने ही मैं साथ रोने लगता हू...

 स्त्री-दर्पण

 स्त्री-दर्पण ने फेसबुक में पुरुष कवियों की स्त्री विषयक कविताएं इकट्टी करने की मुहिम चलाई है। इसी सिलसिले में मेरी कविताएँ भी आई हैं। नीचे उनका पोस्ट डाल रहा हूँ।  “पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता” ----------------- मित्रो, पिछले चार साल से आप स्त्री दर्पण की गतिविधियों को देखते आ रहे हैं। आपने देखा होगा कि हमने लेखिकाओं पर केंद्रित कई कार्यक्रम किये और स्त्री विमर्श से संबंधित टिप्पणियां और रचनाएं पेश की लेकिन हमारा यह भी मानना है कि कोई भी स्त्री विमर्श तब तक पूरा नहीं होता जब तक इस लड़ाई में पुरुष शामिल न हों। जब तक पुरुषों द्वारा लिखे गए स्त्री विषयक साहित्य को शामिल न किया जाए हमारी यह लड़ाई अधूरी है, हम जीत नहीं पाएंगे। इस संघर्ष में पुरुषों को बदलना भी है और हमारा साथ देना भी है। हमारा विरोध पितृसत्तात्मक समाज से है न कि पुरुष विशेष से इसलिए अब हम स्त्री दर्पण पर उन पुरुष रचनाकारों की रचनाएं भी पेश करेंगे जिन्होंने अपनी रचनाओं में स्त्रियों की मुक्ति के बारे सोचा है। इस क्रम में हम हिंदी की सभी पीढ़ियों के कवियों की स्त्री विषयक कविताएं आपके सामने पेश करेंगे। हम अपन...