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'ओ रे गृहवासी, खोल द्वार खोल, लागलो जे दोल'


पिछले पोस्ट के बाद अच्छी खबर यह आई थी कि यू एस ए का इलिनाय प्रान्त देश का सोलहवां प्रांत बन गया है जहां मृत्यु दंड प्रतिबंधित हो गया। राज्य का वर्त्तमान गवर्नर पहले मृत्यु दंड का कट्टर समर्थक था, पर निर्दोषों को सजा मिलने के आंकड़ों से परेशान हो कर वह भी इसके खिलाफ हो गया है। यूरोपीअन यूनियन के अधिकतर मुल्कों में पहले ही मृत्यु दंड की प्रथा ख़त्म हो चुकी है। काश कि हमारे देश में भी लोगों को यह समझ आए कि यह गलत है।
जापान की प्राकृतिक विपदाओं और नाभिकीय दुर्घटना से पहली सीख यही मिलती है कि हम अपनी औकात को समझें और मानव मानव में भेद का जो प्रपंच हमने बनाया है उसकी मूर्खता को समझें। बाकी बातें बाद में आती हैं। बारह तेरह साल पहले हम लोग भारत पकिस्तान में दुश्मनी ख़त्म करने और युद्ध की संस्कृति के खिलाफ लोगों को समझाने के लिए हिरोशिमा नागासाकी पर स्लाइडें दिखाते थे - वह पोखरण कहूटा का युग था। आज भी जापान से हमें कुछ सीखना है तो यही कि जन जन का चेहरा एक।
लोग पूछते हैं - मुझे भी स्थानीय टी वी चैनल पर पूछा गया कि क्या हमारे रीऐक्टर सेफ हैं। सेफ क्या जापान के रीऐक्टर नहीं थे? तकनीकी मामलों में जापान हमसे पिछड़ा हुआ तो नहीं है। हमारे वैज्ञानिकों ने कह दिया है कि नहीं कोई चिंता की बात नहीं है। जैसे कनाडा से निजी नाभिकीय कम्पनियों के लिए काम कर चुके आएंगर साहब जब हिन्दुस्तान में आकर नाभिकीय ऊर्जा के बड़े अफसर बन गए तो एक सभा में वेस्ट डिस्पोज़ल (कचरा निष्कासन) पर सवाल पूछने पर उसने मुझे देशद्रोही ही करार कर दिया था। बहरहाल यह मैं भी मानता हूं कि विज्ञान प्रशिक्षण के स्तर पर हमारे यहाँ कोई कमी नहीं है। पर पेशे की नैतिकता पर हम कितने गंभीर हैं, इस बारे में किसी भी नागरिक का सवाल हो सकता है। एक ऐसे देश में जहां हर स्तर पर भ्रष्टाचार है, वहाँ आम नागरिक कैसे आश्वस्त हो कि सुरक्षा के सभी नियमों का ठीक ठीक पालन किया जा रहा है। यह और बात है कि नाभिकीय ऊर्जा के विकल्पों पर हमारी सरकारें गंभीरता से सोचती ही नहीं, क्योंकि हमारी प्राथमिकता आम नागरिक का सुखी जीवन नहीं, बहु राष्ट्रीय कंपनियों के मालिकों का पेट भरना है। बड़े उद्योगों के लिए जल्दी से जल्दी ऊर्जा चाहिए। इसलिए नाभिकीय ऊर्जा। इसके लिए गाँव के गाँव उजड़ जाएँ, तो क्या चिंता। मोटे सेठ तो और मोटे होंगे, नेता और डकारें भरेंगे।
ऐसे दुखी दिनों में जीवन अपनी लकीर पर चलता ही रहता है। बिनायक सेन पर सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई शुरू हो गयी है। और मैं पिछले कई दिनों से बढ़िया सूफी गीत सुन रहा हूं। पकिस्तान के लोकगायक आरिफ लोहार के साथ मीशा शफी का गाया 'अलिफ अल्ला चम्बे दी बूटी' और मीशा शफी का ही 'सजण नाल मेला करिए' और 'चोरी चोरी' सुनता रहा हूं। परसों बंगाली बंधुओं के साथ सुबह कैम्पस में शान्तिनिकेतन के ढंग की प्रभात फेरी भी होगी - 'ओ रे गृहवासी, खोल द्वार खोल, लागलो जे दोल'

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