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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Saturday, April 06, 2019

राजा जी के दो सींग

यह लेख 24 मार्च को 'मुसोलिनी से प्रेरित संघ परिवार को संविधान से क्या लेना देना' शीर्षक से janjwar.com  पर पोस्ट हुआ है। 


बब्बन ने, हज्जाम ने कहा



बचपन में कहानी पढ़ी थी, ‘राजा जी के दो सींग, किन्ने कहा, किसने कहा - बब्बन ने, हज्जाम ने कहा।' हाल के दिनों में अक्सर एक बात सुनाई पड़ती है - मोदी न हो तो क्या होगा, देश डूब जाएगा। पूछें किन्ने कहा, किसने कहा, तो पता चलेगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रवक्ता ने कहा। यह हमारी नियति है कि जिनको सुनने की कभी सपने में भी न सोची थी, वे लोग हर कहीं चीख कर बकवास करते नज़र आते हैं। इन्होंने यह मान लिया है कि देश के लोग बेवकूफ हैं, किसी को कुछ अता-पता नहीं है, जो मर्जी बोल दो, कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला है। खास कर जिन राज्यों में कॉंग्रेस बड़ी पार्टी है, जैसे हिंदी प्रदेशों और गुजरात में, वहाँ संसद के चुनावों में वैचारिक सवाल या तालीम, सेहत जैसे बुनियादी मुद्दों को छोड़ सबका ध्यान इसी पर रहे कि अधिनायक का सीना छप्पन इंच का है या नहीं, संघ की कोशिश यही है। मुमकिन है कि कुछ लोग इस झाँसे में आ जाएँ कि वाकई आज के वक्त किसी महानायक की ज़रूरत मुल्क को है और इस नज़रिए से खोखले ही सही, ललकारों में बात करने वाले नरेंद्र मोदी को राहुल कहाँ पीट सकते हैं। हालाँकि भारत के संविधान में कहीं भी किसी महानायक के हाथ हुकूमत सौंपने की बात नहीं कही गई है। पर मुसोलिनी से प्रेरित संघ परिवार को संविधान से क्या लेना देना। वो तो मौके के इंतज़ार में हैं कि जैसे भी हो संविधान बदला जाए। कहानी के बब्बन हज्जाम ने तो सच बात कही थी, पर आज के इन झूठे कातिलों का क्या कीजे जो जनता का सर-पैर सब कुछ मूँड़ने के लिए बेताब हैं। बचपन में यह समझ न थी कि समाज में लोगों को उनके पुश्तैनी काम के आधार पर जातियों में बाँटा गया है और निश्छलता से हम बब्बन के मुहावरे को दुहराते थे। आज हुकूमत की बागडोर सँभाले कातिलों-मक्कारों की फौज है। वे और उनके पढ़े-लिखे संवेदनाहीन समर्थक मजे में हैं कि जनता को खूब बेवकूफ बना सकते हैं। आज हर सचेत और ईमानदार आदमी को बब्बन बन कर यह जानना-कहना होगा कि उनके राजा के खौफनाक सींगों की बात हमें मालूम है, भले ही वे हर तरह के झूठ से इसे छिपाते हों।



मान लीजिए कि संसद के सारे सदस्य निर्दलीय चुने जाएँ। तो क्या देश डूब जाएगा? ऐसा नहीं है। ऐसा होना नामुमकिन सही, पर ऐसी कल्पना करने में हर्ज़ नहीं, ताकि हम यह समझ सकें कि किसी भी हाल में स्थिति इतनी बदतर नहीं हो सकती जितनी कि छप्पन इंच के अधियनायकत्व में है। अगर सभी चुने गए सांसद निर्दलीय हों तो वे आपस में तय कर प्रधान मंत्री और काबीना मंत्री चुनेंगे। पहले से चली आ रही परंपराओं के मुताबिक नीति निर्देशक समितियों में सांसद सदस्य होंगे। और केंद्रीय और राज्य लोक सेवा आयोगों द्वारा चुने गए काबिल अफसरों से बनी कार्यपालिका देश चलाती रहेगी। जाहिर है कि ऐसा हो तो अफसरशाही बढ़ सकती है, पर जिस पैमाने का भ्रष्टाचार और हिंसा का माहौल मौजूदा हुकूमत ने बना रखा है, इससे बदतर स्थिति हो, ऐसा नामुमकिन है। जिस मकसद से लोकतांत्रिक ढाँचे बनाए गए है, एक-एक कर आर-एस-एस की राजनीति ने उन सबको औंधे मुँह पलट दिया है। अगर पहले भ्रष्टाचार महज एक समस्या थी, तो आज यही मानक है। कभी यह माना जाता था कि राजनैतिक नेतृत्व की भूमिका अफसरशाही को जनता के हित में वैचारिक और नीतिगत दिशा देने की है, तो आज उनकी भूमिका उलट कर अफसरशाही में भ्रष्टाचार बढ़ाने की है।



दक्षिण एशिया के मुल्कों में बहुसंख्यक जनता के हित में या जनता की सरकार आज तक बनी नहीं है। पर सरमायादारों के हित में काम करते हुए भी राजनेता कुछ पारंपरिक सीमाओं में बँधे होते थे। देशभक्ति और भारत माता की जै जैसे नारों का शोर कम था, पर विश्व-बाज़ार में खरीद-फरोख्त में देश के हित को सामने रखा जाता था। आज यह समझना मुश्किल है कि देश के हितों को कौन देख रहा है, जबकि देशभक्ति और भारत माता की जै बोलकर असल में गद्दारी करने वालों की हिंसक भीड़ को हुकूमत की शह है। मसलन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छत्रछाया में आई मौजूदा हुकूमत के पहले की सरकार में मनमोहन सिंह वाली सरकार को देखें। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था में शामिल होते हुए भी सुरक्षा, तालीम, सेहत आदि के बुनियादी खित्तों को काफी हद तक बचा कर रखा गया था, पर मोदी सरकार ने ऐसे सभी खित्तों को एक-एक कर बाज़ार में खुला छोड़ना शुरू किया। आज किसी को नहीं पता कि देश की सुरक्षा का कितना बड़ा हिस्सा अमेरिका, फ्रांस जैसे मुल्कों के हस्तक्षेप के लिए खुल चुका है। पहले सत्ता में रहे या सत्ता से बाहर निहित स्वार्थों ने लोगों को मजहब और जाति के नाम पर आपस में लड़ाया है, और इसके खिलाफ आवाज़ उठाने वाले लगातार संघर्षरत रहे कि ज़ालिम तबकों को जहाँ तक हो सके रोका जाए। पर हर तरह की गुंडागर्दी और ज़ुल्म की इंतहा को आर एस एस ने एक संस्थागत रूप दे दिया है।



सरकार खुले आम ऐसी नीतियाँ अपनाए, जिससे देश के नागरिकों की जानें जाएँ, ऐसा पहले सोचा नहीं जा सकता था। पर मोदी सरकार ने यह करके दिखलाया। लाइनों में खड़े दो सौ हिंदुस्तानी मारे गए, सिर्फ इसलिए कि मोदी सरकार ने छप्पन इंच का सीना दिखलाते हुए सभी आर्थिक नियम-कानूनों को ताक में रख कर विमुद्रीकरण लागू किया। लोग मरते रहे, पर कोई कानून नहीं है जो इस प्रधान-मंत्री को कटघरे में खड़ा करे। मरने वाले लोग अपनी मर्ज़ी से नहीं मर रहे थे। इस तरह मरने और फाँसी पर चढ़ कर मरने में फ़र्क इतना है कि ये लोग बेकसूर थे। कमाल है कि लोग ऐसी हत्याओं के नायक को अपना नेता भी मान लेते हैं।



तालीम के खित्ते में आज जैसी लाचारी आज़ादी के बाद पहली बार आई है। स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालयों में नौकरियों में, छात्रों के वजीफों में, कटौती ही कटौती है। हर जगह संघ के लोग ऊँचे पदों पर बैठाए जा रहे हैं, जिनमें से कई आधुनिक तालीम और विज्ञान में अनपढ़ों जैसी बाते करते हैं। चारों ओर डर और घुटन का माहौल है और बौद्धिक चर्चाओं के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है।



लाल सिंह दिल की कविता 'मातृभूमि' की पंक्तियाँ हैं - 'सच का हो न हो मकसद कोई/झूठ कभी बेमकसद नहीं होता!’ भारतीय झूठ पार्टी का यह झूठ कि छप्पन इंच वाले महानायक का कोई विकल्प नहीं है, दरअसल लोगों की लाचारी का फायदा उठाने का ही एक और तरीका है। भ्रष्ट, जनविरोधी सरकारों से लोग इतना तंग आ चुके हैं कि वे विक्षिप्तता के शिकार हो रहे हैं। बौखलाहट में कइयों के अंदर हैवानियत जगह बना चुकी है। अपने अंदर के इसी शैतान को वे अपने महनायक में ढूँढते हैं। इसमें नया कुछ नहीं है। ऐसा हिटलर-मुसोलिनी और दीगर तानाशाहों के के वक्त हुआ और आज भी हम वही खेल देख रहे हैं। पर देर सबेर लोग अपनी हैवानियत से रूबरू होंगे और छप्पन इंच वालों के झूठ के किले टूटेंगे।



इसलिए मोदी बनाम राहुल जैसी बकवास से बचकर हमें सही बात सोचनी-समझनी है। हर संसदीय क्षेत्र में चुनाव में कई सारे लोग खड़े होते हैं। इनमें से कोई भी काबिल आदमी चुना जाए, बस इतनी सी बात है। पढ़-लिख कर सतही काबिलियत हासिल किए लोग आर एस एस में भी हैं। भारतीय झूठ पार्टी का प्रार्थी काबिल भी दिखता हो तो हमारे लिए वह सबसे नाकाबिल है। देश भर में आम लोगों के ज़हन में ज़हर घोलने वालों, झूठ का अंबार फैलाने वालों के साथ जो भी खड़ा हो तो उसे हमारा मत नहीं मिलने वाला। इन झूठों और गद्दारों के प्रार्थी के अलावा जो भी जीतने लायक या काबिल प्रार्थी दिखता है, उसे जिताइए। उम्मीद है कि गैर-संघी सरकार के साथ हम लोकतांत्रिक तरीकों से लड़ सकेंगे, हर बात पर गद्दारों द्वारा हर किसी पर राजद्रोह का आक्षेप नहीं किया जाएगा, और ऐसा होगा भी तो हम कानून का कम से कम उतना सहारा ले पाएँगे, जितना इनके सत्ता में आने के पहले मुमकिन था। इस बार चुनाव उस ज़मीन को वापस लाने की लड़ाई है, जहाँ खड़े होकर हम बेहतर समाज के लिए लड़ सकते हैं।


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2 Comments:

Anonymous Rakesh Gupta said...

बढ़िया लिखा है आपने

12:42 AM, April 12, 2019  
Anonymous Ankit said...

bhut hi badiya post likhi hai aapne. Ankit Badigar Ki Traf se Dhanyvad.

6:12 PM, May 17, 2021  

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