बांग्लादेश की प्रख्यात लेखिका तसलीमा नसरीन पर कल हैदराबाद में पुस्तक लोकार्पण के दौरान कट्टरपंथियों ने हमला किया।
मैं उन सभी लोगों के साथ जो इस शर्मनाक घटना से आहत हुए हैं, इस बेहूदा हरकत की निंदा करता हूँ। जैसा कि तसलीमा ने खुद कहा है ये लोग भारत की बहुसंख्यक जनता का हिस्सा नहीं हैं, जो वैचारिक स्वाधीनता और विविधता का सम्मान करती है।
तसलीमा को मैं नहीं जानता। पर हर तरक्की पसंद इंसान की तरह मुझे उससे बहुत प्यार है। १९९५ में बांग्ला की 'देश' पत्रिका में तसलीमा की सोलह कविताएँ प्रकाशित हुईं थीं। उन्हें पढ़कर मैंने यह कविता लिखी थी, जो अभय दुबे संपादित 'समय चेतना' में प्रकाशित हुई थी।
निर्वासित औरत की कविताएँ पढ़कर
मैं हर वक्त कविताएँ नहीं लिख सकता
दुनिया में कई काम हैं कई सभाओं से लौटता हूँ
कई लोगों से बचने की कोशिश में थका हूँ
आज वैसे भी ठंड के बादल सिर पर गिरते रहे
पर पढ़ी कविताएँ तुम्हारी तस्लीमा
सोलह कविताएँ निर्वासित औरत की
तुम्हें कल्पना करता हूँ तुम्हारे लिखे देशों में
जैसे तुमने देखा खुद को एक से दूसरा देश लाँघते हुए
जैसे चूमा खुद को भीड़ में से आए कुछेक होंठों से
देखता हूँ तुम्हें तस्लीमा
पैंतीस का तुम्हारा शरीर
सोचता हूँ बार बार
कविता न लिख पाने की यातना में
ईर्ष्या अचंभा पता नहीं क्या क्या
मन में होता तुम्हें सोचकर
एक ही बात रहती निरंतर
चाहत तुम्हें प्यार करने की जीभर।
(१९९५; समय चेतना १९९६)
तसलीमा के ही शब्दों में - ऐसी घटनाएँ हमें अपने वैचारिक संघर्ष के प्रति और प्रतिबद्ध करती हैं, हम पोंगापंथियों के खिलाफ आजीवन लड़ते रहने के लिए दृढ़ हैं।
मैं उन सभी लोगों के साथ जो इस शर्मनाक घटना से आहत हुए हैं, इस बेहूदा हरकत की निंदा करता हूँ। जैसा कि तसलीमा ने खुद कहा है ये लोग भारत की बहुसंख्यक जनता का हिस्सा नहीं हैं, जो वैचारिक स्वाधीनता और विविधता का सम्मान करती है।
तसलीमा को मैं नहीं जानता। पर हर तरक्की पसंद इंसान की तरह मुझे उससे बहुत प्यार है। १९९५ में बांग्ला की 'देश' पत्रिका में तसलीमा की सोलह कविताएँ प्रकाशित हुईं थीं। उन्हें पढ़कर मैंने यह कविता लिखी थी, जो अभय दुबे संपादित 'समय चेतना' में प्रकाशित हुई थी।
निर्वासित औरत की कविताएँ पढ़कर
मैं हर वक्त कविताएँ नहीं लिख सकता
दुनिया में कई काम हैं कई सभाओं से लौटता हूँ
कई लोगों से बचने की कोशिश में थका हूँ
आज वैसे भी ठंड के बादल सिर पर गिरते रहे
पर पढ़ी कविताएँ तुम्हारी तस्लीमा
सोलह कविताएँ निर्वासित औरत की
तुम्हें कल्पना करता हूँ तुम्हारे लिखे देशों में
जैसे तुमने देखा खुद को एक से दूसरा देश लाँघते हुए
जैसे चूमा खुद को भीड़ में से आए कुछेक होंठों से
देखता हूँ तुम्हें तस्लीमा
पैंतीस का तुम्हारा शरीर
सोचता हूँ बार बार
कविता न लिख पाने की यातना में
ईर्ष्या अचंभा पता नहीं क्या क्या
मन में होता तुम्हें सोचकर
एक ही बात रहती निरंतर
चाहत तुम्हें प्यार करने की जीभर।
(१९९५; समय चेतना १९९६)
तसलीमा के ही शब्दों में - ऐसी घटनाएँ हमें अपने वैचारिक संघर्ष के प्रति और प्रतिबद्ध करती हैं, हम पोंगापंथियों के खिलाफ आजीवन लड़ते रहने के लिए दृढ़ हैं।
Comments
यदि वे कभी वे बहुसंख्यक हो जाएं तब भी हम विरोध में ही रहना पसंद करेंगे।
आइए हाथ उठाएं हम भी
जी नहीं. वे शातिर हैं. हद दर्जे के चतुर और चालबाज.
उन्हें पता है कि लोगों की भावनाओं को कैसे उकसाया जा सकता है और उससे वोट कैसे कबाड़े जा सकते हैं!
आलोक पुतुल, छत्तीसगढ़
alokputul@gmail.com