Tuesday, December 30, 2014

चार कविताएँ


क्या ऐसे मैं


बोलते रहो जो तुम्हें बोलना है

उठाते रहो तूफान, झोंकते चलो आँखों में धूल

क्या ऐसे मैं चुप हो जाऊँगा

मेरी धरती मुझे सीना देगी

और वह तुम्हारे शब्द-जाल से अनंत गुना बड़ा है।



किस पौधे से पूछूँ


अब और नहीं सहा जाता

किस-किस पौधे से पूछूँ कि

उसमें किस बच्चे की खो गई आत्मा बसी है

तुम बुझाते रहो ज़िंदा साँसें

मैं तुम्हारे धुँए से बचाता रहूँ पत्ते

यह अब और नहीं सहा जाता


पौधों को उठा लाता हूँ घर

छूते हुए उनको साथ रोता हूँ

नाश हो तुम्हारा नाश हो।


लहरें


चाहा यही कि कह दूँ

कहा यही कि चुप हूँ

सोचा कि सह लूँ

जो कुछ नहीं कहूँ


इस तरह जीवन ने

मेरा रूबरू करवाया मुझ से

लोग कहते हैं कि मैं चलता चला हूँ

मैं खड़ा हूँ देखता

महाशून्य में लहरें।



सब छिन गए


लोहड़ी होली दीवाली

सब छिन गए

सुबह शक से लड़ता हूँ

क्या पूरब पूरब है


गौरैया कौवे गिद्ध

सब छिन गए

दुंदुंभी बजती है हर पल

सब पश्चिम पश्चिम है


पंजाबी हिंदी बांग्ला

सब छिन गईं

मज़ा ही नहीं रहा

भगतों की अंग्रेज़ी अंग्रेज़ी है।

                                 (इंद्रप्रस्थ भारती : 2014)

पत्रिका में पहली कविता में 'मेरी धरती मुझे सीना देगी' लाइन में 'सीना' शब्द 

ग़लती से 'सोना' छपा है।


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