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हिंसा

कला में क्या वाजिब है? हिंदी फिल्मों में अक्सर हिंसा को ग्लैमराइज़ किया जाता है, पर कृत्रिमता की वजह से उसमें कला कम होती है। पर हिंसा को कलात्मक ढंग से पेश किया जाए और देखने में वह बिल्कुल सच लगे तो क्या वह वाजिब है? मेरा मकसद सेंशरशिप को वाजिब ठहराने का नहीं है, मैं तो अभिव्यक्ति पर हर तरह के रोक के खिलाफ हूँ (बशर्ते वह स्पष्ट तौर पर किसी को नुकसान पहुँचाने के लिए न की गई हो)। पर यह एक पुरानी समझ है कि जब पेट भरा हो, तो चिताएँ अगले जून का भोजन ढूँढने की नहीं होतीं। रुप और कल्पना के ऐसे आयाम दिमाग पर हावी होते हैं, जो जीवन की आम सच्चाइयों से काहिल व्यक्ति को बकवास लगेंगे। हाल में १९९२ में बनी एक बेल्जियन फिल्म - मैन बाइट्स डॉग - देखी। बहुत ही सस्ते बजट में बनी इस फिल्म में एक साधारण सा दिखते आदमी पर 'mocumentary' या ब्लैक कामेडी बनाई गई। यह आदमी वैसे तो आम लोगों सा है, पर उसकी विशेषता यह है कि वह बिना वजह लोगों की हत्या करता है। हत्या करने में उसकी कुछ खासियतें हैं, जैसे वह बच्चों की हत्या उस तादाद में नहीं करता, जिस तादाद में बड़ों की करता है। उसे कविता का शौक है। वह भावुक और संवेदनशील है (स्पष्ट है कि हर किसी के लिए नहीं)। फिल्म में एक मोड़ ऐसा आता है कि क्रू का एक सदस्य किसी की गोली का शिकार हो जाता है।

शुरुआत में फिल्म के लिए पैसे नहीं थे, पर जैसे जैसे फिल्म बनती गई, पैसे जुटते गए (कहा जा सकता है कि फिल्म निर्माताओं को पेट की चिंता भी थी)। बहरहाल, मेरी समझ में नहीं आता कि कोई ऐसी फिल्म क्यों बनाना चाहता है। यह फिल्म बहुत पसंद की गई थी। ब्लर्ब में लिखा है कि जल्दी ही यह 'कल्ट' फिल्म का दर्जा अख्तियार कर चुकी थी।

चलो, यह भी सही।

मोहल्ला पर कनकलता मामले पर पोस्ट्स पढ़े। क्या कहा जाए - भारत महान! यह भी कि दिल्ली में घटना होती है तो देश भर को पता चलता है। सच यह है कि सारा देश अभी तक इस सड़न से मुक्त नहीं हुआ है। तीस साल पहले अमरीका में काले दोस्तों को मैं बतलाता था कि भारत में जातिगत भेदभाव कम हो रहा है और जल्दी ही खत्म होने वाला है। पर अब लगता नहीं कि यह अपने आप खत्म होने वाला है। हो सकता है दिल्ली के साथी इस पर एक राष्ट्रीय आंदोलन की शुरुआत कर सकें। अपूर्वानंद लंबे समय से बहुत अच्छा काम कर रहा है। इस बार भी इस मामले पर विस्तार से लिख कर उसने ज़रुरी काम किया है। इस मामले में जुड़े सभी साथियों से यही कहना है कि हम भी साथ हैं और यह लड़ाई रुकनी नहीं चाहिए। कनकलता मामले के दोषियों को (पुलिस के भ्रष्ट अधिकारियों समेत) सजा मिलनी चाहिए।

मार्टिन एमिस का उपन्यास 'अदर पीपल' पढ़ रहा हूँ। स्मृति खो चुकी एक लड़की की भटकी हुई ज़िंदगी में हो रही घटनाएँ। पिछले कुछ सालों से मेरे प्रिय समकालीन ब्रिटिश लेखकों में मार्टिन एमिस और हनीफ कुरेशी हैं। मार्टिन एमिस में भी हिंसा है, पर इस पर कभी और ....।

Comments

Ashok Pande said…
हनीफ़ क़ुरैशी तो मेरे भी प्रिय हैं.

बाक़ी आप की हरेक बार से शत प्रतिशत सहमति.
Ashish said…
लाल्टू,
आपने पिछली एक पोस्टिंग पर इलियट की पंक्तियों का ज़िक्र किया। हमें सुकून आपके ब्लॉग पर भी मिलता है। कोई तो सही दिशा में सोच रहा है।

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