(5 नवंबर 2022 को राज्य संग्रहालय, भोपाल में 'होविशिका विज्ञान शृंखला' में दिया गया पहला व्याख्यान)
'होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम' व्याख्यानमाला में भागीदारी करते हुए मुझे खुशी है, पर साथ ढेर सारा संकोच
भी है। इस शहर में होविशिका के साथ वर्षों जुड़े रहे दिग्गज मौजूद हैं, जिन्होंने लगातार इसकी दशा और दिशा तय की
हैं। इनमें से ज्यादातर मुझसे वरिष्ठ हैं। जो मुझसे उम्र में कम हैं, उनके पास तजुर्बों का खजाना है और इन सबके सामने
मैं आज भी खुद को 28 साल का युवक महसूस करता हूँ, जो चंडीगढ़ से वाया दिल्ली और रतलाम उज्जैन पहुँचा है
और होविशिका प्रशिक्षण शिविर में शामिल होने आया है।
मैंने अपने उस्ताद के साथ और बाद में शागिर्दों के साथ जो रीसर्च का काम किया है, वह पारंपरिक ढंग के प्रयोगों का
नहीं, बल्कि कागज़, कलम और कंप्यूटरों पर किया सैद्धांतिक काम है। अक्सर अपने काम का औचित्य समझने/
समझाने के लिए औरों द्वारा किए प्रयोग, जिन्हें 'वेट लैब' कहते हैं, ऐसे काम के साथ संगति की कोशिश की है। कभी
वेट लैब में हुए काम को सैद्धांतिक जामा पहनाया है और कभी प्रयोग कर रहे साथी वैज्ञानिक की ग़लत समझ सुधारी
है। पर होविशिका पूरी तरह से कर के देखना यानी प्रयोगों पर आधारित था।
प्रेरणा के स्रोत
दिसंबर 1978 में कानपुर से मुंबई के रेल के सफर में अचानक बीच में कहीं गाड़ी में चढ़ गए अरविंद गुप्ता से किशोर
भारती के उनके तजुर्बे सुने थे और उन बातों का असर मुझ पर था। होविशिका के साथ जुड़ने की प्रेरणा प्रो० अनिल
सद्गोपाल के जनविज्ञान पर लिखे एक लेख से मिली थी, जो मैंने शोध-छात्र रहने के दौरान पढ़ा था। इसमें विज्ञान के
एक पहलू की बात थी जो हमें coneptual jumps यानी समझ के स्तर पर छलाँग लगाने की काबिलियत देता है,
कि हम किसी विषय में एक पहेली हल करने की महारत का इस्तेमाल किसी और विषय में सवाल हल करने के लिए
कर सकें। यानी कुदरत के विविध पहलुओं पर जानकारी इकट्ठा करना विज्ञान का मक़सद है, पर साथ ही यह हमें
ताकत देता है कि हम समाज के दीगर पहलुओं पर भी मानीख़ेज़ जानकारी पा सकें।
विज्ञान की आलोचना
बात शुरू करने के लिए मैं एक कविता की कुछ पंक्तियाँ पढ़ूँगा। कोई 25 साल पहले कैलिफोर्निया इंस्टीटिउट ऑफ
टेक्नोलोजी के जीओ-फिज़िक्स के एक प्रो० ऐंडरसन ने यह कविता लिखी थी। कविता कायनात की शुरूआत से आज
तक के लंबे सफर पर क्या समझ बनी है, उस पर है। यानी पहले कुछ भी नहीं था, देश-काल की कोई धारणा नहीं थी,
फिर बड़ा धमाका हुआ, खरबों सालों तक बने कण, अणु-परमाणु, फिर तारे और ग्रह, धरती पर जीवन, जीव-जंतु,
आदि आदि। आखिरी चार लाइनें हैं -
Look at Earth crust oceans air Life Cool!
a trivial speck, an afterthought But all we got.
So here we are, simple and meek,
Now how do we get through the rest of the week?1
देखो यह धरती इसकी परतें, समंदर, हवा, जीवन, है न बढ़िया!
महज धूल के कण सा, जैसे भूल से बन गया, यही है हमारे पास
हम, नादां और लाचार / अब कैसे गुज़ारें आगे के दिन चार?
सब कुछ जान लेने के बाद भी सवाल है कि हम अगले कुछ दिन कैसे गुजारें। जाने अनजाने ऐंडरसन हमें विज्ञान की
आलोचना की ओर ले जाते हैं।
होविशिका की शुरूआत के दिनों में न केवल विज्ञान की आलोचना पर समकालीन काम से परिचित हो पाना मुश्किल
था, दरअसल वैज्ञानिकों में ऐसी समझ भी कम ही थी कि विज्ञान की भी साहित्य या कला की तरह आलोचना हो
सकती है। पश्चिमी मुल्कों में लॉजिकल पॉज़िटिविज़्म, यानी आँखिन देखी और ज़हन में घोटी, जो आज भी अधिकतर
विज्ञान-कर्म की बुनियाद है, की चीरफाड़ हो रही थी। हमारे यहाँ संजीदा समझदार लोग, यह सब पढ़ रहे थे। एलीट
संस्थानों में विज्ञान पढ़ते हुए इस आलोचना से अछूता रहना नामुमकिन था और एक अधकचरी समझ इस बारे मेंं थी।
कह सकते हैं कि विज्ञान में आस्था का संकट था। कभी मैंने एक लेख लिखा था - the universality of
fundamental sciences, a third world perspective on the myth – बुनियादी साइंस की
आलमी पहचान, तीसरी दुनिया से प्रतिक्रिया। लेख छपा नहीं, उसमें फिलिस्तीनियों पर चल रहे इज़रायली हमलों का
जिक्र था, और जिस पत्रिका के लिए लिखा था, वहाँ यह छपना नामुमकिन था। वक्त के साथ विज्ञान में मेरी आस्था
बढ़ती रही, और आज पूरी तरह से विज्ञान में ही आस्था रखता हूँ। बराबरी, इंसाफ, प्रेम, अध्यात्म, तक़रीबन हर बात –
क्या विज्ञान से इतर है और क्या विज्ञान में शामिल है, यह समझ विज्ञान से ही मिलती है।
अक्सर हम विज्ञान और टेक्नोलोजी को गड्ड-मड्ड कर लेते हैं और टेकनोलोजी की आलोचना को ही विज्ञान की
आलोचना कह लेते हैं। टेकनोलोजी की आलोचना आसान है। हमारे कॉलेज के दिनों में कैट स्टीवेन्स का एक लोकप्रिय
गीत था -
Well, I think it's fine / Building jumbo planes
Or taking a ride on a cosmic train
Switch on summer from a slot machine
Yes, get what you want to if you want / 'Cause you can get anything
I know we've come a long way / We're changing day to day
But tell me, where do the children play?2
अच्छी बात है / जंबो जेट बना ले
अलौकिक रफ्तार से सफर कर ले
सिक्का डाल कर मशीन की ठंडी हवा खा ले
हाँ, जो जी चाहे ले ले / सब कुछ है तेरे हाथ
सही है कि बहुत आगे बढ़ आए हैं / हर दिन हम बदलते जाए हैं
पर यह बता, कि बच्चे कहाँ खेलें?
सादी सरल आलोचना। where do the children play? - यह सवाल आज और भी ज्यादा संजीदा बन चुका
है। विज्ञान और टेकनोलोजी का रिश्ता बड़ा जटिल है - एक सरलीकृत समझ है कि वैज्ञानिक खोज का व्यवहारिक
इस्तेमाल ही टेकनोलोजी है। दरअसल आज बहुत सारा विज्ञान टेक्नोलोजी की बुनियाद पर खड़ा है। कंप्यूटरों के बिना
आज विज्ञान-कर्म सोचा भी नहीं जा सकता है। लोगों के ज़हन में विज्ञान की अहमियत टेकनोलोजी के चमत्कारों से ही
बनती है, लिहाजा विज्ञान पर बात करते हुए टेकनोलोजी से बच पाना मुमकिन नहीं है।
संकट और समीक्षा
धरती को जैसा हम आज जानते हैं - जीव-जन्तु, आबोहवा, दो-तीन सदियों तक ऐसा ही रहेगा भी या नहीं, कहना
मुश्किल है। दो सदियों बाद हम किसी और मायने में ग़ालिब पढ़ रहे होंगे - ‘सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं/
अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है।' ये संकट विज्ञान और टेकनोलोजी के इस्तेमाल से ही आए हैं। ऐसे में विज्ञान के उन
मानदंडों की ओर फिर से देखने की ज़रूरत है, जिन पर होविशिका की बुनियाद खड़ी थी। चेतना के स्तर पर
तर्कशीलता को बढ़ाना, कुदरत के प्रति सचेत और उत्सुक होना, मान्य सिद्धांतों पर सवाल खड़े करना - ये आम
खासियत उनमें से कुछ हैं। 1988-89 में मैं यू जी सी टीचर फेलोशिप लेकर एकलव्य के हरदा केंद्र के साथ जुड़ा, तब
तक मध्य प्रदेश के कुछ जिलों में मिडिल स्कूलों में होविशिका के समांतर सामाजिक विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम शुरू हो
गया था और इसे बढ़ाया जा रहा था। इस दौरान देश में जन-विज्ञान आंदोलन की एक नई लहर खड़ी हो रही थी। यह
सब देश-काल और व्यवस्था की सीमाओं के अंदर रहकर होना था। आलोचना की नई खिड़कियाँ खुल रही थीं। अनिल
भाई से एक बात मैंने जानी थी कि पोषण पर दो अलग नज़रियों से जानकारी फैलाई जा सकती है। एक महज विज्ञान
को लोकप्रिय बनाने का नज़रिया है, जिसके मुताबिक ठोस जानकारी लोगों तक पहुँचाई जाए कि वे कैसा भोजन लें,
उसमें कितना कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, खनिज, विटामिन आदि हो; यह पाठ्य-पुस्तक किस्म की जानकारी है। दूसरा यह
कि न्यूनतम पोषण कैसा हो। पहला नज़रिया महज जानकारी है, जबकि दूसरा हमें मजबूर करता है कि हम पूछें कि हर
इंसान की न्यूनतम माली ज़रूरत कितनी है कि वह उचित पोषण पा सके। यानी हम समाज में गैरबराबरी और बड़े
तबके की बदहाली पर सोचते हैं। जन-विज्ञान हमेशा मान्यताओं पर सवाल खड़ा करता रहा है, पंजाब की तर्कशील
सोसायटी या महाराष्ट्र का लोक विज्ञान संगठना या केरल का शास्त्र साहित्य परिषद हो या तमाम साइंस क्लब जो देश
के अलग-अलग हिस्सों में चलते रहे हैं। करीब पचीस साल पहले मैंने जनसत्ता के चंडीगढ़ संस्करण में लिखे एक लेख
में यह प्रस्तावना रखी थी कि इन आंदोलनों पर समाज-शास्त्रीय अध्ययन किया जाना लाजिमी है। यानी हमलोग जो
कम या ज्यादा, अलग-अलग अवधियों तक इनसे जुड़े रहे हैं, हम कौन हैं, कहाँ से आए हैं, और हम कैसा नज़रिया
अपनाते हैं।
आज़ादखयाली में भी पूरी तरह आज़ाद नहीं
पिछली आधी सदी में समाज-विज्ञान के कई चिंतकों ने बार-बार कहा है, हमारा सामाजिक अतीत हर तरह के पाठ में
हमारे साथ रहता है। वह हमें लचीला होने से रोकता है। आज़ादखयाली में भी हम पूरी तरह आज़ाद नहीं हो पाते। हम
वही देखते हैं जो हमारी आस्था के अनुकूल होता है, वह नहीं देख पाते जो हमारे जज़्बात से टक्कर ले पाए। देरीदा का
प्रसिद्ध कथन है 'there is nothing outside the text’ – अगर मैं सामंती सरोकारों के साथ ही पला-बढ़ा हूँ,
तो मैं जो कुछ भी देखता-कहता-लिखता हूँ, उस पर मेरा अतीत हावी रहेगा।
मैंने साधारण हिन्दी माध्यम स्कूल से पढ़ाई की। स्कूल में विज्ञान नीरस ढंग से पढ़ाया जाता था। मेरी रुचि साहित्य और
गणित में थी। मुहल्ले के जानकार बड़े लोगों की सिफारिश और कुछ वजीफे की शर्त थी कि आगे की पढ़ाई अपने आप
तय हुई। मैं केमिस्ट्री में लगातार गणित की ओर झुकता रहा और बाद में मौका मिलते ही सैद्धांतिक शोध में आ गया।
ऊँची तालीम मुझे हिंदुस्तान या दुनिया के बेहतरीन संस्थानों से मिली, पर होविशिका से जुड़कर मैंने बहुत कुछ नया
सीखा।
होविशिका के आखिरी दौर में दुनिया कई मायने में लगातार छोटी होती जा रही थी। नब्बे के दशक में यूनिवर्सिटियों,
शोध संस्थानों में इंटरनेट आ चुका था। जब तक हैदराबाद में IIIT यानी देश की पहली सूचना टेकनोलोजी यूनिवर्सिटी
बनी, हमारे और पश्चिम के बौद्धिकों में ज़हनी छलाँगों की दूरियाँ कम हो चली थीं और हम एक अजीब
hyperreality का हिस्सा बन चुके थे, जिसमें अचानक सब कुछ मीडिया-तंत्र के हाथों तय होने लगा था। एक नारा
उछला कि इतिहास का अंत हो चुका है यानी हाल की सदियों में जो लोकतंत्र आधारित समाज और बराबरी के सपने
उभरे थे, उनकी जगह बड़े पैमाने की गैरबराबरी की बुनियाद पर खड़े सरमायादारी के सियासी ढाँचे ही अब हमारी
नियति है। अगले दो दशकों में झूठ को सच बनाकर पेश करने वाली फैक्ट्रियाँ हमारे चारों ओर हैं। होविशिका का
रुकना या खत्म होना एक बड़ी त्रासदी का हिस्सा था जो आलमी पैमाने पर हो रही थी। फिर भी सोचना लाजिमी है कि
हम इस पूरे दौर में कहाँ थे और हमने इस दौरान क्या कुछ किया?
विज्ञान से हम क्या समझते हैं
विज्ञान से हमारा मतलब हाल की सदियों में पश्चिमी मुल्कों में तेज़ी से आए बदलावों से होता है, जिनमें खास किस्म का
दार्शनिक चिंतन भी शामिल है। यह सोच अचानक नहीं टपकी; चीन, दक्षिण एशिया, ईरान, ईराक आदि में सदियों से
जो वैज्ञानिक और दार्शनिक चिंतन विकसित हुआ, उसके साथ आधुनिक विज्ञान का गहरा संबंध है, फिर भी विज्ञान
को जिन खासियतों से आज हम जानते हैं, और इसमें कोई आखिरी फैसला अभी तक बन हो पाया है - ये बातें हाल
की सदियों में पश्चिम में ही गहराई से सोची गईं।
देश-काल के पैमानों में विज्ञान के विषयों की व्यापकता हमें हैरान और अभिभूत करती है। परमाणु की नाभि में मौजूद
सूक्ष्मतम कणों से लेकर कायनात के दोनों छोरों तक की जानकारी इकट्ठी करना प्रकृति-विज्ञान (natural
sciences) है। कायनात की शुरुआत के बड़े धमाके से लेकर अभी तक को साल भर के कैलेंडर में समेटा जाए तो
इंसानी सभ्यता के लिए आखिरी पंद्रह मिनट ही बनते हैं। यानी अगर पहली जनवरी की शुरूआत (आधी रात) में
कायनात बनती है तो मानव सभ्यता 31 दिसंबर को रात 11 बज कर पैंतालीस मिनट पर सामने आती है। आम तजुर्बें
में बहुत तेजी से हो रही घटनाएँ भी 1 सेकंड में हजार बार से ज्यादा नहीं होतीं। विज्ञान में पल भर में खरबों-खरबों बार
हो रही घटनाओं पर भी प्रयोग होते हैं। नहीं के बराबर ऊर्जा से लेकर सारी कायनात में व्याप्त ऊर्जा से जुड़ी घटनाओं
को जाना-परखा जाता है। विज्ञान हमें यह बताता है कि इस विशाल कायनात में हमारा अस्तित्व नहीं के बराबर है।
साथ ही विज्ञान हमें यह साहस देता है कि हम हर मान्यता पर सवाल खड़ा कर सकें। इस वजह से सही-ग़लत धारणा
बनी है कि यही इल्म का सबसे ऊँचा दर्जा है।
कुदरत के रंग अनोखे हैं। इसलिए इसे जानने की चाह हर इंसान में है। हर खित्ते में हर पैमाने पर अनोखे रूप दिखते हैं।
गुरुत्वाकर्षण और कभी-कभी विद्युत-चुंबकीय आकर्षण से बने पिंड, जैसे धूमकेतु, ग्रह-उपग्रह, तारे, तारामंडल,
नीहारिका आदि हैं, इस खगोली विशालता की तुलना में बहुत छोटे पैमाने पर धरती की सतह पर कई किस्म की
रचनाएँ हैं। वैज्ञानिक इनको अलग-अलग वर्गों में बाँटकर इनका अध्ययन करते हैं। वर्गीकरण सिखाने की अहमियत
होविशिका पाठ्य-क्रम में थी। जीव जगत में भी वर्गीकरण बुनियादी बात है। जीव-जगत से सूक्ष्मतर किसी पौधे या
प्राणी की कोशिकाओं में विविधताएँ देख सकते हैं। उससेे भी आगे अणु-परमाणु-नाभि में विविध प्रकार की रचनाएँ हैं।
कायनात की शुरूआत से आज तक, कणों से लेकर ग्रह-तारे तक के सफर को भी अलग युगों में बाँटकर अध्ययन
किया जाता है। जैविक विकास और धरती की परतों में वक्त के साथ बदलाव को अलग-अलग युगों में बाँटकर देखा
जाता है। पिछले तक़रीबन दस हजार सालों से हम होलोसीन युग में हैं। इंसानी घुसपैठ से आ रहे बड़े बदलावों की
वजह से कहा जाता है कि पिछले सत्तर सालों से हम ऐंथ्रोपोसीन युग में आ गए हैं (ऐंथ्रोपोस यानी इंसान)।
मानविकी विज्ञान से कमतर नहीं है
उन्नीसवीं सदी के आखिर तक यूरोप में तेजी से हुई औद्योगिक तरक्की का सेहरा विज्ञान के माथे पर था। कई विचारकों
ने कहना शुरू किया कि समाज, राजनैतिक और प्रशासनिक ढाँचे विज्ञान पर आधारित होने चाहिए। कुदरत के सच
इंसान की वजूद से आज़ाद हैं, इसलिए मान लिया गया कि वैज्ञानिक पूर्वाग्रहों से आज़ाद होकर काम करते हैं।
जब कुदरत से हटकर समाज को देखते हैं तो जाहिर होता है कि सच क्या है यह जानना आसान नहीं है। जो दिखता है
वह इस पर निर्भर करता है कि देखने वाला कौन है, किस समाज, वर्ग, जाति, धर्म, जेंडर का है। ज़बान, एहसास,
तर्कशीलता और जज़्बात से हमें सच की तलाश में मदद मिलती है, पर हर वह बात जिसे हम सच मानते हैं, सचमुच
सत्य हो, कोई ज़रूरी नहीं। ज्ञान पाने के दीगर तरीकों के बनिस्बत विज्ञान के जरिए हम सत्य के और ज्यादा करीब जा
सकते हैं, ऐसा हम मानते हैं। ज्ञान की निश्चितता पर सवाल उठते हैं तो जाहिर है कि विज्ञान पर भी सवाल उठेंगे।
विज्ञान से हमारा मतलब ऐसे बौद्धिक औजार, तरीके और जानकारियों से है, जिनका इस्तेमाल वैज्ञानिक करते हैं।
समाज-विज्ञान में इंसानी फितरत को समझने के लिए, 1 मि. मी. से लेकर धरती से चाँद या सूरज की दूरी तक काफी
हैं, और वक्त का पैमाना भी एक पल से लेकर कुछ करोड़ सालों से ज्यादा नहीं चाहिए। पर इंसानी फितरत की
जटिलताएँ इतनी हैं कि ज्ञान की विधाओं में समाज विज्ञान या मानविकी किसी मायने में कुदरत के विज्ञान से कम नहीं
हैं। फिर भी हम बचपन से सुनते आए हैं कि यह विज्ञान का युग है।
अदब और कला में अक्सर विज्ञान और टेकनोलोजी को लेकर गहरी चिंताएँ रखी गई हैं। 1818 में मेरी शेली का
फ्रांकेन्स्टाइन, 1886 में रॉबर्ट लुइस स्टीवेन्सन का डॉ० जेकिल ऐंड मिस्टर हाइड, 1896 में एच जी वेल्स का द
आइलैंड ऑफ डॉ० मोरो, बीसवीं सदी में आल्डस हक्सले का द ब्रेव न्यू वर्ल्ड, पीटर जॉर्ज का रेड अलर्ट , जिस पर डॉ०
स्ट्रेंजलव फिल्म बनी थी - उपन्यासों और फिल्मों में वैज्ञानिकों की छवि अकसर तानाशाही प्रवृत्ति की दिखाई गई है,
जो दुनिया को तबाही के राह पर ले जा रहे हैं। करीब 11 साल पहले यूरोप में आइसलैंड में एक ज्वालामुखी के
विस्फोट की वजह से धुँआ फैलने से कई देशों में हफ्ते भर हवाई उड़ानें बंद कर दी गई थीं। स्लावोए ज़िज़ेक ने इसे एक
चेतावनी की तरह समझाया कि याद रखें कि इंसान धरती पर अनगिनत प्राणियों में से महज एक है। इन सभी
आलोचनाओं से अलग कुछ बुनियादी चिंताएँ हैं, जिन पर मैं बात रखना चाहता हूँ। पहले हम संक्षेप में यह समझें कि
दरअसल वैज्ञानिक पद्धति क्या होती है।
वैज्ञानिक पद्धति
वैज्ञानिक पद्धति में खास तरह की तर्क संरचनाओं का इस्तेमाल होता है। होविशिका में कर के देखने पर पूरा ज़ोर डाला
गया था, जो मूलत: इंडक्शन या अनुगमन पर आधारित था। कुछ व्यावहारिक और कुछ दार्शनिक खासियतें हैं, जो
पद्धति के रूप में ज्ञान पाने के दूसरे तरीकों से विज्ञान को अलग करती हैं।
- व्यावहारिक स्तर पर विज्ञान में उन्हीं सवालों पर खोजबीन होती है, जो कुदरत में हैं।
किसी भी घटना पर अवलोकनों को दर्ज़ कर उस पर अनुमान लगाए जाते हैं।
- जाँच के द्वारा मिले आँकड़ों के मुताबिक किसी अनुमान को स्वीकार या खारिज किया जाता है।
- लगातार प्रयोगों में मिले नतीजों से हम कुदरती क़ायदे जान सकते हैं।
की बनी है, और ये कण एक दूसरे से अलग विचरते हैं, इस धारणा को वैज्ञानिक सिद्धांत बनने में तक़रीबन दो हजार
साल लगे। परमाणु में नाभि और नाभि के बाहर क्या कुछ है, इसकी साफ समझ सौ साल पहले ही बनी।
सिर्फ गुणात्मक नहीं, परिमाणात्मक आँकड़े चाहिए। मानविकी में हमेशा परिमाण या मात्रा की बात नहीं करते। कविता
या कला की खूबसूरती का कोई पैमाना नहीं हो सकता। विज्ञान में जिन राशियों को मापा जाता है, उन पर नियंत्रण
होना भी लाजिम है। अगर तापमान में बदलाव किया जाए तो इसका असर देखते हुए साथ में किसी और राशि में
बदलाव नहीं हो सकता। इसी तरह कोई दवा कारगर है या नहीं, इसके लिए एक ही मर्ज़ के अलग-अलग रोगियों को
असली दवा और वैसा ही दिखता कुछ और देकर, देखा जाता है कि दवा के असर में फ़र्क है या नहीं। अगर फ़र्क नहीं
है, तो दवा कारगर नहीं है।
दार्शनिक पहलू : अब हम कुछ दार्शनिक पहलुओं पर बात करेंगे। पहले दो बातें इतिहास और समाज-शास्त्र पर।
यूरोप में प्रबोधन और आधुनिक विज्ञान का उभार तक़रीबन एक ही समय हुआ। आधुनिकता और विज्ञान को अक्सर
एक दूसरे का पर्याय मान लिया गया। नवजागरण ने सत्य के सार्वभौमिक सिद्धांतों पर विश्वास पैदा किया था। इसके
उलट उत्तरआधुनिक चिंतक स्थानीय परंपराओं को स्वीकार करते हैं, जो चाहे पूरी तरह तर्क आधारित हो या न हों।
प्रबोधन ने कायनात में इंसान को स्वच्छंद अस्तित्व दिया। वह कुदरत का होकर भी कुदरत से अलग हो पाया।
औद्योगिक विकास की रफ्तार के साथ इंसान ने कुदरत को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने के गुर बढ़ाए। हम,
कुदरत, और कुदरत के साथ हमारे रिश्ते को लेकर सार्वभौमिक नियमों की तलाश और प्रस्तावना हुई। उन्नीसवीं सदी
तक यह बात कुदरत से आगे इंसान के बनाए समाज तक आ गई। बीसवीं सदी में मेर्टन ने विज्ञान के समाजशास्त्र की
प्रस्तावना रखी, जिसमें विज्ञान को सामुदायिक, सार्वभौमिक, उदासीन, संगठित जिज्ञासा का शास्त्र कहा गया। फिर
जल्दी ही विज्ञान की निरपेक्षता और समाज में वैज्ञानिकों के रुतबे को चुनौती भी मिली। सार्वभौमिक आख्यानों की
धारणा पर सवाल उठे। यूरोकेंद्रिक सोच और यूरोपी मुल्कों द्वारा उपनिवेशों की बेइंतहा लूट पर सवाल उठे। सदी के
बीचोबीच तक नाभिकीय बम-विस्फोट या उद्योगों के कारण पर्यावरण का विनाश बढ़ता चला था, ओज़ोन परत में छेद
और मौसम का गर्म होते रहना जाहिर हो रहा था। विज्ञान की दुनिया में सब कुछ ठीक नहीं था, पर ज्यादातर आलोचना
का संबंध सामाजिक-राजनैतिक ढाँचों से अधिक और खालिस विज्ञान से कम था। मसलन विज्ञान के पेशे में आजतक
स्त्रियों की मौजूदगी बहुत कम है। पर क्या ये समस्याएँ विज्ञान की हैं, जो ज्ञान पाने का एक साधन है या उस पेशे की
हैं, जो वैज्ञानिक कहलाता है, या बृहत्तर समाज की हैं, यह सवाल है।
बीसवीं सदी की शुरूआत में दार्शनिकों में पुरजोर बहस जारी थी कि विज्ञान क्या है। लॉजिकल पॉज़िटिविज़म या तर्क
आधारित प्रत्यक्ष ज्ञान ही श्रेष्ठ है, यह धारणा बढ़ रही थी। सूक्ष्म और स्थूल, हर स्तर पर हमेशा प्रत्यक्ष तजुर्बा
नामुमकिन है, इसलिए सीमित तजुर्बों को गणित और तर्क में बाँध कर सैद्धांतिक समझ बनाना ज़रूरी है। सौ साल
पहले बात यहीं तक थी, पर पिछली सदी में विज्ञान के दर्शन में लगातार बहसें चलती रहीं। इस पर विषद चर्चा यहाँ
मुमकिन नहीं है, दो-एक बातें रख रहा हूँ। छठे दशक तक यह मान लिया गया था कि विज्ञान ज्ञान पाने का एक अनोखा
तरीका है, जो देश-काल या सामाजिक-ऐतिहासिक हालात पर निर्भर नहीं करता है। थॉमस कुन ने 1962 में 'स्ट्रक्चर
ऑफ साइंटिफिक रीवोल्यूशन्स (विज्ञान के इन्कलाबों की संरचना)' नामक किताब लिखी, जिससे विज्ञान के
सामाजिक पहलुओं और दर्शन का अध्ययन करने वालों में तहलका मच गया। कुन ने वैज्ञानिक खोजों के इतिहास को
गहराई से देखा। उसने दिखाया कि ज्यादातर वैज्ञानिक अपने वक्त के मान्य सिद्धांतों के दायरे में ही काम करते हैं। ऐसे
विज्ञान-कर्म को कुन ने नॉर्मल साइंस और मान्य सिद्धांतों को पैराडाइम कहा। कभी-कभार कोई वैज्ञानिक खोज ऐसी
होती है जो मान्य सिद्धांतों के मुताबिक समझ में नहीं आती। यह ऐनोमली है। जब ऐसी कई सारी ऐनोमली इकट्ठी हो
जाती हैं तो नए सिद्धांत गढ़े जाते हैं। यह पैराडाइम शिफ्ट कहलाता है। पैराडाइम शिफ्ट के साथ विज्ञान में ढाँचागत
इंकलाब आते हैं। सूर्य-केंद्रिक ग्रह-मंडल, परमाणुओं से पदार्थ की संरचना, जैविक विकास का सिद्धांत, क्वांटम
गतिकी आदि ऐसे इंकलाब की मिसाल हैं।
पैराडाइम का सिद्धांत और विज्ञान की आलोचना
पैराडाइम के सिद्धांत ने विज्ञान के आलोचकों को खुली छूट दे दी। चौतरफा हमला शुरू हुआ कि विज्ञान सामाजिक-
राजनैतिक प्रभावों से मुक्त नहीं है। दूसरे विश्व-युद्ध में हिरोशिमा-नागासाकी और बाद में अमेरिका और रूस के बीच
शीतयुद्ध से यूरोप में फैले ख़ौफ़ के माहौल, और पर्यावरणके विनाश जैसी आधुनिक जीवन की तमाम दीगर मुश्किलों
की वजह से इस आलोचना को ताकत मिली।
ज्ञान-विज्ञान की सभी बातों की मुख्य समस्या यह है कि हम मान रहे हैं कि जो कुछ देखा-जाना जाता है उसे हम अपने
से अलग कर सकते हैं। यह विवादास्पद है। दृश्य में द्रष्टा के शामिल होने की समस्या ज्ञान पाने में सबसे बड़ी बाधा है।
प्रकृति विज्ञान में एक हद तक इससे बचा जा सकता है, क्योंकि हम खुद प्रयोगों के आँकड़े दर्ज़ न कर मशीनों का
इस्तेमाल कर सकते हैं। मानविकी में इससे निजात नामुमकिन है। हर नतीजे पर पहुँचने पहले जिज्ञासु की पहचान
करनी ज़रूरी है। विज्ञान में भी सूक्ष्म स्तर पर यानी अणु-परमाणुओं के गुणधर्मों पर द्रष्टा का प्रभाव पड़ता है। आम
वैज्ञानिक खोजों में यह प्रभाव नहीं दिखता है, जबकि समाज विज्ञान में आम तौर पर खोज करने वाले की पहचान शोध
के नतीजे में दिखती है। विज्ञान में प्रयोगों के चयन और आंकड़ों के विश्लेषण में पूर्वाग्रह हो सकते हैं, इसलिए अलग-
अलग लोगों द्वारा अलग-अलग जगह पर अलग-अलग समय पर जाँच ज़रूरी हो जाती है। इसके बावजूद यह कहना
सही नहीं है कि वैज्ञानिक नतीजे पूर्वाग्रहों से मुक्त होते हैं। विज्ञान पढ़ाना, पाठ-चर्या तय करना, यह सब सामाजिक
पूर्वाग्रहों से आज़ाद नहीं होते।
आदर्श भाषा गणित
विज्ञान की भाषा कैसी हो? : सिद्धांत तक पहुँचने के लिए गणित के जरिए अमूर्त विवरण ज़रूरी है। जब तक हमें
भाषा नहीं आती, अमूर्तन जटिल है, जैसे आधुनिक कला या साहित्य उनकी समझ से परे हैं, जो इसकी भाषा नहीं
समझते। जटिलता को सहज बनाने के लिए अमूर्तन ज़रूरी है। मनोविज्ञान और मानव-शास्त्र जैसे विषयों में हमेशा
गणितीय विवरण मुमकिन नहीं है, पर आदर्श भाषा गणित की ही है। पिछली सदी से बहुत सारा काम सैद्धांतिक या \
गणना का हो रहा है और इनसे मिले नतीजों का प्रयोगों में इस्तेमाल हो रहा है। गणित विज्ञान की भाषा है। साहित्य
और कला में, अमूर्तन अनेकार्थी होता है, पर विज्ञान में गणित का इस्तेमाल स्पष्ट मायनों के लिए किया जाता है।
अक्सर बड़े सवालों को सहज और सुंदर ढंग से गणित की भाषा में कहा जाता है। चूँकि हर कहीं गणित की पढ़ाई उम्दा
सतर की नहीं होती, इस वजह से विज्ञान का एक एलीट स्वरूप दिखता है। जाहिर है कि गैरबराबरी वाले समाज में यह
बड़ी समस्या हो जाती है। होविशिका के समांतर, समाज-विज्ञान की तालीम का कार्यक्रम शुरू हुआ था, पर गणित पर
कोई पहल न ली गई, यह सवाल रह जाता है।
विज्ञान के मॉडल और उनकी आलोचना
गणित के इस्तेमाल की एक मिसाल लेते हुए बात आगे बढ़ाते हैं।
कुदरत के जटिल खेल को सीमित दायरों में घेरकर टुकड़ों में मॉडल बनाना आधुनिक विज्ञान की नींव है। सरलीकरण
विज्ञान की ताकत भी है और सीमा भी है। जटिल को समझने के लिए टुकड़ों में देखना एक औजार ज़रूर है, पर यह
मीमांसा का एक पक्ष है, कहानी यहाँ खत्म नहीं होती है। मसलन हम पारिस्थिक संतुलन को समझने के लिए पूरे जीव-
जगत का मॉडल बनाने की कोशिश करें तो कभी सफल नहीं हो पाएँगे। एक छोटा मॉडल दो जानवरों का हो सकता है,
जैसे लोमड़ी और खरगोश। 1921 में लोटका ने इस तरह का मॉडल बनाया। इसे प्रे-प्रीडेटर (शिकार-शिकारी) मॉडल
कहा जाता है। बहुत सारी लोमड़ियाँ हों या बहुत कम खरगोश हों तो दोनों जानवर जल्दी ही खत्म हो जाएँगे। अगर
दोनों अच्छी तादाद में हों तो एक संतुलित स्थिति बनती है। इस मॉडल के आधार पर चित्र बनाए जाते हैं। वैज्ञानिक इन
चित्रों में आकार (ज्यामिति) देखता है, उन्हें अलजेबरा से समझता है। फिर वह राशियों में बदलाव को समझता
है, जिसके लिए कैलकुलस का गणित है। अगर राशियों में संयोग का पुट भी हो तो स्टैटिस्टिक्स यानी सांख्यिकी
का इस्तेमाल करना होगा। संयोग से बचें तो आज कंप्यूटर पर यह गणना तक़रीबन एक सेकंड में की जा सकती है। इस
एक सेकंड में मिले आँकड़ों से हम कुदरत में जीव-जगत में संतुलन को समझने की शुरूआत करते हैं। जटिल को
समझने की शुरूआत सहज मॉडल के जरिए करना इंसान की फितरत है। जैसे-जैसे हम सरल से जटिल की ओर बढ़ते
हैं, गणना मुश्किल होती जाती है। एक अच्छा वैज्ञानिक इस बात को जानता है और अपने काम पर बात करते हुए वह
पहले अपनी पूर्व-धारणाओं को बतलाता है। इंसान की सामान्य सोच भी कुदरती तौर पर ऐसी ही होती है। इसलिए
जिन्हें लगता है कि जटिल को सहज संरचना में देखना मात्र ही विज्ञान है, वे वैज्ञानिक पद्धति को बिना जाने ही अनुमान
लगा रहे होते हैं।
मॉडल बनाना विज्ञान का महत्वपूर्ण अंग है। भारत में कोरोना की बीमारी के आँकड़ों को देख सकते हैं। तरह-तरह के
मॉडल सामने आए और इनके जरिए यह देखा गया कि लॉक-डाउन होने या न होने से क्या कुछ हो सकता है। ये
वैज्ञानिक पद्धति के इस्तेमाल की बेहतरीन मिसाल थीं। इनके पीछे जो सोच है, उसे अक्सर वैज्ञानिक सोच कहते हैं।
वैज्ञानिक सोच
क्या वैज्ञानिक सोच या दृष्टि हमें अनुमान, अवलोकन, कुदरत के नियम से सिद्धांतों तक की यात्रा पर ले चलती है?
वैज्ञानिक सोच के बिना हम इस यात्रा में आगे नहीं बढ़ सकते, पर सोच ही पद्धति नहीं है। वैज्ञानिक खोज की प्रवृत्ति
बुनियादी इंसानी फितरत है, पर कोई सिद्धांत तभी वैज्ञानिक कहलाता है, जब वह उन विशेषताओं पर खरा उतरे, जो
वैज्ञानिक पद्धति के साथ जुड़ी हैं। दूसरी ओर यह भी होता है कि कोई अपने काम में सटीक वैज्ञानिक पद्धति का
इस्तेमाल कर रहा है, पर वह वैज्ञानिक सोच को नहीं अपना पाया है। भारतीय वैज्ञानिकों में यह आम बात है। इसलिए
उच्च-स्तरीय प्रशिक्षण और भरपूर सुविधाओं के बावजूद हमारा काम अक्सर पश्चिम में हो रहे शोध की नकल मात्र रह
गया है। हमारे सामाजिक-राजनैतिक विचारों में पिछड़ापन भी इसी वजह से है।
आलोचना के कुछ और अहम बिंदु
इन सबसे अलग कुछ बातें ऐसी हैं जो विज्ञान की संरचना से जुड़ी हैं। जैसे प्रयोग करते हुए किसी वस्तु या प्राणी से
छेड़छाड़ किस हद तक हो, इसकी सीमा क्या हो। जीनोमिक्स-डी-एन-ए-टेक्नोलोजी और नाभिकीय विकरण आदि पर
शोध के खतरनाक नतीजे हो सकते हैं। पेशेवर वैज्ञानिकों ने अपने लिए नैतिक मानदंड बनाए हैं, और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय
स्तर के कानून हैं, जो जंतुओं पर हिंसा या किसी भी नुकसानदेह शोध पर रोक लगाते हैं। ये कानून किस हद तक लागू
हों, यह स्थानीय लोगों पर निर्भर करता है। शोध के सवालों के चयन को लेकर भी समस्याएँ हैं। विज्ञान में सामुदायिक
स्वीकृति अहम है, इसलिए उन सवालों पर ज्यादा काम होता है, जिन्हें पश्चिमी मुल्कों के वैज्ञानिक अहमियत देते हैं।
भारत में पचास साल पहले कैंसर की बीमारी पैसे वालों और यक्ष्मा ग़रीबों की बीमारी थी, पर शोध का ज्यादातर काम
कैंसर पर ही हो रहा था। प्रजनन और जन्म-निरोध पर स्त्रियों के साथ खतरनाक प्रयोग किए गए, जबकि पुरुष के
जननांग जिस्म के बाहरी ओर होने से उन पर प्रयोग कहीं ज्यादा आसान होता।
स्त्रीवादी आलोचना
गंभीर स्त्रीवादी आलोचना पेशे में प्रतिनिधित्व के सवाल से आगे जाती है। शोध में सवालों के चयन और विज्ञान की
भाषा आदि को लेकर सवाल उठाए जाते हैं। 1988 में Hypatia पत्रिका में Biology and Gender Study
Group की ओर से आए एक लेख3 में कहा गया : “Biology is seen not merely as a privileged
oppressor of women but as a co-victim of masculinist social assumption. We see
feminist critique as one of the normative controls that any scientist must
perform whenever analysing data ... Narratives of fertilisation and sex-
determination traditionally have been modeled on the cultural patterns of
male/female interaction, leading to gender associations being placed on cells
and their components...“… masculinist assumptions have impoverished biology
by causing us to focus on certain problems to the exclusion of others, and they
have led us to make particular interpretations when equally valid alternatives
were available.”
”बायोलोजी में महज स्त्रियों की प्रताड़णा की खासियत ही है, ऐसा नहीं, बल्कि यह विषय पुरुष-प्रधान सामाजिक
मान्यताओं का शिकार होने में भी भागीदार है। हर वैज्ञानिक को आँकड़ों का विश्लेषण करते हुए स्त्रीवादी आलोचना
को एक शर्त की तरह ध्यान में रखना चाहिए। … पारंपरिक रूप से निषेचन और लिंग-जाँच के मॉडल स्त्रीऔर पुरुष के
बीच सांस्कृतिक टकराव के आधार पर बने हैं, जिसकी वजह से कोशिकाओं और उनके अंदर के हिस्सों पर भी जेंडर
की खासियत चस्पा कर दी गई है। ...पुरुषप्रधान मान्यताओं की वजह से जीव-विज्ञान को यह नुकसान हुआ है कि हम
कुछ सवालों को छोड़कर कुछ पर गौर करते हैं, जिनसे खास किस्म के निचोड़ निकाले गए हैं, जब कि इतनी ही सही
कुछ और वैकल्पिक समझ भी बन सकती थी।
स्त्रीवादी आलोचना यह आग्रह रखती है कि वैज्ञानिक प्रयोगों को करते हुए जेंडर से जुड़े पूर्वाग्रहों पर सोचना और उनसे
बचना या उनसे निजात पाना बा-क़ायदे ज़रूरी है, यानी इसे experimental control (प्रायोगिक नियंत्रण की
शर्त) मानना ज़रूरी है। मसलन यह आम सोच है कि प्रजनन में पुरुष के लाखों शुक्राणुओं में से कोई एक-दो स्त्री के
गर्भाशय की नाल में अंडाणु को निषेचित (fertilise) करते हैं। इसका वैकल्पिक विवरण यह हो सकता है कि स्त्री के
गर्भाशय में अंडाणु किसी एक-दो शुक्राणु को स्वीकार करता है। भाषा सत्ता समीकरण को बदल देती है। पुरुषप्रधान
वैज्ञानिक समुदाय में पितृसत्ता हावी रहेगी, इसमें अचरज नहीं है। विज्ञान से मूल्य-निरपेक्ष होने की तवक़्क़ो है, जो
मुमकिन नहीं लगती।
बात सिर्फ जेंडर की नहीं
मैंने इन बातों को गहराई से नहीं पढ़ा है, पर सतह से नीचे जाने की कोशिश की है। बात सिर्फ जेंडर की नहीं, बल्कि हर
तरह के पूर्वाग्रहों के लिए यह सोचना ज़रूरी है। कुदरत के सच ढूँढते हुए हम दरअसल अपने सच उजागर कर रहे होते
हैं। सत्य की तलाश में हर तरह की सामाजिक पहचान के साथ लोहा लेना होगा। तो सवाल यह है कि क्या विज्ञान पढ़ने
पढ़ाने में कुदरत के क़ायदों के अलावा सामाजिक क़ायदों पर भी सवाल उठाने हैं। यानी प्रकृति-विज्ञान और समाज-
विज्ञान को एक दूसरे से अलग नहीं कर सकते। इस प्रसंग में चुनिंदा दो बातें रख रहा हूँ जो बेचैनी की सबब रही हैं।
भाषा का मुद्दा
एक बात जो बहुत पहले ही साफ दिखने लगी थी वह भाषा से जुड़ी थी। होविशिका की किताबों, यानी बाल-वैज्ञानिक,
में भाषा को आसान रखने की पूरी कोशिश थी, पर हिन्दी में लिखी विज्ञान की दीगर किताबों में विज्ञान की भाषा
जटिल थी और आज भी है। शायद 1988 में मैंने ज्ञानरंजन को लिखा कि हिन्दी में विज्ञान-लेखन हिन्दीभाषियों के
खिलाफ षड़यंत्र है। इसके बाद जब भी मौका मिला है, लगातार इस बारे में मैं कहता रहा हूँ। होविशिका में काम कर
रहे साथियों के साथ भी चर्चाएँ हुई हैं। यह माँग कि विज्ञान की एक मानक शब्दावली होनी चाहिए - यह बात मुझे तंग
करती रही है। इसके पीछे समझ यह है कि यूरोपी ज़बानों में विज्ञान की तरक्की के साथ मानक भाषा बनती चली थी।
यह बात सच है, पर एक तरह का अर्द्ध-सत्य है। नवजागरण में पहला हमला भाषा पर हुआ था। धर्म और दर्शन की
किताबों को जनता की भाषा में लिखने की माँग थी। गौर कीजिए कि हमारे यहाँ भी भक्ति आंदोलन पंडितों की भाषा
में नहीं हुआ था - फरीद, वासवन्ना से लेकर कबीर, नानक, लालन तक यह हमेशा ही जनता की भाषा में हुआ था।
पश्चिम में विज्ञान की भाषा लगातार सरल और सहज होती रही है। इसके उलट हमारे यहाँ पिछले डेढ़ सौ सालों में
कृत्रिम संस्कृतनिष्ठ शब्दावली गढ़ी गई।
पिछली सदी के बड़े वैज्ञानिकों में से एक रिचर्ड फाइनमैन ने छोटे बच्चों को विज्ञान सिखाने की भाषा के मुद्दे पर कहा है
कि शब्द सीखना ज़रूरी है, पर पहले हमें विज्ञान सीखना है। चाभी घुमाने पर खिलौना क्यों चलता है, इसके जवाब में
'एनर्जी' शब्द पर प्रतिक्रिया देते हुए वे कहते हैं कि आप तो यह कह दो कि खुदा खिलौना चला रहा है। हिंदुस्तानी
ज़बानों में विज्ञान की शब्दावली को आप मजाक कह सकते हैं या एक ख़ौफ़नाक सपना। किसी ज़बान को क़त्ल करने
का इससे बेहतर कोई तरीका नहीं हो सकता है। मेरी सीमित समझ यह है कि विज्ञान पढ़ाते हुए हमें अपनी तमाम
ज़िंदा ज़बानों में मौजूद तकनीकी शब्दावली को वापस ढूँढ लाना साथ-साथ करना होगा।
आलोचनात्मक सोच ?
दूसरी बेचैनी यह सवाल है कि विज्ञान की पढ़ाई से आलोचनात्मक सोच किस हद तक बढ़ी है। मसलन मेर्टन के
विवरण मुताबिक सार्वभौमिकता की कोई समझ हममें बनी है क्या? भारतीय मूल के किसी अमेरिकन वैज्ञानिक की
कामयाबी पर हम उसके विज्ञान पर कम और उसके भारतीय मूल के होने पर ज्यादा शोर मचाते हैं। दक्षिण एशिया में
देश और परंपरा के नाम पर हमें कोई भी बहका सकता है। देशभक्ति के नाम पर सियासी लुटेरे जो कहर बरपा रहे हैं,
क्या विज्ञान का इससे कोई लेना-देना नहीं है? देश और देशभक्ति पर पंजाबी के दलित कवि लाल सिंह दिल की कविता
'मातृभूमि' याद आती है -
प्यार का भी कोई कारण होता है?
महक की कोई जड़ होती है?
सच का हो न हो मकसद कोई
झूठ कभी बेमकसद नहीं होता!
तुम्हारे नीले पहाड़ों के लिए नहीं
न नीले पानियों के लिए
यदि ये बूढ़ी माँ के बालों की तरह
सफेद-रंग भी होते
तब भी मैं तुझे प्यार करता
न होते तब भी
मैं तुझे प्यार करता
ये दौलतों के खजाने मेरे लिए तो नहीं
चाहे नहीं
प्यार का कोई कारण नहीं होता
झूठ कभी बेमकसद नहीं होता
खजानों के साँप
तेरे गीत गाते हैं
सोने की चिड़िया कहते हैं।
(मूल पंजाबी से तर्जुमा - सत्यापला सहगल)
लाल सिंह दिल वैज्ञानिक नहीं थे, पर देशभक्ति पर आलोचनात्मक सोच उनमें थी, जो वैज्ञानिकों में नहीं दिखती।
पिछले कई दशकों से धरती पर तरह-तरह के संकट छाए हुए हैं, जिनकी एक बड़ी वजह बड़े पैमाने पर जंगी असलाह
का व्यापार और चारों ओर बढ़ता फौज-तंत्र है। क्या विज्ञान इस बारे में आलोचनात्मक ढंग से सोचने की काबिलियत
पैदा करता है? पिछली सदी में जंगें और मुनाफाखोरी ने विज्ञान की दिशा तय करने में बड़ी भूमिका दिखलाई है, जैसे
इनकी वजह से नाभिकीय ऊर्जा, सूचना के विज्ञान और आधुनिक दवाओं के उत्पादन आदि जैसे विषयों में बड़ी
तरक्की हुई है। यह केवल टेक्नोलोजी की बात नहीं है, बुनियादी विज्ञान में बड़ी तरक्की सामाजिक ताकतों की घुसपैठ
से हुई है। आज जंगें लड़ने वाले दफ्तरी किलर्कों जैसे शख्स हैं, जो धरती के एक छोर पर बैठे, विशाल भौगोलिक और
मनोवैज्ञानिक दूरियाँ लाँघकर धरती के दूसरे छोर पर, ड्रोन और लेज़र की मदद से precision killing यानी ऐन
निशाने के क़त्ल करते हैं, जिनमें अक्सर ग़लतियाँ होती हैं और आम नागरिक मारे जाते हैं। क्या विज्ञान पढ़ते-पढ़ाते
हुए हम इन बातों को नज़रअंदाज़ कर सकते हैं?
मेरी बेचैनी
मैं अक्सर सोचता हूँ कि 1988 में हरदा में मेरे अंदर जो चीखता था कि दीवारों पर लिखे फतवे कि 'हिंदुस्तान में रहना
है' तो कैसे रहना होगा, ग़लत हैं, वह शख्स कैसे सामने आता? मेरी ट्रेनिंग मुझे बतलाती है कि नहीं, विज्ञान के साथ
इसका कोई लेना देना नहीं है कि आप विक्षिप्त हो रहे हैं, या कि आप आस-पास विक्षिप्त हो रहे समाज से परेशान हैं।
तो आखिर हमारा मक़सद क्या था, क्या वह महज एक कीट के जीवन-चक्र को समझने का था, या कि संयोग और
संभाविता के अध्याय से प्रेरित होकर बेंगलूरू के विज्ञान अकादमी की पत्रिका में एक परचा लिखने तक का था। मैं
जनविज्ञान में सक्रिय दीगर संस्थाओं के साथ जुड़ा रहा हूँ। अक्सर मीटिंग्स में सवाल उठाता हूँ कि हमारे बीच स्त्रियों या
हाशिए पर खड़े दूसरे तबकों के लोगों की तादाद कम है। बात चलती है तो हर कोई कहता है कि हमें इस हाल को
सुधारना है, मैंं नाम पेश करता हूँ जिनसे हमें बात करनी चाहिए और साथ लाना चाहिए, कोई ना नहीं कहता, पर पाँच
साल, छ: साल गुजर जाते हैं और कुछ नहीं होता। आखिर मैं चुप कर जाता हूँ। यह विज्ञान का सवाल नहीं है, पर ऐसा
है तो मैं विज्ञान या जन-विज्ञान से जुड़कर क्या कर रहा हूँ? मुझे ये सवाल बेचैन करते हैं। इस का पारंपरिक जवाब यह
है कि विज्ञान और समाज दो अलग खित्ते हैं, जैसे आधुनिक विज्ञान और मजहब दो अलग खित्ते हैं, जिनको जबरन
जोड़ने की नाकामयाब कोशिश में विपुल परिमाण कागज़ खपाया गया है। विज्ञान जन-संघर्ष नहीं है। मुमकिन है कि
जनविज्ञान आंदोलन में सामाजिक पूर्वाग्रहों की समझ और उनसे बचने के सवाल को भी विज्ञान-कर्म की सावधानियों
में से एक माना जाता तो हम पाठ-चर्या और पाठ्य-क्रम में खास बदलाव देख पाते, जो हमें आस-पास हो रही
सामाजिक घटनाओं के बारे में कुछ कहते - क्या कहते, यह तो नहीं कहा जा सकता, पर कुछ कहते। मैं ठीक नहीं
जानता कि वह कैसे बदलाव होते, क्योंकि मैं अपनी ट्रेनिंग की वजह से पारंपरिक सोच में क़ैद हूँ। यह ज़रूर है कि
इंकलाबी समाजों में विज्ञान और दीगर पेशों में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ी है, जैसा न केवल क्यूबा या इंकलाबी रूस या
चीन में देखा गया है, बल्कि ईराक, लीबिया, सीरिया तक में हुआ है, जिन्हें हाल के दशकों में अमेरिकी साम्राज्यवादी
हमलों ने तबाह कर दिया है। क्यूबा के बारे में जग-जाहिर है कि सेहत के खित्ते में उस छोटे मुल्क ने क़माल की तरक्की
हासिल की है। पश्चिमी मुल्कों में पिछले दशकों में यह समझ पुख्ता हुई है कि विविधता से सामूहिक काबिलियत और
उत्पादन दोनों में बढ़त आती है। आज सुबह ही मैंने American Physical Society की पत्रिका
PhysicsToday में थोमास दुराकीविक्ज़ के एक लेख में ये पंक्तियाँ पढ़ीं4 - Diversity is the source of
rich, vibrant, and fruitful discussion, a cornerstone of modern science. Only
through bringing together and connecting researchers from different
backgrounds, cultures, disciplines, and views can we make progress. विविधता से
गहन, जोशीले और मानीख़ेज चर्चाएँ मुमकिल हो पाती हैं. जो आधुनिक विज्ञान की बुनियाद है। अलग-अलग पृष्ठभूमि,
संस्कृति, विधाओं से और भिन्न नज़रिए वाले शोधकर्ताओं को इकट्ठा कर और उन्हें जोड़कर ही हम तर्की कर पाएँगे -
अकादमिक पत्रिकाओं में छपे ऐसे दर्जनों आलेख आपको इंटरनेट पर दिख जाएँगे।
विज्ञान का औचित्य
वापस विज्ञान के औचित्य पर आते हैं। जिन संकटों से हम गुजर रहे हैं, उनके मद्दे-नज़र यह सोचना ज़रूरी है कि अगर
विज्ञान के साथ इन बातों का लेना-देना नहीं है, तो क्या विज्ञान का कोई औचित्य भी है? कुदरत और कुदरत के साथ
हमारे रिश्ते पर मनन सुंदर है, एक तरह का गहन अध्यात्म है, पर कुदरत तब तक तक मानीख़ेज़ है, जब तक हम ज़िंदा
हैं। Cogito ergo sum – संज्ञान में आती बातों से ही मेरा वजूद है। देकार्त का कालजयी कथन आधुनिक विज्ञान
की शुरूआत है। इसलिए जो संकट हमारे जीवन के लिए खतरनाक हैं या अगर हम ज़िंदा रह भी गए तो यह इन संकटों
के साथ कैसी ज़िंदगी जी रहे हैं हम, जहाँ हमारे दिलों से मोहब्बत खत्म हो रही है और नफ़रत के सौदागर हमें अपना
गुलाम बना रहे हैं। फिर से सोचता हूँ कि हमें conceptual छलाँगें मारनी होंगी। क्या हम ये छलाँगें ले पा रहे हैं?
क्या हमारी पहचान हमें ऐसा करने देती है?
ढाई आखर प्रेम
जो अँधेरा ज्ञान से ही उपजता है, वह घमंड जो हर ज्ञानी में दिखलाई पड़ता है, उससे हम कैसे बचें। अक्सर वैचारिक
मतभेद की वजह से हम अलग रास्तों पर चल रहे होते हैं, पर गौर करें तो पाएँगे कि ये मतभेद सचमुच इतने गहरे होते
नहीं हैं कि वे हमें साथ काम करते रहने से विमुख करें। जिन कारणों से हम साथ काम नहीं कर पाते, वे अक्सर निजी
अहं या रिश्तों की जटिलताओं से उपजे होते हैं। जो ज्ञान हमें बेहतर इंसान न बनाए, जो अपने और दूसरों के जीवन में
बेहतरी न लाए, उसका फायदा क्या! इसलिए लड़ाई सिर्फ औरों से नहीं, खुद से भी लड़नी है। गुरूदेव रवींद्र से सीखता
हूँ - आमि कान पेते रोई, ओगो आमार आपोन हृदयेर गहोनो द्वारे कान पेते रोई, - मैं एहसास जगाए रखे हूँ, अपनी रूह
की गहराइयों के दर, एहसास जगाए रखे हूँ। बुल्ले शाह को सुनता हूँ - पढ़-पढ़ इल्म हज़ार किताबां, कदे अपने आप नूँ
पढ़ेया ई नईं। उनसे पहले कबीर कह गए कि 'ढाई आखर प्रेम का...'। इस ढाई आखर को पाने का कोई स्रोत नहीं है,
इसे खुद ही अपने अंदर पाना होता है।
सवालों के बिखराव में भी कुछ सुंदर हमेशा साथ रहता है - जो मुझे वापस विज्ञान की ओर ले आता है; आइन्स्टाइन
का हर कहीं मिलता कथन – इसी से अपनी बात खत्म करता हूँ - ‘अपनी पूरी ज़िंदगी में मैंने एक बात जानी है:
हक़ीक़त के बरक्स सारा विज्ञान-कर्म बचकाना और पिछड़ा दिखता है - पर हमारे पास इससे ज्यादा अहम कुछ भी
नहीं है। One thing I have learned in a long life: all our science, measured against
reality, is primitive and childlike -- and yet it is the most precious thing we have -
आइन्स्टाइन
है, कुछ और अहम है। इसके बाद जो निरभय गायन है, वह अहम है। अहम है, क्योंकि वह उस मीमांसा तक हमें ले
जाता है, जो अम्न और मोहब्बत का विज्ञान है।
शुक्रिया।
1 https://physicstoday.scitation.org/doi/pdf/10.1063/1.882571;
https://authors.library.caltech.edu/34750/1/DonsPoem.pdf
2 https://www.azlyrics.com/lyrics/catstevens/wheredothechildrenplay.html
3 Hypatia Vol. 3, No. 1, Spring, 1988, Feminism and Science, Wiley on behalf of Hypatia, Inc.
4 https://physicstoday.scitation.org/doi/10.1063/PT.3.5110
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