Wednesday, May 04, 2011

सिर्फ चुनींदा मित्रों के लिए नहीं


परसों दोपहर एक साथी ने मेल भेजी जिसमें एक स्लाइड शो संलग्न है। इन स्लाइड्स में नात्सी सेनाओं द्वारा मारे गए यहूदी और अन्य कैदियों की पुरानी तस्वीरें हैं। एक स्लाइड में जनरल आइज़नहावर की तस्वीर के साथ यह बयान है कि उसने अधिक से अधिक ऐसे फोटोग्राफ लेने के लिए कहा था ताकि भविष्य में कोई 'सन आफ बिच' यह न कहे कि यह कत्ले आम हुआ ही नहीं। यह (गाली के अलावा बाकी) बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है। आगे स्लाइड्स में है कि ब्रिटेन में स्कूली पाठ्यक्रम से इस कत्ले आम को इस लिए हटा दिया गया है कि मुसलमान इसको नहीं मानते। मैंने अपने विद्वान साथी को वह लिंक भेजी जहाँ इस झूठ का खंडन किया गया है। साथी का कहना है कि वह इस बात से अवगत है कि यह झूठ है। वह तो महज यह बतलाना चाहता था कि 'सत्य' के प्रति हमें सशंक रहना चाहिए।

ओसामा की मौत परसों सुबह हुई थी।

कल ही यू एस ए में काम कर रहे एक मित्र ने फेसबुक पर एक मेसेज पोस्ट किया। सार यह कि जब इतने सिपाही अब भी खतरे में हैं, जब इतने आम नागरिक खतरे में हैं, एक व्यक्ति की मौत से बुराई (evil) का अंत नहीं हो सकता; 9/11 की विभीषिका से प्रभावित सभी को मित्र ने प्रेम और शांति का संदेश भेजा। बात यह कि फेसबुक पर मित्र होने के बावजूद यह मेसेज मेरे पास नहीं आया। हो सकता है फेसबुक में bug हो। इसके पहले के किसी मेसेज को दुबारा पढ़ने के लिए ढूँढते हुए मैं मित्र की wall पर गया तो संयोग से मुझे यह नया मेसेज दिखा।
अपनी एक कविता पेस्ट कर रहा हूँ (सबके लिए, सिर्फ चुनींदा मित्रों के लिए नहीं):-

नाइन इलेवेन
वह दुनिया की सबसे ऊँची छत थी
वहाँ मैं एक औरत को बाँहों में थामे
उसके होंठ चूम रहा था
किसी बाल्मीकि ने पढ़ा नहीं श्लोक
जब तुम आए हमारा शिकार करने
हम अचानक ही गिरे जब वह छत हिली
एकबारगी मुझे लगा था कि किसी मर्द ने
ईर्ष्या से धकेल दिया है मुझे
मैं अपने सीने में साँस भर कर उठने को था
जब मैं गिरता ही चला
मेरे चारों ओर तुम्हारा धुँआ था

यह कविता की शुरुआत नहीं
यह कविता का अंत था
हमें बहुत देर तक मौका नहीं मिला
कि हम देखते कविता की वह हत्या
मेरी स्मृति से जल्द ही उतर गई थी वह औरत
जिसे मैं बहुत चाहता था
आखिरी क्षणों में मेरे होंठों पर था उसका स्वाद
जब तुम दे रहे थे अल्लाह को दुहाई

धुँआ फैल रहा था
सारा आकाश धुँआ धुँआ था
कितनी देर मुझे याद रहा कि मैं कौन हूँ
मैंने सोचा भी कि नहीं
कि मैं एक जिहाद का नाम हूँ
मेरे जल रहे होंठ
जिनमें जल चुकी थी
एक इंसान की चाहत
यह कहने के काबिल न थे
कि मैं किसी को ढूँढ रहा हूँ

वह दुनिया की सबसे ऊँची छत थी
मेरे जीते जी हुई ध्वस्त
मेरे बाद भी बची रह गई थी धरती
जिस पर जलने थे अभी और अनगिनत होंठ
या अल्लाह!
(प्रतिलिपि-२००९)


2 comments:

प्रदीप कांत said...

मैंने सोचा भी कि नहीं
कि मैं एक जिहाद का नाम हूँ
मेरे जल रहे होंठ
जिनमें जल चुकी थी
एक इंसान की चाहत
यह कहने के काबिल न थे
कि मैं किसी को ढूँढ रहा हूँ
___________________

11 September par is sashakt tareeke se bhi kavita likhi ja sakati hai... behatareen

संध्या नवोदिता said...

लाल्टू जी इतने नन्हे फॉण्ट में क्यों लिखते हैं... लेख लिखने से ज्यादा मेहनत तो हम लोगों को पढ़ने में करनी पड़ी है...
बहरहाल , आपका लेखन बहुत सामयिक और ज़रूरी है.आपकी कविताओं के तो खैर और लोगों की तरह हम भी मुरीद हैं.