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गो ग बा ब - 2

(पिछली पोस्ट से आगे) 


बाघा का ढोलक देखकर नाविक को भी संगीत सुनने की बड़ी च्छा हो रही थी, इसलिए उसने इस बात का कोई विरोध नहीं किया। गोपी और बाघा के चढ़ने पर नाव चल पड़ी। नाव लोगों से भरी हुई थी, उसमें बैठकर बजाने की जगह कहाँ होती! बड़ी मुश्किल से सबके बीच ज़रा सी जगह मिली, तब तक नाव भी मझधार में पहुँच चुकी थी। फिर ज़रा सा गुनगुनाकर गोपी ने गाना शुरू किया, बाघा ने ढोल पर लाठी मारी, बस तुरंत नाव पर बैठे सभी लोग बहुत घबरा कर लोट-पोट होने लगे और एक दूसरे को थामने की कोशिश में उनसे नाव ही उलट गई।

यह तो बड़ी भारी विपदा आ गई। अच्छी बात यह थी कि बाघा का ढोल काफी बड़ा था, उसी से सटे रहकर दोनों ने जान बचाई। पर राजबाड़ी वे नहीं जा पाए।

दिन भर नदी की धार में बहते-बहते अंत में शाम हो गई, तब वे तट पर एक बहुत बड़े जंगल में पहुँच पाए। उस जंगल में दिन के वक़्त ही जाने पर डर से जान निकल जाती है, रात की तो बात ही न पूछो। तब बाघा बोला, "गोपी भैया, यह तो बड़ी मुसीबत में फँस गए, अब बतलाओ क्या करें! " गोपी बोला, "करें क्या? मैं गाऊँगा, तुम बजाओगे। अगर शेर ने खाना है ही, तो उसे अपनी विद्या दिखला ही दें ?"
बाघा बोला, "ठीक है भैया! मरना ही है तो उस्तादों जैसे मरें, गाँव के भूतों जैसा मरना ठीक नहीं है।"

यह कहकर दोनों ने अपने गीले कपड़े उतार दिए और जी खोल कर गाना-बजाना शुरू किया। चूँकि उस दिन बाघा का ढोल गीला था, इसीलिए उसमें से गहरी-सी आवाज़ निकल रही थी। और गोपी भी इस यह सोच रहा था कि यह उसका आखिरी गीत है, इसलिए उसके गले की आवाज़ भी काफी भारी निकल रही थी। अरे, वह भी कैसा ज़बरदस्त संगीत था, क्या बतलाएँ! एक घंटा-दो घंटे होते-होते आधी रात बीत गई, पर उनका गाना रुका नहीं।

अचानक उन दोनों को लगा, जैसे चारों ओर कुछ अजीब सा हो रहा हो। पेड़ के ऊपर से हल्के-हल्के से, काले-काले से, बड़े-बड़े न जाने कौन झाँकने लगे थे। उनकी आँखें जल रही थीं, जैसे आग की भट्टियाँ हों, दाँत ऐसे निकले हुए थे जैसे सूखी मूलियाँ हो।

यह देखकर तुरंत अपने-आप ही बाघा का वादन रुक गया, साथ ही दोनों के हाथ-मुँह सिकुड़ गए, पीठ टेढ़ी हो गईं, गर्दनें झुक गईं, आँखें निकल आईं और मुँह खुले-के-खुले रह गए। उनके शरीर इतनी बुरी तरह काँपने लगे और दाँत इस तरह सट गए कि उन्हें दौड़कर भागने की भी सुध न रही।

पर भूतों ने उनका कुछ न बिगाड़ा। वे उनका गाना-बजाना सुन कर बहुत खुश थे और उनको बुलाने आए थे कि उनके राजा के बेटे की शादी में गोपी और बाघा आएँ। संगीत रुकता देखकर उन्होंने नाक से आवाज़ निकालते हुए कहा, "रुक क्यों गए बाप? बजा, बजा, बजा!"

इस बात से गोपी और बाघा की हिम्मत ज़रा बढ़ी, उन्होंने सोचा, "यह तो बढ़िया रही, ज़रा गाकर ही देखें।" ऐसा कहकर ज्यों ही उन लोगों ने फिर गाना शुरू किया, तुरंत भूत बंधु एक-एक दो-दो कर पेड़ से उतर उनके चारों ओर नाचने लगे।

अरे, वह भी कैसी मस्ती थी, जिसने नहीं देखा, वह क्या समझे! अपनी पूरी ज़िंदगी में गोपी और बाघा ने ऐसे पारखी नहीं देखे थे। वह रात इसी तरह बीत चली। जब भोर होने को आई तो भूत तो बाहर नहीं रह सकते, इसलिए उससे ज़रा सा पहले उन्होंने कहा, "चलो भाई, हमारे सरदार के बेटे की शादी में चलो! तुम्हें खुश कर देंगे।"

गोपी बोला, "पर हमें तो राजाबाड़ी जाना है!" भूत बोले," अरे चले जाना, पहले हमारे घर भी ज़रा गाना-बजाना सुना जाओ! तुमलोगों को खुश कर देंगे।" आखिर वे दोनों ढोल लेकर भूतों के घर चले। वहाँ जो गाना-बजाना हुआ, उसके बारे में कुछ कहने की ज़रुरत नहीं है। उसके बाद उनको विदा करते वक़्त भूतों ने कहा "तुमलोग क्या चाहते हो? "
गोपी बोला, "हम यह चाहते हैं कि हम गा-बजाकर सबको खुश कर सकें। "
भूतों ने कहा, "ऐसा ही होगा, जो भी तुम लोगों का गाना-बजाना सुनेंगे, कोई संगीत समाप्त होने के पहले उठकर जा नहीं पाएगा। और क्या चाहते हो ?"
गोपी बोला, "और इतना ही चाहते हैं कि हमें खाने-पहनने में कोई कमी न हो।" यह सुनकर भूतों ने उन्हें एक थैला दिया और कहा, "जब भी तुम जो कुछ खाना चाहो या पहनना चाहो, इस थैले में हाथ डालते ही वह तुम्हें मिल जाएगा। और क्या चाहते हो ?"
गोपी बोला, "और क्या चाहें वह तो हमारी समझ में नहीं आ रहा !" तब भूतों नें हँसते-हँसते उन दोनों को दो जोड़े जूते ला दिए और कहा, "पैरों पर इन जूतों को पहन कर तुम लोग जहाँ भी जाना चाहोगे, तुरंत पहुँच जाओगे। "

अब फिर परेशानी की बात ही क्या रही। गोपी और बाघा ने भूतों से विदा ली, पैरों पर वे जूते पहन लिए और कहा, "अब तो हम राजबाड़ी जाएँगे!" तुरंत वह बड़ा जंगल पता नहीं कहाँ गायब हो गया। गोपी और बाघा ने देखा कि वे दोनों एक बहुत बड़े महल के दरवाज़े के सामने खड़े हैं। इतना बड़ा और सुन्दर मकान उन लोगों ने अपने जीवन में कभी नहीं देखा था। तुरंत उन लोगों ने समझ लिया कि यह राजबाड़ी है। पर इसी बीच एक मुसीबत आ खड़ी हुई। राजबाड़ी के फाटक पर यमदूत सरीखे कुछ दरबान खड़े थे, उन लोगों ने जैसे ही गोपी और बाघा को ढोल सहित आते देखा, तो दाँत पीसकर पूछा, "अइयो! कहाँ जाते हो ?"
गोपी ने घबराते हुए कहा, "दादा, महाराज को संगीत सुनाने आये हैं। " इससे वे दरबान और भी बिगड़ गए और उन्होंने लाठियाँ तानकर कहा, "भागो यहाँ से!" गोपी ने भी तब नाक सुड़ककर कहा, "अरे वाह ! हम तो महाराज के पास जाएँगे ही। "

ऐसा कहते ही उन जूतों की बदौलत, वे तुरंत महाराज के सामने उपस्थित हुए। राजबाड़ी के अन्तःपुर में महाराज सोये हुए हैं, रानी उनके सिर के पास बैठ उन्हें पंखे से हवा कर रही है, इसी समय न कहना न सुनना, उस भयंकर ढोल के साथ गोपी और बाघा वहाँ आ खड़े हुए। जूता ऐसा गुणवान था कि दरवाज़े-खिड़की सभी बंद हैं, फिर भी वे कहीं अटके नहीं। उन्हें देखकर बहुत घबराकर रानी चीख पड़ी और तभी बेहोश हो गई। महाराज उछल कर पागलों की तरह इधर-उधर दौड़ने लगे, पूरी राजबाड़ी में अफरा-तफरी मच गई। सिपाही-संतरी सब ढाल-तलवार लेकर दौड़े आए।

गड़बड़ होती देख गोपी और बाघा का सिर चकरा गया। अगर वे तब बस इतना कह देते, "हम यहाँ से अमुक जगह जाएँगे", तो उनके जूतों के गुण से सारी समस्या ही ख़त्म हो जाती। पर यह बात उनके दिमाग में नहीं आई। वे दौड़कर भागने की कोशिश में दो ही कदम जा पाए थे कि बेचारों पर ऐसी मार पड़ी! जूते, लाठी, चाबुक, घूसे, थप्पड़, कान खिंचाई, कुछ भी बाकी न बचा। अंत में महाराज ने हुक्म दिया, "सालों को तीन दिन तक कारागार में बंद रखो। उसके बाद इनकी सुनवाई होगी, या तो इनके सिर कटवाऊँगा, या सूली पर चढ़वाऊँगा, या कुत्तों को खिलवाऊँगा।"

हाय रे गोपी! हाय रे बाघा! बेचारे आए थे यह सोचकर कि राजा को संगीत सुनाकर उन्हें खूब सारी बख्शीश मिलेगी, और बेचारे इसी बीच यह कैसी आफत में फँस गए! प्यादों ने उनके हाथ बाँध दिए और उन्हें पीटते-पीटते एक अँधेरे कमरे में ले जाकर डाल दिया। इसमें ऐसी कोई तकलीफ की बात न थी, पर बाघा का ढोल चला गया, यही सबसे खतरनाक बात थी! बाघा सीना और सिर पीट-पीटकर चीख-चीख कर रोने लगा और बोला, "ओ गोपी भैया! ओह-ओह----- -! अरे ओ गोपी भैया! मार खाई, जान चली जाए, इसका दुःख नहीं है -- पर भैया, मेरा ढोल तो गया!" 
 
गोपी का इसी बीच दिमाग शांत हो आया था। उसने बाघा के शरीर और सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, "रोने की क्या बात है, भैया? ढोल ही गया, जूता और थैला तो हैं! हमलोग बड़े बेवक़ूफ़ हैं, इसीलिए इस तरह मार खायी। खैर, जो होना था हुआ, अब ज़रा कुछ मज़ा लूटा जाए।" बाघा यह सुन ज़रा शांत हुआ और उसने पूछा, "मज़ा क्या लूटेंगे भैया? " गोपी बोला, "पहले मज़े से खा लें, फिर दूसरी बातों की सोचेंगे।"
(बाकी अगली पोस्ट में)

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