Sunday, June 04, 2017

विज्ञान जन-जन के लिए


सामयिक वार्ता के ताज़ा अंक में प्रकाशित आलेख 
हमें भी सड़कों पर उतरना होगा - मार्च फॉर साइंस

कोलकाता में हिंदुत्ववादी लोग 'गर्भ संस्कार' का कार्यक्रम कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि वेदों और शास्त्रों में ऐसे उपाय बतलाए गए हैं जो जन्म से पहले ही यह तय कर सकते हैं कि बच्चा आगे जाकर क्या कुछ बनेगा। वैज्ञानिकों और चिंतकों ने चिंता जताई है कि आम लोगों को इस तरह बेवकूफ बनाकर उनमें अंधविश्वास फैलाए जा रहे हैं। पर यह कोई नई बात नहीं है, हमें अचंभा भी नहीं होना चाहिए कि ऐसा हो रहा है। आखिर जब मुल्क का प्रधान मंत्री ही अतीत के तथाकथित विज्ञान पर ऊल-जलूल बयान दे चुका है तो बाक़ी पर क्या उँगली उठाई जाए। पर अमेरिका में वैज्ञानिक सड़क पर उतर आए – दसों हजारों की तादाद में लोगों ने विज्ञान को बचाने के लिए जुलूस निकाला, जिसमें इस वक्त के बड़े से बड़े वैज्ञानिकों ने हिस्सा लिया, यह खबर चौंकाती है। 22 अप्रैल को अर्थ डे यानी धरती दिवस वाले दिन अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डी सी समेत दुनिया भर में 600 से अधिक शहरों में रैली और जुलूस आयोजित हुए। आयोजकों ने इसे विज्ञान के पक्ष में गैर-राजनैतिक आंदोलन कहा।

आधुनिक विज्ञान ने कुछ मुद्दों पर हमारी बुनियादी सोच में ऐसे बदलाव लाए हैं कि पश्चिमी मुल्कों में भी इससे कई हलकों में बेचैनी फैली है। पहले वैज्ञानिकों में अधिकतर आस्तिक होते थे, पर अब यह माना जाता है कि विज्ञान हमें नास्तिक बनाता है। जाहिर है धार्मिक संस्थाओं को यह बात पसंद नहीं है। खास तौर पर अमेरिका में पिछली सदी में यह बहस चलती रही है कि कायनात खुदा ने बनाई या जैसा कि आधुनिक विज्ञान में माना जाता है, वह एक बड़े धमाके से शुरु हुई। तरक्की पसंद तबकों के पुरजोर विरोध के बावजूद सरमाएदारों ने डार्विन के विकासवाद और जीवों के विकास में कुदरती चयन के सिद्धांत का भरपूर फायदा खुले बाज़ार के पक्ष में तर्क बढ़ाने के लिए किया। पर आज जब आधुनिक विज्ञान से धरती की आबोहवा में आ रहे खतरनाक बदलावों और तापमान बढ़ने का पता चलता है और सरमाएदारों को इसमें उनकी मुनाफाखोरी पर रोक का खतरा दिखता है, तो विज्ञान का विरोध करना उनके लिए लाजिम हो जाता है। गौरतलब बात यह है कि अमेरिका में विज्ञान को बचाने के लिए जुलूस तब निकला जब वहाँ डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में हाल की सबसे ज्यादा दक्षिणपंथी और सरमाएदारों की कट्टर पक्षधर माने जाने वाली सरकार सत्ता में आई। ट्रंप के आने के बाद अनुदानों में भारी कटौती हुई है। इससे संस्थानों के सामने संकट है कि वे शोध-कार्य कैसे चलाएँ। वैज्ञानिक जानकारियों पर आधारित पर्यावरण रक्षा या ऐसे दूसरे कानूनों को हटाया जा रहा है। सरकारी वेबसाइट्स पर से आँकड़े हटाए जाने का खतरा है, कई सरकारी वैज्ञानिकों को या तो उनके काम से रोका गया है या रोके जाने का अंदेशा है। ट्रंप के राष्ट्रपति चुने जाने से पहले से ही उसने वैज्ञानिकों के खिलाफ मुहिम छेड़ रखी थी। आबोहवा में हो रहे बदलाव पर वैज्ञानिक जानकारी को उसने ढकोसला कहा था। इससे परेशान होकर वैज्ञानिकों ने कई हफ्तों तक सोशल मीडिया आदि में कैंपेन किया और मार्च के लिए पैसे इकट्ठे किए।

हमारे देश में विज्ञान के लिए जनांदोलनों का पुराना इतिहास है। आज़ादी के पहले जहाँ अंग्रेज़ी तालीम जड़ पकड़ चुकी थी और साथ ही अंग्रेज़ी राज का तीखा विरोध भी था, उन इलाकों में, जैसे बंगाल में, सैंकड़ों विज्ञान सभा या क्लब थे। आज़ादी के बाद भी ये क्लब सक्रिय रहे और कहीं-कहीं रेशनलिस्ट यानी तर्कशील आंदोलन की रीढ़ बने। पर गंभीर विज्ञान चर्चा हर जगह आम बातचीत का हिस्सा नहीं बन पाई। खास तौर पर हिन्दीभाषी इलाकों में विज्ञान पिछड़ा रहा और कभी भी मुख्यधारा का हिस्सा नहीं बन पाया। नतीजतन जहाँ आज भी बांग्ला में दर्जनों विज्ञान आधारित पत्रिकाएँ हैं, हिन्दी प्रदेशों में सरकारी पत्रिकाओं को छोड़ कर एक भी ऐसी पत्रिका नहीं है, जिसमें विज्ञान के सामान्य सवालों या खोजों पर केंद्रित चर्चाएँ हों। अंग्रेज़ी में 'द हिन्दू' जैसे अखबार में हफ्ते में एक दिन एक पूरा पन्ना विज्ञान पर निकलता है, पर हिन्दी में ऐसा सोचना भी मुश्किल है।

सत्तर और अस्सी के दशकों में मादरी ज़ुबान में साइंस की तालीम पर बहुत सारा ज़मीनी काम हुआ। मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले से शुरु हुआ 'होशंगाबाद विज्ञान शिक्षा कार्यक्रम' कई जिलाओं में फैला। पहले किशोर भारती और बाद में एकलव्य संस्थाओं ने इस कार्यक्रम को चलाया। अस्सी के दशक के आखिरी सालों में देश भर में विज्ञान के जनांदोलन हुए। अखिल भारतीय जनविज्ञान नेटवर्क नामक संगठन बना, जिसके झंडे तले देश भर में विज्ञान-आंदोलन हुए और 1987 में हजारों की तादाद में विभिन्न वर्गों से आए लोग गाँधी के जन्मदिन 2 अक्तूबर से यात्रा शुरु करते हुए रमन के जन्मदिन 7 नवंबर को भोपाल में इकट्ठे हुए। इन आंदोलनों में विशुद्ध विज्ञान-कर्मियों के अलावा समाजवादियों से लेकर साम्यवादियों तक हर तरह के वामपंथी सक्रिय थे। इन आंदोलनों का मुख्य नारा था कि विज्ञान जन-जन के लिए है और हर किसी तक पहुँचे।

विज्ञान को आगे बढ़ाने में तरक्कीपसंद सोच के लोगों की भागीदारी को देखते हुए यह मानना पड़ेगा कि आधुनिक विज्ञान का एक स्पष्ट राजनैतिक पक्ष है। अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद यह बराबरी के समाज के लिए हमारी राजनैतिक सोच को आगे बढ़ाता है।

एक क़ॉलेज की छात्र ऐलिसन वोंग ने http://synapse.ucsf.edu/articles/2017/05/01/march-science-political वेबसाइट पर लिखा कि वह मानती है कि विज्ञान के लिए आंदोलन राजनैतिक है। अमेरिका में इस तरह की बहस जारी है और कई लोग इस विचार के पक्ष-विपक्ष में तर्क दे रहे हैं।

क्या ऐसा जुलूस हमारे यहाँ निकल सकता है? हमारा मुल्क कहने को तो विविधताओं से भरा है, पर ऊँची तालीम और खास तौर पर विज्ञान में सुविधा-संपन्न अगड़ी जातियों के पुरुषों का वर्चस्व है। यह सही है कि उन्हीं में से एक छोटा हिस्सा उन साहसी दोस्तों का है जिन्होंने अपना बहुत सारा वक्त समाज में वैज्ञानिक चेतना फैलाने में लगाया है और हर तरह के तरक्कीपसंद कदम को बढ़ावा दिया है। पिछले साल ऐसे ही एक समूह ने वर्तमान हाकिमों और उनके सांगोपांग द्वारा अंधविश्वासों को विज्ञान कहने पर विरोध जताया था। इनसे अलग कूढ़मगज पुरातनपंथी हमारे विज्ञान-संस्थानों में भरे हुए हैं, प्रधान मंत्री बकवास ऐसे ही नहीं करते। ये लोग अति-राष्ट्रवादी किस्म के लोग हैं, जो थोड़ा बहुत संस्कृत सीख कर उसे तोड़-मरोड़ कर पुनरुत्थानवादी वक्तव्य देते रहते हैं। कहने को यह ज्ञान-विज्ञान की दुनिया में पश्चिम के वर्चस्व के खिलाफ लड़ाई है, पर सचमुच यह ज्यादातर पोंगापंथी ही है - वाकई संस्कृत का अच्छा ज्ञान रखने वाले और गंभीर अध्येता इनमें से कम ही लोग होते हैं। इसलिए इन वैज्ञानिकों से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे सबके लिए विज्ञान की माँग का समर्थन करें। संयोग की बात है कि डोनाल्ड ट्रंप के पास बकवास करने के लिए वेदों या शास्त्रों का सहारा नहीं है। इसलिए इस मामले में हमारे पोंगापंथी अमेरिकियों से ज्यादा ताकतवर हैं। एक नासमझ पत्रकार ने यह सुझाया है कि सरकारी संस्थानों में होने की वजह से ही भारतीय वैज्ञानिक जुलूस नहीं निकाल सकते, जबकि सच यह है कि निजी संस्थानों में वैज्ञानिक कहीं ज्यादा असुरक्षा की भावना से ग्रस्त होते हैं।

हमारे यहाँ की फासिस्ट संघी सरकार ने भी बुनियादी तालीम और शोध-कार्य पर हमला बोला हुआ है। हर यूनिवर्सिटी में बजट में कटौती हुई है। पंजाब यूनिवर्सिटी में एकमुश्त बेहिस बढ़ाई गई फीस के खिलाफ आंदोलन करने वाले 63 छात्रों पर एक दिन के लिए राजद्रोह का इल्ज़ाम भी लगा दिया गया था, पुलिस की मार जो पड़ी वह अलग। जाहिर है कि वक्त और माहौल हमारे लिए भी न केवल विज्ञान विरोधी है, बल्कि बुनियादी तालीम के खिलाफ है। इसलिए हमें भी सड़कों पर तो उतरना होगा। संघर्ष का कोई विकल्प नहीं बचा है।

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