Sunday, November 27, 2005

सभ्य लोगों की हाई बीम

मीरा नंदा ने हमें बतलाया था कि सत्तर के दशक के आखिरी सालों में विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की प्रासंगिकता पर बहस छिड़ी थी। मैं जब यहाँ नौकरी पर लगा ही था राजस्थान के झुँझनू में रुपकँवर सती हुई। आज़ादी के चालीस साल बाद सती की घटना ने सभी भले लोगों को चौंका दिया। न केवल सती, उसकी पूजा, पूरा एक व्यापार छिड़ गया और लाखों रुपयों का कारोबार शुरु हो गया। मीरा ने शोध किया है और अपनी पुस्तक में इस पर और ऐसी ही दूसरी घटनाओं पर चर्चा की है। बहरहाल प्रबुद्ध माने जाने वाले एक समकालीन चिंतक ने उन दिनों एक आलेख में कुछ विवादास्पद बातें लिखी थीं, जिसका सारांश यह था कि हमारे जैसे लोग जो आधुनिकता में रचे बसे हैं, हमें कोई हक नहीं कि हमलोग रुपकँवर कांड पर बहस करें। इस घटना के बाद से मीरा जैसे लोगों ने आक्रामक रुख अख्तियार किया और प्रतिक्रियाशील तत्वों के लगातार बढ़ते जा रहे प्रभाव में इन नए वाम चिंतकों को भागीदार माना। यह बौद्धिक लड़ाई आज तक चल रही है और इसलिए बहुत कुछ जाने समझे बिना अखाड़े में उतरने को मेरे जैसा व्यक्ति तैयार नहीं। इस प्रसंग में शिव विश्वनाथन की पुस्तक 'A Carnival for Science: Essays on Science, Technology and Development' (OUP) की समीक्षा करते हुए ध्रुव रायना ने Current Science (Indian Academy of Science, Bangalore), vol. 74, Apr 1998, p. 709, कुछ तीखी टिप्पणियाँ की हैं।

इस बौद्धिक लड़ाई से बचे हुए हमलोग जनविज्ञान आंदोलन में थोड़ी बहुत भागीदारी करते रहे। मैं और मेरी पत्नी चंडीगढ़ और आसपास के इलाकों में स्कूलों, सामुदायिक केंद्रों वगैरह में साइकिल पर डिपार्टमेंट का प्रोजेक्टर लेकर स्लाइड्स दिखाते। अक्सर साथ में युवा छात्र भी होते। बाद में मैं विश्वविद्यालय से छुट्टी लेकर दो साल मध्य प्रदेश में कार्यरत संस्था एकलव्य में काम करने हरदा गया। उस बारे में फिर कभी।

इतना ज़रुर कहा जा सकता है कि नब्बे के दशक के आखिरी साल और इक्कीसवीं सदी के शुरुआती साल भारत में वैज्ञानिक सोच के लिए घोर संकट का समय था। सच यह है कि हमें लगने लगा था कि हम ऐसे भँवर में फँस गए हैं जिनसे निकलना असंभव ही है। पर हर दौर के अपने विरोधाभास होते हैं और जैसी पुरानी कहावत है, समय बड़ा बलवान।
अंधकार के उस दौर में बहुत सारे गलत लोग प्रभावी पदों पर ज़रुर पहँच गए हैं और लंबे समय तक ये लोग भले लोगों को दुःखी भी करते रहेंगे, पर भँवर से हम निकल आए हैं, ऐसा लगता है।

यह वह दौर था जब एक प्रांत में सरकारी स्कूलों में आधुनिक बीजगणित हटा कर वेदिक गणित के नाम पर किसी मठ के महामहोपाध्याय के सूत्र पढाने की कोशिश की गई। विश्वविद्यालयों में हस्त-रेखा शास्त्र, पौरोहित्य जैसे विषयों पर कोर्स शुरु करवाकर डिग्रियाँ देने की कोशिश की गई। और जो कत्ले आम हुए, वह अलग। भारतीय लोकतंत्र की ताकत माननी होगी कि देश इस दौर में से निकला। हमलोग देख रहे थे कि कैसे जर्मनी के तीस के दशक का इतिहास यहाँ दुहराया जा रहा है, पर अंततः वह दौर खत्म हुआ।

काश कि इतना वक्त होता और मैं हिन्दी टंकन में इतना कुशल होता! बहुत कुछ लिखने का मन होता है........

लुधियाना के सरकारी कालेज के भौतिक शास्त्र विभाग ने 'भौतिक शास्त्र वर्ष' मनाने के सिलसिले में मुझे बुलाया था। वहाँ विज्ञान में माडेलिंग में reductionism से holism पर व्याख्यान था और आणविक विज्ञान के कुछ उदाहरण लेकर और दस आयामी ब्रह्मांड के सैद्धांतिक पहलुओं के अलावा कलाकृतियों के उदाहरण लेकर बात समझाने की कोशिश की। मैंने reductionism के एक पुराने उदाहरण (भौतिक शास्त्री द्वारा गाय पर अध्ययन) पर एक कार्टून बनाया है (आइडिया मौलिक नहीं, पर कार्टून मौलिक है), जिसमें गाय की जगह क्रमशः एक और एकाधिक गोलक रख गाय की गतिकी समझने की कोशिश है। दूसरी ओर holism के लिए मिचिओ काकू की प्रसिद्ध पुस्तक 'हाइपरस्पेस' से चींटियों का उदाहरण लेकर समझाया कि किस तरह reductionist पद्धति में ही सीमित रह गए तो काट-छाँट करता ही रह जाऊँगा और कभी न जान पाऊँगा कि एक रानी चींटी भी होती है, मजदूर चींटियाँ भी होती हैं आदि। इन सब कामों में बहुत वक्त जाया होता है, पर किसी को तो यह करना ही होगा। जब बेहतर लोग (यानी कि इन विषयों पर ज्यादा पढ़े या काम किए लोग) साधारण कालेजों में ऐसी चर्चाएं करने लगेंगे तो मैं रुक जाऊँगा। अभी तो ऐसी हालत है कि सवाल आते हैं कि सर, आत्मा पर फलाँ व्यक्ति ने यह प्रयोग किया.... बड़े धैर्य के साथ समझाना पड़ता है कि भाई, यह विज्ञान के दायरे का सवाल नहीं है। लुधियाना के छात्रों को सूज़न ब्लैकमोर की 'कांससनेस: ए वेरी शार्ट इंट्रोडक्शन' पढ़ने को कह आया ताकि विज्ञान के दायरे में ऐसे सवालों को कैसे देखा जाता है उसे जानें।

अबोहर के डी ए वी कालेज में केमिस्ट्री में एम एस सी की पढाई शुरु हुई है। मैं और एक साथी अध्यापक इसी बाबत वहाँ एक्सटेंशन लेक्चर देने गए थे। कुछ छोटे शहर का अपनापन और कुछ डी ए वी की अपनी परंपराएं... बड़े स्नेह के साथ हमें रीसीव किया गया। मेरा विषय सैद्धांतिक है और आम तौर पर केमिस्ट्री के विद्यार्थियों को इससे घबराहट होती है (अधिकतर शिक्षक साथी भी परेशान ही रहते हैं - पर उनके कारण कुछ और हैं)। बहरहाल मुझे मजा आया। इसके तुरंत बाद हिन्दी विभाग में समकालीन कविता, रचना प्रक्रिया आदि पर बात करनी थी। वहाँ बात खत्म ही न होती अगर केमिस्ट्री वाले वापस बुलाने न आते। बहुत सारी बातें हुईं। वहाँ के अध्यापकों ने, खासकर रवि दत्त ने बड़ी शिद्दत के साथ पूरा आयोजन किया था। केदार नाथ सिंह, विनोद कुमार शुक्ल, Anne Sexton और Langston Hughes की कविताएं पढ़ीं। अपनी भी पढ़ीं। नागार्जुन से लेकर Harlem Rennaisance तक बातचीत हुई।

निकलने में देर हो गई। अँधेरे में गाड़ी चलाने से मैं डरता हूँ। सौ (कि.मी.) की रफ्तार से चलाते हुए पटियाले के पास आकर रुके। फिर चाय पी और भारत के सभ्य लोगों की हाई बीम झेलते हुए ज़िंदा लौट ही आए।

Dear Mysterouge,
... Phenomenology, band बजा लो जी is part of a song (aka noise) that I and Pati (my good old mathematician friend now in Bangalore and also known as Johny to ol'timers) used to sing late evenings coming out from a bar cum restaurant called Annex in Princeton in the early eighties. Both of us are against 'A philosophy or method of inquiry based (merely/only) on events as they are perceived' and we prefer people to go deep into the microscopic (or dialectic in the social sphere) origins of events. So we had this song.
The moon in that poem was not used as a symbol of aspirations of Indian people. The first reference is a satirical observation on India planning to spend money on a moon exploration (this is debatable, some people may ask why not?) followed by a nonsensical reference to a popular film song based on a myth that the bird चकोर is fond of the moon (the real meaning being the male lover seeking the female consort), the third reference is to people who are too delicate and cannot tolerate workers going on strike (a High Court decreed a couple of years back - around the time when the moon project was announced - that going on strike is illegal (presumably on the ground that it creates a lot of inconvenience to common people)).......... bapu

7 comments:

अनुनाद सिंह said...

सती को महिमामंडित करना और उसकी पूजा करना दकियानूसी है , मानसिक पिछडेपन की निशानी है |

भाई साहब , अगर मैं गलत नहीं हूँ तो सोवियत संघ के पतन के बाद से "प्रगतिवादी" बडा बदनाम शब्द है | आजकल लोगबाग इससे बहुत चिढते हैं | जगह-जगह् लोग कहते मिल जायेगे कि प्रगति की दौड में इन स्व-घोषित प्रगतिवादियों ने भारत सहित अनेकों देशों को सौ साल पीछे धकेल दिया |
इसलिये मेरे खयाल से मार्क्स को पूजना उससे भी बडी दकियानूसी है , "ब्रेनवास्ड" होने की निशानी है , झूठे देवता की पूजा करना है | आप की क्या राय है ?

वैदिक गणित से आपको क्या तकलीफ है ? क्या उसके नियम गणना को सरल नहीं करते ? गलत उत्तर देते हैं या खास काम के नहीं हैं ?

डिजिटल सिगनल प्रोसेसिंग (डी एस पी) और "सर्वव्यापी कम्प्यूटिंग" के इस दौर में लोग तरह्-तरह के "अल्गोरिद्म" की खोज करने में लगे हुए हैं कि किसी भाँति कोड की एक-दो लाइने ( इन्स्ट्रक्सन्स ) कम हो जाँय ताकि कठिन से कठिन कार्य भी कम से कम मेमोरी के उपयोग से कम से कम समय में पूर्ण हो सके | ऐसे में वैदिक गणित की आलोचना कहाँ तक सही है ?

लाल्टू said...

प्रिय अनुनाद,
अगर आप प्रगति चाहते हैं तो "प्रगतिवादी" आप हैं, चाहे शब्द बदनाम हो। वैसे शायद आप कहना यह चाहते हैं कि कुछ लोग अपने आप को प्रगतिवादी कहते हैं, पर उनका चरित्र इस शब्द के विपरीत है। आपका खयाल कि मार्क्स को पूजना बड़ी दकियानूसी है, स्वयं मार्क्स के मत ही इस बात की पुष्टि करते हैं। आपकी यह चिन्ता कहाँ से उपजी? अगर आप मार्क्स को पूज रहे हैं तो तुरंत ऐसी हरकत बंद कीजिए, नहीं तो मेरे जैसा कोई सिरफिरा आपके पीछे पड़ जाएगा। रही बात वैदिक गणित की, न केवल वैदिक गणित, बल्कि परंपरा से जो कुछ भी मूल्यवान मिलता है, उसे सीखना चाहिए, पर मेरे दोस्त, "ब्रेनवास्ड" होकर परंपरा की अंधभक्ति में आधुनिक बीजगणित को हटा कर बच्चों को वैदिक गणित पढ़ने को मजबूर करने की कोशिश एक तबके की सामूहिक बीमारी है, जिसके खिलाफ हम बोलते रहेंगे। यह किसने आपसे यह कहा है कि प्रगतिवादियों ने भारत सहित अनेकों देशों को सौ साल पीछे धकेल दिया। बेतुकी कविताएं मैं पसंद करता हूँ, बेतुकी बातें नहीं।

Pratik Pandey said...

जहाँ तक मैं जानता हूँ, वैदिक गणित और आधुनिक बीजगणित कोई अलग-अलग गणित के प्रकार नहीं हैं। वैदिक गणित में मात्र कुछ और सूत्रों का उपयोग किया जाता है, जोकि बीजगणित पर ही आधारित होते हैं। आधुनिक गणित पढ़े बिना वैदिक गणित के सूत्रों का इस्‍तेमाल असम्‍भव है। इसलिये जो भी वैदिक गणित का अध्‍ययन कर रहा है, साथ ही उसको आधुनिक बीजगणित का भी अध्‍ययन करना पड़ेगा। जहाँ तक मैंने उन पुस्‍तकों को देखा है जो वैदिक गणित सिखाने के लिये लगायी गयी थीं, उनमें भी आधुनिक गणित का भली-भांति समावेश है।

अनुनाद सिंह said...

चलिये आपने ये तो मान लिया कि वैदिक गणित काम की चीज है | अब जरा ये बता दीजिये कि किस पुस्तक का , आधुनिक बीजगणित का , कौन सा अध्याय , हटाया गया था , वैदिक गणित को जगह देने के लिये |

लाल्टू said...

प्रिय अनुनाद,
मैंने सिर्फ आपके भ्रम को दूर किया है कि मैंने वैदिक गणित की आलोचना की है। पूर्वाग्रह-ग्रस्त होकर आप मेरे लिखे को अपने ढंग से गलत पढ़ रहे हैं। जहाँ तक आपने प्रमाण माँगा है कि मैं बतलाऊँ कि कब कहाँ वैदिक गणित थोपने की कोशिश की गई, मैंने मीरा नंदा की किताबों के संदर्भ पिछले चिट्ठों में दिए हैं, आप उन्हें पढ़िए। पर मुझे लगता नहीं कि प्रमाण आपको संतुष्ट कर पाएंगे। जिन्हें सच ढूँढना होता है, उनके लिए तमाम रास्ते खुले हैं।

अनुनाद सिंह said...

ठीक है इसे यहीं समाप्त किया जाय |

आपके "तर्क" और "तर्क करने के ढंग" से मैं संतुष्ट हूँ |

अनुनाद सिंह said...
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