रविवार को चंडीगढ़ में साहित्त चिंतन की सभा में मेरी कविताओं पर गोष्ठी हो रही है। प्रोफ़ेसर मैनेजर पांडे ने सहृदयता के साथ प्रधान वक्ता की जिम्मेदारी ली है। जो मित्र आ सकें ज़रूर आएं। सभा सेक्टर पैंतीस के प्राचीन कला केंद्र में सुबह साढ़े दस बजे से शुरू होगी।
इस बीच लम्बे समय तक अपने काम में व्यस्त रहा और चिट्ठा लिख न पाया। दनादन हो रही घटनाओं में जो बात सबसे ज्यादा याद आती है, वह है बहुत सारे लोगों को अदालतों द्वारा मृत्यु दंड दिया जाना। यह जानते हुए कि कई दोस्तों को एतराज़ होगा कि अभी क्यों, मैं फिर भी सिद्धांततः मृत्यु दंड के खिलाफ अपना विरोध दर्ज करना चाहता हूं।
मैं मानता हूं कि जंग में दोनों ओर से हत्याएं वाजिब हो जाती हैं, पर जंग कौन सी वाजिब बात है! इसीलिए तो हम जंग के विरोध में मुखर हैं।
हत्यारों को मौत की सजा देना कोई अर्थ नहीं रखती। जो ह्त्या कर रहा है वह खुद मरने के लिए तैयार है। उसे मारकर क्या भला। दूसरी ओर मानव इतिहास में अनंत ऐसी सजा-ए-मौत देने की घटनाएं दर्ज़ हैं, जहां बाद में पता चला कि दण्डित व्यक्ति निर्दोष था। पूर्वाग्रहों के आधार पर किसी को भी दोषी मान लेना संभव है - ऐसा अमरीका में काले लोगों के साथ और अन्यत्र भी विपन्न लोगों के साथ होता रहा है। मैं खुद उन कोशिशों में शामिल था जब विश्वविद्यालयों और कालेजों के संगठनों ने दिल्ली के अध्यापक गीलानी को मौत की सजा से छुटकारा दिलाने की मुहिम चलाई थी। उसे फांसी होनी पक्की थी और बाद में पता चला कि वह तो निर्दोष था। अब भी कई बार सोचता हूं कि जिन लोगों ने इस मुहिम का बीड़ा उठाया था वे कितने हिम्मती थे और किस तरह एक एक कर ऐसे कई लोगों को उन्होंने जोड़ा जो शुरू में यही मान कर चल रहे थे कि गीलानी वाकई दोषी था। दस साल पहले पंजाब विश्वविद्यालय में जब शिक्षक संगठन की ओर से हमने गीलानी की सजा के खिलाफ सभा की तो पुराने तरक्कीपसंद वरिष्ठ लोगों तक ने विरोध किया। सभा के बाद सबसे ज्यादा सक्रिय रह चुके एक वरिष्ठ साथी ने उठ कर कहा कि चर्चित बातों के साथ अध्यापक संगठन का कुछ लेना देना नहीं है। मुझे लगता है कि ऐसे विरोध के बावजूद अपने सिद्धांतों पर टिके रह कर मैंने भला किया क्योंकि बाद में गीलानी को सुप्रीम कोर्ट ने निर्दोष मानते हुए रिहा कर दिया। कई मित्र कहेंगे कि क्या हम कसाब या गोधरा के दण्डित हत्यारों को भी निर्दोष मानते हैं। मैं ऐसा कतई नहीं कह रहा। पर मुझे आश्चर्य नहीं होगा कि आज हम जिनको दोषी मान रहे हैं, अगर कल उनमें से कुछ निर्दोष साबित हो जाएं।
इस बीच लम्बे समय तक अपने काम में व्यस्त रहा और चिट्ठा लिख न पाया। दनादन हो रही घटनाओं में जो बात सबसे ज्यादा याद आती है, वह है बहुत सारे लोगों को अदालतों द्वारा मृत्यु दंड दिया जाना। यह जानते हुए कि कई दोस्तों को एतराज़ होगा कि अभी क्यों, मैं फिर भी सिद्धांततः मृत्यु दंड के खिलाफ अपना विरोध दर्ज करना चाहता हूं।
मैं मानता हूं कि जंग में दोनों ओर से हत्याएं वाजिब हो जाती हैं, पर जंग कौन सी वाजिब बात है! इसीलिए तो हम जंग के विरोध में मुखर हैं।
हत्यारों को मौत की सजा देना कोई अर्थ नहीं रखती। जो ह्त्या कर रहा है वह खुद मरने के लिए तैयार है। उसे मारकर क्या भला। दूसरी ओर मानव इतिहास में अनंत ऐसी सजा-ए-मौत देने की घटनाएं दर्ज़ हैं, जहां बाद में पता चला कि दण्डित व्यक्ति निर्दोष था। पूर्वाग्रहों के आधार पर किसी को भी दोषी मान लेना संभव है - ऐसा अमरीका में काले लोगों के साथ और अन्यत्र भी विपन्न लोगों के साथ होता रहा है। मैं खुद उन कोशिशों में शामिल था जब विश्वविद्यालयों और कालेजों के संगठनों ने दिल्ली के अध्यापक गीलानी को मौत की सजा से छुटकारा दिलाने की मुहिम चलाई थी। उसे फांसी होनी पक्की थी और बाद में पता चला कि वह तो निर्दोष था। अब भी कई बार सोचता हूं कि जिन लोगों ने इस मुहिम का बीड़ा उठाया था वे कितने हिम्मती थे और किस तरह एक एक कर ऐसे कई लोगों को उन्होंने जोड़ा जो शुरू में यही मान कर चल रहे थे कि गीलानी वाकई दोषी था। दस साल पहले पंजाब विश्वविद्यालय में जब शिक्षक संगठन की ओर से हमने गीलानी की सजा के खिलाफ सभा की तो पुराने तरक्कीपसंद वरिष्ठ लोगों तक ने विरोध किया। सभा के बाद सबसे ज्यादा सक्रिय रह चुके एक वरिष्ठ साथी ने उठ कर कहा कि चर्चित बातों के साथ अध्यापक संगठन का कुछ लेना देना नहीं है। मुझे लगता है कि ऐसे विरोध के बावजूद अपने सिद्धांतों पर टिके रह कर मैंने भला किया क्योंकि बाद में गीलानी को सुप्रीम कोर्ट ने निर्दोष मानते हुए रिहा कर दिया। कई मित्र कहेंगे कि क्या हम कसाब या गोधरा के दण्डित हत्यारों को भी निर्दोष मानते हैं। मैं ऐसा कतई नहीं कह रहा। पर मुझे आश्चर्य नहीं होगा कि आज हम जिनको दोषी मान रहे हैं, अगर कल उनमें से कुछ निर्दोष साबित हो जाएं।
मृत्यु दंड पर मेरे विचार सिर्फ अदालतों के लिए ही नहीं हैं, यही बात मैं जनयुद्ध में लगे संगठनों के बारे में भी मानता हूं। न ही ये कोई नए विचार हैं। बहुत सारे समझदार लोगों ने ये बातें बार बार कही हैं। जंगों में भी पकडे गए कैदियों के साथ मानवीय व्यवहार के नियम तय हैं। मृत्यु दंड का होना सभ्यता के पिछड़ेपन को ही दर्शाता है।
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