एक
भले मित्र ने एक केंद्रीय सचिव
की हिंदी के सरलीकरण की पहल
को आधार बनाकर लिखे अंग्रेज़ी
लेख को फेबु पर पोस्ट किया।
उसे पढ़कर दोस्त को मेरा जवाब -
बॉस,
अंग्रेज़ी वालों के लिए अंग्रेज़ी वालों के लिखे अंग्रेज़ी वाले लेखों को क्या पढ़ना पढ़ाना?
पहली बात तो यह कि जिसे उर्दू कहा जा रहा है उसमें और हिंदी में कोई फर्क नहीं है। उर्दू को अलग कहते ही हिंदी से बोलचाल के शब्दों को अलग करने के षड़यंत्र में हम शामिल हो जाते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि उर्दू किसी भाषा का नाम नहीं है। इसका मतलब सिर्फ यह है कि हिंदी और उर्दू एक ही भाषा के दो नाम हैं - अलग लिपियों के साथ जुड़े हुए। इन्हीं का एक और नाम हिंदुस्तानी है। आप ज़बरन फारसी या संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों का इस्तेमाल किसी भी भाषा में कर सकते हैं। ऐसा करनेवालों की यह अपनी सीमा है। इसकी वजह से भाषा की आम पहचान बदल नहीं जाती।
दूसरी बात यह कि आसान प्रचलित शब्दों को हटाकर ज़बरन अंग्रेज़ी शब्द थोपनेवाले जिन ट्रेंडी न्यूज़पेपर का लेख में ज़िक्र हुआ है, वे ऐसे हैं जो पाकिस्तान शब्द को दुश्मन शब्द से अलग लिख नहीं पाते, यानी कि वे ट्रेंडी नहीं खास हितों के पर्चे हैं जिनको निकालने वाले अंग्रेज़ी वाले हैं।
अगर सचमुच हिंदी या किसी भी भारतीय भाषा के ज़मीनी लोगों के हाथ ताकत होती तो यह संस्कृत-अंग्रेज़ी राज चलता? भाषा पर अंग्रेज़ी और संस्कृत के कूट समझौते का ज़िक्र न करने वाला कोई भी लेख बेमतलब है।
अंग्रेज़ी और संस्कृत- दोनों उम्दा ज़ुबानें हैं। जैसे हम दूसरी भाषाएँ सीखते हैं, इन्हें भी सीखना ही चाहिए। पर भारत में अंग्रेज़ी और संस्कृत वालों की भूमिका सिर्फ इन भाषाओं को बोलने की नहीं है। भारत में अंग्रेज़ी और संस्कृत वालों की खास पहचान है - इसके साथ जुड़ी अंग्रेज़ी की कई भूमिकाओं में अभी जो सबसे अहम है - वह भारतीय भाषाओं का संहार है। लिंगुईसाइड। भाषा का संहार उस दुनिया का संहार है जहाँ वह भाषा बोली जाती है, उन लोगों का संहार है, जो उस भाषा को बोलते-जीते हैं। संस्कृत यह काम सदियों से करती आई है, हाल की सदियों में यह काम अंग्रेज़ी को आउटसोर्स किया गया है।
जाहिर है कि बात हर उस व्यक्ति की नहीं हो रही है, जो अंग्रेज़ी या संस्कृत पढ़ता-लिखता है। बात सामाजिक-राजनैतिक प्रक्रियाओं की हो रही है।
एक छोटी कविता पढ़ो जो चुनावों के पहले लिखी थी, अभी हाल में वेब पर (अनुनाद) और बाद में 'समकालीन जनमत' में आई है -
मर्सिया
ऐ हिंदी हिंदुस्तानी उर्दू लिखने वालो
तमिल, तेलुगु, बांग्ला, कन्नड़, पंजाबी वालो
ओ कोया, भीली, कोरकू, जंगल के दावेदारो
धरती गर्म हो रही है
अंग्रेज़ी सरगर्म हो रही है
आओ अपनी बोलियों में मर्सिया लिखें
कल लिखने वाला कोई न होगा
पूँजी की अंग्रेज़ी पर सवार संस्कृत-काल दौड़ा आ रहा है।
उसे पढ़कर दोस्त को मेरा जवाब -
बॉस,
अंग्रेज़ी वालों के लिए अंग्रेज़ी वालों के लिखे अंग्रेज़ी वाले लेखों को क्या पढ़ना पढ़ाना?
पहली बात तो यह कि जिसे उर्दू कहा जा रहा है उसमें और हिंदी में कोई फर्क नहीं है। उर्दू को अलग कहते ही हिंदी से बोलचाल के शब्दों को अलग करने के षड़यंत्र में हम शामिल हो जाते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि उर्दू किसी भाषा का नाम नहीं है। इसका मतलब सिर्फ यह है कि हिंदी और उर्दू एक ही भाषा के दो नाम हैं - अलग लिपियों के साथ जुड़े हुए। इन्हीं का एक और नाम हिंदुस्तानी है। आप ज़बरन फारसी या संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों का इस्तेमाल किसी भी भाषा में कर सकते हैं। ऐसा करनेवालों की यह अपनी सीमा है। इसकी वजह से भाषा की आम पहचान बदल नहीं जाती।
दूसरी बात यह कि आसान प्रचलित शब्दों को हटाकर ज़बरन अंग्रेज़ी शब्द थोपनेवाले जिन ट्रेंडी न्यूज़पेपर का लेख में ज़िक्र हुआ है, वे ऐसे हैं जो पाकिस्तान शब्द को दुश्मन शब्द से अलग लिख नहीं पाते, यानी कि वे ट्रेंडी नहीं खास हितों के पर्चे हैं जिनको निकालने वाले अंग्रेज़ी वाले हैं।
अगर सचमुच हिंदी या किसी भी भारतीय भाषा के ज़मीनी लोगों के हाथ ताकत होती तो यह संस्कृत-अंग्रेज़ी राज चलता? भाषा पर अंग्रेज़ी और संस्कृत के कूट समझौते का ज़िक्र न करने वाला कोई भी लेख बेमतलब है।
अंग्रेज़ी और संस्कृत- दोनों उम्दा ज़ुबानें हैं। जैसे हम दूसरी भाषाएँ सीखते हैं, इन्हें भी सीखना ही चाहिए। पर भारत में अंग्रेज़ी और संस्कृत वालों की भूमिका सिर्फ इन भाषाओं को बोलने की नहीं है। भारत में अंग्रेज़ी और संस्कृत वालों की खास पहचान है - इसके साथ जुड़ी अंग्रेज़ी की कई भूमिकाओं में अभी जो सबसे अहम है - वह भारतीय भाषाओं का संहार है। लिंगुईसाइड। भाषा का संहार उस दुनिया का संहार है जहाँ वह भाषा बोली जाती है, उन लोगों का संहार है, जो उस भाषा को बोलते-जीते हैं। संस्कृत यह काम सदियों से करती आई है, हाल की सदियों में यह काम अंग्रेज़ी को आउटसोर्स किया गया है।
जाहिर है कि बात हर उस व्यक्ति की नहीं हो रही है, जो अंग्रेज़ी या संस्कृत पढ़ता-लिखता है। बात सामाजिक-राजनैतिक प्रक्रियाओं की हो रही है।
एक छोटी कविता पढ़ो जो चुनावों के पहले लिखी थी, अभी हाल में वेब पर (अनुनाद) और बाद में 'समकालीन जनमत' में आई है -
मर्सिया
ऐ हिंदी हिंदुस्तानी उर्दू लिखने वालो
तमिल, तेलुगु, बांग्ला, कन्नड़, पंजाबी वालो
ओ कोया, भीली, कोरकू, जंगल के दावेदारो
धरती गर्म हो रही है
अंग्रेज़ी सरगर्म हो रही है
आओ अपनी बोलियों में मर्सिया लिखें
कल लिखने वाला कोई न होगा
पूँजी की अंग्रेज़ी पर सवार संस्कृत-काल दौड़ा आ रहा है।
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हम
सब मजबूरी में दिनभर अंग्रेज़ी
का इस्तेमाल करते हैं,
हमारी
रोजी-रोटी
का सवाल है;
पर
कई बंधु ऐसे हैं जो बेवजह
अंग्रेज़ी में ही अधिकतर काम
करते हैं,
सिर्फ
इसलिए कि इससे उन्हें लगता
है कि उन्हें अधिक ख्याति
मिलती है। कई तो अब भारतीय
भाषाओं में कुछ सार्थक लिख
ही नहीं सकते,
वे
इस काबिलियत को खो बैठे हैं।
विड़ंबना यह कि आम लोगों पर
गंभीर विमर्श का दावा करनेवाले
ऐसे लोगों को हम गंभीरता से
लेते हैं। मुझे पता है कि कई
लोग यह कहेंगे कि मैंने कहाँ
बिल्कुल देशज में लिखा है -
सही
है,
फर्क
यह है कि मैं जैसा भी लिखता
हूँ,
दूसरों
से यह माँग नहीं रखता कि वे
उसी भाषा में लिखें। मेरी अपनी
सीमाएँ हैं,
आखिर
मैं किसी शून्य से नहीं,
मौजूदा
व्यवस्था से ही निकला हूँ।
मैं मानता हूँ कि हर किसी को
यह अधिकार मिलना चाहिए कि वह
अपनी भाषा में पढ़े-लिखे
और दूसरी भाषाओं को अपनी सुविधा
अनुसार सीखे और जब ज़रूरत हो
उनका इस्तेमाल करे। मैं संकीर्ण
कट्टरता का समर्थक नहीं हूँ,
लचीला
रुख ही अपनाता हूँ। मेरे लिए
अंग्रेज़ी में लिखना आसान
है,
हिंदी
टाइप करना कठिन। पर मैं कुछ
बातें अपने ढंग की ऐसी हिंदी
में लिखता हूँ क्योंकि जैसी
भी यह है,
आज
की तारीख में इसके जरिए अधिक
लोगों के साथ जुड़ पाता हूँ।
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