प्रगति
शहर-दर-शहर
घूमा। किसकी तलाश में?
अचिन
इलाकों का अकेलापन चाहा और
भीड़ बनता चला। काले बादलों
से बतियाना चाहा और आँखें उजास
से चौंधियाती रहीं।
इतना
कुछ,
इतना
कुछ।
भीड़
में अकेला। उनींदे सपनों में
काले बादल। भारी आँखें चमकीली
सड़क पर गड्ढे को ताकती खड़ी
हैं।
इस
तरह सड़क किनारे पड़ा रहा। सड़क
में गड्ढे की शुरूआत और अंत
के खेल खेलता। भविष्य बेचने
आए लोग
बोलियाँ लगाते रहे।
ज़मीं-आस्माँ
बेचने वाले कई हैं,
कोई
अतीत बेच कर भविष्य बेचता है,
कोई
भाषा बेचना चाहता
है। हर कोई
जो कुछ बेचने का कहता है,
उसके
पास वह होता नहीं। अतीत बेचने
वाले अतीत गढ़ते हैं,
ज़मीं-आस्माँ
बेचने वाले दिखलाते कि वो
देखो,
तुम
कहो तो तुम्हारे नाम लिख दें।
भाषा गढ़ने वालों की कारीगरी
पर हर कोई मुग्ध।
और
और किताबें पढ़ लीं,
समाज
इतिहास के बारे में नई समझ गढ़
ली। नज़रें गड्ढे को नहीं,
उससे
परे कहीं जातीं,
सड़क
किनारे पड़ा हुआ चीखता रहा -
प्रेम,
प्रेम।
(पाखी
-
2013)
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