23 जुलाई को जनसत्ता में प्रकाशित -
तेज़ी
से बिगड़ते देश के हालात और
नागरिकों की जिम्मेदारी
इस
लेखक जैसे कई लोगों ने पिछले
साल संसद के चुनावों के पहले
अलग-अलग
माध्यमों से यह चिंता जाहिर
की थी कि देश में सांप्रदायिक
सोच बड़ी तेज़ी से फैल रही है।
हर समुदाय में सांप्रदायिकता
बढ़ती दिख रही थी और सबसे अधिक
चिंता की बात थी कि बहुसंख्यक
समुदाय में बढ़ती सांप्रदायिकता
का फायदा उठा कर स्थानीय और
विदेशी सरमाएदार तैयार हो
रहे थे कि खुली लूट का मौसम
आने को है। इसके लिए उन्होंने
विपुल परिमाण धन देश की सबसे
संगठित, संघ
परिवार के छत्र तले फल फूल रही
राजनैतिक ताकतों पर निवेश
किया, जिनकी
दृष्टि और सोच उन्नीसवीं सदी
के यूरोपी क़ौमी राष्ट्रवाद
की संकीर्णता में सीमित है।
इन ताकतों ने बड़े पैमाने पर
नफ़रत फैलाते हुए भाजपा के झंडे
तले सत्ता हासिल की और उम्मीद
से भी ज्यादा रफ्तार से अपने
एजंडे पर काम करना शुरू किया।
चुनावों के पहले भाजपा के
हिंदुत्ववादी रुझान के बारे
में हर कोई वाकिफ था,
फिर भी
जैसे खुद को भरमाने के लिए कई
लोग विकास का बहाना ढूँढते
रहे। अस्सी के दशक के अंत में
जब उत्तर भारत में अयोध्या
में मंदिर बनाने के लिए कार
सेवा और इसके लिए शिला पूजन
के नाम पर कई इलाकों में
'हिंदुस्तान
में रहना है तो हिंदू होकर
रहना होगा'
जैसे
नारे उठे,
जिसकी
परिणति 1992
में
बाबरी मस्जिद के टूटने में
हुई, तब
से लेकर गुजरात के दंगों तक
और तमाम और घटनाओं के बाद भी
अगर किसी को कोई शक रह गया हो
कि भाजपा और संघ परिवार का
एजेंडा क्या है,
तो हम
उसकी मानसिक स्थिति पर अफसोस
ही जता सकते हैं। कइयों ने यह
कहना शुरू किया कि कांग्रेस
की भ्रष्ट सरकार को गिराने
के लिए और कोेई विकल्प नहीं
है। बड़े सुनियोजित ढंग से
मीडिया में यह बात बार बार कही
गई कि वाम खत्म हो चुका है,
हालाँकि
हर तरह के बिखराव के बावजूद
देश भर में बराबरी के आधार पर
समाज रचने की जद्दोजहद वामपंथी
ताकतों के ही नेतृत्व में ही
चलती रही है। ज़मीनी स्तर पर
अधिकारों के लिए लड़ाई कहीं
साम्यवादी और कहीं समाजवादी
नेतृत्व में ही लड़ी जा रही है।
आज
स्थिति यह है कि लोकतांत्रिक
ढाँचे को रौंदते हुए हर तरह
के ऐसे पोंगापंथी लोग हावी
होते जा रहे हैं,
जिनको
दस पंद्रह साल पहले कोई सुनने
को भी तैयार न होता। कहीं किसी
का कत्ल हो रहा है,
जैसे
पानसारे की हत्या हुई,
कहीं
स्त्रियों पर सोशल मीडिया
में संघ के समर्थक अश्लील भाषा
में हमला करते हैं;
उपराष्ट्रपति
हामिद अंसारी पर जिस असभ्य
तरीके से हमला हुआ -
स्वाभाविक
हालात में अव्वल तो ऐसी बातें
खबरें बनती ही नहीं,
इनको
पागलों का प्रलाप मान लिया
जाता। अगर बात फैलती भी तो लोग
पूछते कि यह कैसे हो सकता है,
इन
बेवकूफों को पुलिस क्यों नहीं
पकड़ती? पर
ऐसा हर रोज होते जा रहा है कि
कोई संघी ऐसी ऊल-जलूल
हरकत करता है और उस पर राष्ट्रीय
स्तर पर बातचीत होती है जैसे
कि देश और समाज के पास इन सिरफिरों
पर ध्यान देने के अलावा कुछ
और ज़रूरी विषय नहीं है। एक
ओर तो संघ और गुजरात से जुड़े
भ्रष्ट और नागरिकों पर हिंसा
के लिए अभियुक्त लोगों की सजा
मुआफ़ी हो रही है तो दूसरी ओर
तीस्ता सीतलवाड़ को इस तरह
परेशान किया जा रहा है जैसे
पहले कभी आज़ाद भारत के इतिहास
में नहीं हुआ। अंतर्राष्ट्रीय
संस्थाओं से जुड़े मानव अधिकार
और पर्यावरण की सुरक्षा से
जुड़े कार्यकर्ताओं को परेशान
किया जा रहा है। जरा सा भी सरकार
या संघ परिवार की ज्यादतियों
के खिलाफ कोई कुछ कह रहा है तो
उसे परेशान किया जा रहा है।
अगर कोई विदेशी शोधकर्ता है
तो उसका वीज़ा रद कर दिया जाता
है। धौंस जमाने और हिंसा की
संस्कृति को बढ़ाया जा रहा है।
राष्ट्रीय संस्थानों में
सारी की सारी निर्देशक मंडली
को हटा कर अयोग्य और संकीर्ण
सोच के लोगों को लाया जा रहा
है, जैसे
पूना के फिल्म इंस्टीटिउट,
या भारतीय
इतिहास शोध परिषद या एन सी ई
आर टी और कई विश्वविद्यालयों
में हो रहा है। अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर देश के सबसे प्रतिष्ठित
फिल्म प्रशिक्षण संस्थान में
सलाहकार मंडली में ऐसे लोगों
को डालना जिन्होंने फिल्म को
कला की तरह जाना ही नहीं है,
किसी
ने अश्लील फिल्मों में काम
किया है तो कोई प्रोपागंडा
फिल्में बनाता रहा है,
यह किस
दर्जे का घटियापन है!
संघ के
लोग जब जो मर्जी कह रहे हैं -
सारे
आई आई टी संस्थान हिंदू विरोधी
घोषित किए गए हैं,
आई आई
एम संस्थानों के प्रबंधन में
वाम समर्थकों का प्रभाव है -
सुन कर
एकबारगी लगता है कि ऐसी हास्यास्पद
बात खबर बनती कैसे है!
जिन
बातों पर पचास साल पहले लोग
हँसते थे-
गणेश
और सर्जरी,
वैमानिकी
शास्त्र,
ऐसी
तमाम कपोल कल्पनाएँ इक्कीसवीं
सदी के भारत की मुख्य खबरें
होती हैं। राष्ट्र के नेता
ऐसे हों जो सीना चौड़ा कर अपने
अज्ञान और अंधविश्वासों को
बखानते हों तो देश का क्या
होगा?
प्रधानमंत्री
कभी साक्षात्कारों में कह
चुके हैं कि उन्होंने कालेज
का दरवाजा खटखटाया नहीं है।
सारी शिक्षा दूर संचार से पाई
है। यह इस घमंड का ही नतीज़ा
है कि पूना फिल्म संस्थान में
छात्रों की हड़ताल खिंचती चली
जा रही है। ऐसा लगता है कि
अधकचरी पढ़ाई किए कुछ लोग
पढ़े-लिखे
लोगों पर खार खाए बैठे हैं और
अपनी ताकत दिखाने को लगे हैं।
हर दिन कोई ऐसी नई ऊटपटाँग बात
सामने आती है,
जिसे
समझ पाना मुश्किल है। पर आज
इन बातों को हम हँसी में नहीं
उड़ा सकते हैं। आज इनको गंभीरता
से लने की वजह सिर्फ यह नहीं
है कि बड़ी तेजी से यह भगवाकरण
हो रहा है,
बल्कि
गंभीर समस्या यह है कि इतना
कुछ होने के बावजूद देश का
पढ़ा-लिखा
मध्य वर्ग शांत है,
संभवत:
मध्य-वर्ग
का बड़ा हिस्सा पूरी तरह से
सांप्रदायिक सोच में दबा है।
एक अजीब सी बीमारी चारों ओर
फैली दिखती है,
जिसमें
पता नहीं किन हीन भावनाओं की
अभिव्यक्ति आक्रामक पोंगापंथी
प्रवृत्तियाँ बन कर आ रही है।
क्या यह दुनिया के स्तर पर कुछ
बातों में पिछड़े होने की वजह
से है कि हमें यह साबित करना
है कि हम हमेशा महान थे या कि
यह नवउदारवादी बहुराष्ट्रीय
षड़यंत्र है,
जिसमें
देशी पूँजीपति खुल कर साझेदारी
कर रहे हैं,
ऐसे कई
सवाल हमारे सामने हैं। लब्बोलुबाब
यह कि ऐसी ताकतों से हमारा
पाला पड़ा है जो इस देश को तबाह
करने को आमादा हैं और इन ताकतों
को रोकने के लिए वाम के अलावा
और कोई विकल्प नहीं दिख रहा
है।
किसी
भी समझदार आदमी को यह मालूम
है कि मौजूदा सरकार एक सामूहिक
उन्माद के कंधे पर चढ़कर नवउदारवादी
आर्थिक शोषण के लिए काम कर रही
है। आम लोगों के हित के लिए यह
सरकार कुछ नहीं करेगी,
उल्टा
हर क्षेत्र में आम लोगों का
अहित हो रहा है। स्वास्थ्य
बजट में कटौती की गई है। सरकारी
स्कूल बड़ी तादाद में बंद किए
जा रहे हैं। उच्च शिक्षा को
भी गैट्स के समझौतों के अंतर्गत
विदेशी संस्थानों के लिए खोल
दिया जा रहा है। और जिस तरह
सुनियोजित ढंग से सरकारी
स्कूलों को तबाह किया गया है,
उसी तरह
विश्वविद्यालयों को तबाह
किया जाएगा। बिना सोचे समझे,
बहस
विमर्श को धत्ता बतलाते हुए
नई शिक्षा नीतियाँ लागू की
जा रही हैं। पिछली सरकार ने
गाँव के गरीबों का भला करने
के लिए मनरेगा स्कीम चलाई थी,
उसमें
बड़ी कटौती कर दी गई है। बिहार
में विधानसभा चुनावों के पहले
क्या कुछ होने वाला है,
उसकी
आशंका चारों ओर है -
कितने
दंगे करवाए जाएँगे,
क्या
पाकिस्तान के साथ कोई जंग शुरू
हो जाएगी,
कुछ भी
हो सकता है!
लोगों
को किसी तरह बुनियादी हकों
की लड़ाई से हटाकर फिरकापरस्त
और जातिवादी सोच में जकड़ने
की पूरी कोशिश की जाएगी। इस
सरकार के लिए कुछ भी संभव है!
संघ
परिवार ने तो बिहार में जी-जान
से लड़ाई लड़नी ही है। आखिर
राज्यसभा में बहुमत के लिए
अभी एक दो राज्य हाथ में आने
ज़रूरी हैं। लोकसभा और राज्यसभा
दोनों में बहुमत मिलने पर
संविधान बदलने की प्रक्रिया
शुरू होगी। भारत के संविधान
में बराबरी और न्याय के जो
दूरगामी प्रावधान हैं,
ये लोग
उनको हटाकर कठमुल्लापंथी और
मनुवादी व्यवस्था लाने को
पूरी ताकत से जुट गए हैं। हो
सकता है कि मध्य-वर्ग
में ऐसा उदासीन तबका है,
जिसे
इस बात की समझ हो तो वह जाग उठे।
आज देश के हर नागरिक को यह खतरा
समझाने की जिम्मेदारी लोकतांत्रिक
ताकतों की है। यह हँसी मजाक
का मामला नहीं रह गया है। जहाँ
तक आम लोगों की बात है,
वे ग़रीब
हैं, पर
नासमझ नहीं हैं। यह झूठ कि
भ्रष्ट और सांप्रदायिक ताकतों
का विकल्प नहीं है,
इसके
खिलाफ उन्हें लामबंद करना
होगा। अगर कहीं तरक्कीपसंद
ताकतें कमजोर भी हों तो भी
लोगों को संगठित होकर अपने
में से किसी भले आदमी को चुनना
चाहिए न कि लुटेरों और हत्यारों
को।
इसलिए
यह बात महत्वपूर्ण हो गई है
कि बिक चुकी मीडिया और देशी-विदेशी
पूँजी की भयावह ताकतों के आगे
लोकतांत्रिक ताकतें किस तरह
खड़ी होती हैं। आम लोग देख रहे
हैं कि क्या वाम ताकतें इतिहास
को सामने नहीं रखकर वर्तमान
की लड़ाई लड़ेंगी?
अतीत
को भूलना नहीं चाहिए,
सही ग़लत
ऐतिहासिक घटनाओं पर बहस और
विमर्श होते रहना चाहिए,
पर पचास
साल पहले के विवादों में उलझे
रहकर वाम ताकतें अपनी ऐतिहासिक
भूमिका को बार बार नकारती रही
हैं। देश भर में जहाँ भी संगठित
विरोध होता है,
वहाँ
जनता वाम के नेतृत्व में भरोसा
करती है, पर
चुनावों में सांगठनिक मतभेदों
से ऊपर उठकर जनता की आशाओं को
सफल बनाने में वाम ताकतें असफल
रह जाती हैं। विड़ंबना यह है
कि बड़े वामपंथी दल भ्रष्ट
राजनैतिक ताकतों के साथ तो
समझौता करते रहे हैं,
पर कम
ताकत वाले वाम संगठनों के
प्रति नकारात्मक रवैया अख्तियार
किए रखते हैं। ऐसी स्थिति में
बिहार में वाम दलों के गठबंधन
ने लोकतांत्रिक ताकतों में
आशा जगाई है कि बेहतर भविष्य
का सपना सार्थक हो सकता है।
इस गठबंधन को और व्यापक और
लोकतांत्रिक होना होगा। थोड़े
ही समय में देश भर में,
खास तौर
पर उत्तर भारत के राजनैतिक
परिदृश्य में अंधकार युग आ
चुका है। अँधेरे की इस परत को
चीरकर रोशनी लाने के लिए हर
सचेत नागरिक को सक्रिय होना
होगा।
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