Wednesday, April 09, 2014

सड़क किनारे


सड़क किनारे
दुम दबाए घूरती
व़ह मुझे अपने बच्चों का दुश्मन मानती है

मुझे उसके पिल्ले प्यारे लगते हैं
मैं उसे फुसला नहीं सकता
वह यूँ अपनी जगह पर अड़े हुए मुझे शक से देखती
जैसे मेरी जरा सी ग़लती पर हमला कर देगी

वहीं एक बच्ची जो धीर-धीरे बन रही
बहुमंज़िला इमारत
के पास बैठ
एकटक अपनी माँ को तगाड़ी भर-भर कभी ईंटें कभी सीमेंट
कहीं ऊपर कहीं नीचे चढ़ाती उतारती देखती रहती

मुझे अपनी माँ याद आती है
और मैं चाहता हूँ
कि तुम आओ
मुझे अपनी गोद में मुँह छिपा थोड़ी देर रो लेने दो

अपने पिल्‍लों की हिफाजत में बैठी
वह मुझे एक पैगंबर लगती
मेरी माँ जैसी
और उस माँ जैसी भी
जो तगाड़ी दर तगाड़ी इस दुनिया से
अपनी बच्ची को बचाने के लिए हर पल सतर्क है

दुनिया की सभी
माँओं जैसे उसका
एक पेट है जिसमें मेरी माँ के मुझे जनमने जैसा विज्ञान है
जो उसकी छातियों तक जाता है
जहां मुंह छिपा उसके पिल्ले दूध पी सकें और
निरंतर खेल-झगड़ सकने के काबिल रहें जैसे मेरी माँ ने
मुझे मेरी दोस्त से यह कहने के काबिल बनाया कि वह दुनिया की सबसे खूबसूरत धड़कन है
जैसे वह बच्ची जो एकटक देख रही अपनी माँ को
एकदिन इस काबिल बन ही जाएगी कि वह भरपूर जिए
सपने देखे
प्रेम करे

फिलहाल तो मैं बस उसे शुक्रिया कहता हूँ कि उसे देखकर मैं कुछ देर और जीता हूँ

(बनास - 2014)

1 comment:

मोहन श्रोत्रिय said...

मन को छू लिया, गहरे तक !