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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Sunday, April 03, 2011

भारत स्वाभिमान में जुट जाओ


सवा सौ करोड़ लोगों वाले एक मुल्क ने एक दो करोड़ जनसंख्या के एक मुल्क को अपने आधे लाख लोगों के हल्ले के बीच ज़रा से फर्क से पछाड़ दिया और आधी रात के बाद मेरे अध्यापक साथियों के परिवार के लोग पटाखे फटाने निकले। युवाओं को तो जैविक छूट है कि वे जुनून का कारण बतलाने को मजबूर नहीं हैं। पर एक ऐसी संस्था में जहां युवाओं से लगातार कहा जाता है कि आधी रात के बाद जागो मत, वहाँ मध्य वय और उससे भी बड़े लोग अपने नन्हे मुन्नों को लेकर रात बारह से एक बजे तक देश के कानूनों का उल्लंघन कर पटाखे फटाने चलते हैं, इसको किस तरह समझा जा सकता है। मैं इसे महज एक सामंती दंभ मानता हूं, जो अपनी अवस्था के दंभ में सामान्य शिष्टाचार को भी ताक में रख देता है। खेल में मैं भी अपनी ही टीम का पक्ष लेता हूं, खुशी मुझे भी होती है कि भारत की टीम जीती। पर सीना चौड़ा कर सामंती दंभ से उछल रहे लोगों के लिए मुझे यही कहना है कि असली हिन्दुस्तान को भी जानो, वह जो बहुल है, वह हमेशा अदृश्य नहीं रहेगा। वह तुम्हारे घरों तक पहुंचेगा। आज सुबह पंजाब पर बारह मिनट की एक फ़िल्म पटिआला के डाक्टर राजेश शर्मा ने फेसबुक पर डाली, यह सभी को देखनी चाहिए। समस्या से मैं भी वाकिफ था, पर यह कितनी व्यापक है इसका अंदाजा मुझे भी न था।
क्रिकेट में सब माफ है। विपुल संभावना वाला युवा खिलाड़ी द विलियर्स का कैच पकड़कर माँ की गाली निकालता दिखता है, इसे बार बार दिखाया भी जाता है। क्रिकेट के बाहर भी यह माफ ही है, तो क्रिकेट में क्यों ना माफ हो। दूसरे उत्तर भारतीय खिलाड़ी भी अक्सर ऐसे ही दीखते हैं, पर एक महान संस्कृति वाले मुल्क को यह गलत नहीं दिखता कि टी वी पर करोड़ों लोग इस बात को देखते हैं - मैं सोचता रहता हूं कि यह समस्या मेरी ही है कि मैं यह देख लेता हूं, दूसरों को दिखता ही नहीं होगा। किसी ने गाली नहीं दी होगी यह मेरे ही दिमाग की उपज है कि मैं यह देखता हूं। भारत स्वाभिमान में जुट जाओ लाल्टू, ऐसी चीज़ें दिखना बंद हो जायेंगी।
ऐसे में पाँच अलग अंदाज़ में 'वे मैं चोरी चोरी' सुन रहा हूं.
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4 Comments:

Blogger प्रदीप कांत said...

आलेख विचारणीय और 'वे मैं चोरी चोरी' बेहतरीन

12:38 PM, April 03, 2011  
Blogger  डॉ. मोनिका शर्मा said...

बातें तो सारी विचारणीय हैं..... इस दृष्टिकोण से भी सोचा जाना ज़रूरी है.....
सार्थक पोस्ट ....

7:19 AM, April 04, 2011  
Blogger Ashish said...

दक्षिण अफ्रीका के साथ हुए उस मैच में उस दृश्य को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल था। लेकिन यह सब इतना स्वीकार्य हो चुका है कि अगर आपको अजीब लग रहा है तो माना जाता शायद कमी आपमें है। आप "प्रूड" या "प्रिगिश" हैं। खुशी हुई कि कई लोग ऐसे हैं जो न केवल इसे अजीब मानते हैं बल्कि अभिव्यक्त भी करते हैं। लेकिन बार-बार देखता हूँ कि खेल के मैदान पर गालियाँ बकना मानो उत्साहवर्धन का सबसे बेहतरीन तरीका है, शरीर के लिए सबसे अच्छा विटामिन। कितने ही प्रशिक्षकों को खुद माँ-बहन की गालियाँ बकते सुना है। कितने ही लोग हैं जो इन्हीं खिलाड़ियों को अपने रोल मॉडल बनाने की बात करते हैं। और क्यों न बनाएँ, यही खिलाड़ी हैं जो आज देश के सबसे अमीर और सफल लोगों में शुमार हैं। लेकिन इन मॉडलों का रोल कितना कारगर है, इनकी सफलता कितनी अर्थपूर्ण, इसका अंदाज़ा ग्लट देख कर हो जाता है।

6:13 PM, April 04, 2011  
Blogger music-ated said...

लोगों का कहना होता है
पाकिस्तान के साथ मॅच मानो युद्ध की माफिक होता है,
तो हमारे सेनानी "बार" पहुँच जाते हैं, डिस्को में बड़े बड़े स्क्रीन लग जाते हैं .. और फिर जाम दर जाम के दौर के बीच तालियों और गालियों का परंपर प्रवाह आधे दिन तक चलता रहता है | ठीक माना जंग थी, जीत ली हमने, फिर हज़रत आप निकल पड़े सड़कों पे, गाड़ियाँ निकाली, पेट्रोल फूँका, फिर रात भर और तालियाँ और गालियाँ .. मॅच सड़कों पे जूट की ज़मीन पर पड़े लावारिसों के देश ने भी जीटा, उन भूखे पेट वाले मज़दूरों के देश ने भी जीता है, फाँसी की रस्सी को चेक करते किसान के देश ने भी जीता है..
पर शायद उनकी देशभक्ति उतनी बेमिसाल नहीं, की शोर मनायें ..

मैने भी मॅच देखा, और यही देखा बस,
की मेरे भाई, जो हारा उसने तो हमारी पूरी टीम को हाथ मिला के बधाई दी,
हमारे विश्व विजयी कप्तान साब तो सरकारी बाबू की तरह शिष्टाचार को बाद में आने के लिए कहते हुए निकल लिए ...

5:02 PM, May 02, 2011  

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