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एक पगला है सैफू

असगर वजाहत पर 'बनास जन' के विशेषांक में प्रकाशित:


'मैं हिंदू हूँ' पढ़ते हुए

- लाल्टू

एक पागल है टोबा टेक सिंह और एक पगला है सैफू।

टोबा टेक सिंह जाने कब से यह जानने की कोशिश में है कि उसका गाँव टोबा टेक सिंह हिंदुस्तान में है या पाकिस्तान में। उसे पता चल जाए कि गाँव वाकई कहीं स्यालकोट के पास है तो कितना अच्छा हो। सैफू जान जाए कि पाकिस्तान में भी मिट्टी होती है तो कितना बढ़िया।

असगर वजाहत हमारे वक्त के उन रचनाकारों में से हैं जो अपने देश-काल की संकीर्णताओं से परे मानवीय विड़ंबनाओं से हमें रूबरू करवाते हैं। ऐसा करने के लिए वे सरल-सहज देसी भाषा में बेबाक किस्सागोई करते हैं और इस तरह समकालीन हिंदी कथा-साहित्य में अपनी अप्रतिम जगह बनाते हैं।

एक कहानी 'डंडा' में असगर की पंक्ति है - 'डंडा होने पर हाथी वैसी ही हँसी हँसने लगा जैसी हँसी हम सब रोज हँसते हैं' हम कैसी हँसी रोज हँसते हैं? हमारी रोजाना की हँसी हमारी अपनी हँसी है या कि उस सधे हुए हाथी की है जिसे समाज, परंपरा, धर्म, जाति, लिंग आदि की संस्थाओं ने निरंतर डंडा किया हुआ है! सामूहिक अश्लीलता के प्रति असहाय समर्पण हमारी नियति है। हालाँकि असगर को यह तकलीफ ज़रूर है कि 'तब दंगे ऐसे नहीं हुआ करते थे जैसे आजकल होते हैं।' सच यह है कि तब भी दंगे ऐसे होते थे, नफ़रत की सौदागरी कमोबेश एक जैसी ही रही है; फ़र्क यह है कि आज हममें से कई यह जानकर शामिल होते हैं कि सब कुछ ग़लत है। सामंती काल में गैरबराबरी को ही सही माना जाता था। या यूँ कहें कि आज भी कुछ लोग उन्हीं कारणों से दंगों में शामिल होते हैं, जैसे पिछले जमानों में होते थे। पर अधिकतर जानते हैं कि हत्याएँ और कत्लेआम हमारे अंदर के शैतानों का खेल है, पर यह हमारी नियति है कि हम इसमें शामिल हैं। अक्सर लोग यह भ्रम फैलाते हैं कि आम लोगों के दिलों में शैतान बिल्कुल नहीं होता। अगर सचमुच ऐसा होता तो राष्ट्रवाद और इसके नाम पर भुनाई जाने वाली राजनीति कैसे पनपती! असगर व्यावहारिक सीमाओं की ओर संकेत करते हैं - 'जबानी जमा-खर्च तक तो सब ठीक था लेकिन उसके आगे. . . संकट (पी ए सी को बूटों की मार) एकता सिखा देता है।’ पर सचमुच इंसान के आज़ाद खयाल कितने आज़ाद होते हैं, यह संशय हमें कम या ज्यादा हो, पर हुक्मरानों को नहीं होता। वे जानते हैं कि बकौल फूको आज़ाद खयाल ज्ञान के संस्थानों की निर्मिति हैं। ये संस्थान संगठित या असंगठित ढंग से हमारे इर्द-गिर्द फैले हुए हैं। ये संस्थान हमें अपनी जकड़ में लिए हुए हैं। ये वही डंडा करने वाले संस्थान हैं, जिसका फायदा हुक्मरान उठाते हैं।

तो क्या हम स्वस्थ मानसिकता से सामूहिक विक्षिप्तता को कभी समझ नहीं पाएँगे? क्या यह मानव 'सभ्यता' के लिए चिरंतन शाप है? असगर और मंटो की कहानियों में हम खुद से पूछते रहेंगे कि हम रोज वाली हँसी कब तक हँसते रहेंगे। सैफू पागल है या कि उसे समझने, उससे जूझने में असफल हम लोग पागल हैं। फूको ने कहा है कि पागलपन या अ-युक्ति (अन-रीज़न) अक्सर एक दूसरे का हिस्सा होते हैं। इनका आपस में संबंध बदलता रहता है। हम व्यक्ति के स्तर पर इस संबंध को तभी देखते हैं, जब हम पर सामूहिक विक्षिप्तता हावी रहती है। इसीलिए तो, राष्ट्र नामक विक्षिप्तता को हमने शाश्वत सत्य मान लिया है; यही नहीं इस पागलपन में अ-युक्ति को ज़बरन युक्तिसंगत मानने के लिए हमने मनगढ़ंत इतिहास, भूगोल, विज्ञान तक बना लिए हैं।

राष्ट्र की जो अवधारणा पश्चिम से हमें मिली है, वह आम तौर पर अल्पसंख्यकों के लिए अभिशाप है, क्योंकि यह राष्ट्र की संरचना में निहित है कि अपने ही अंदर दुश्मन ढूँढा जाए। कुछ सदी पहले तक उत्तरी यूरोप के मुल्कों में, जहाँ प्रोटेस्टेंट ईसाई बहुसंख्यक थे, कैथोलिक समुदाय को गद्दार समझा जाता था और इसी तरह दक्षिणी यूरोप के मुल्कों में, जहाँ कैथोलिक बहुसंख्यक थे, प्रोटेस्टेंट ईसाइयों को दुश्मन माना जाता था। यहूदी हर जगह इस भेदभाव का शिकार रहे। अल्पसंख्यकों को ज़ुल्म सहने पड़ते हैं, वे दंगों और कत्लेआम के शिकार होते हैं। इससे भी बढ़कर तकलीफ की बात यह है कि परिस्थितियों के मारे वे उस गतिकी को समझने लगते हैं जिसे बहुसंख्यक नहीं समझ पाते कि आज़ाद खयाल डंडा करने वाले ज्ञान के संस्थानों की निर्मिति हैं। भौतिक यातनाओं से भरे अपने अस्तित्व के साथ बहुसंख्यकों के दृष्टिहीनता वाले शापग्रस्त जीवन को देखते रहना और भी अधिक पीड़ादायक है। अल्पसंख्यक होना अपने चारों ओर ऐसे बहुसंख्यक लोगों से घिरे होना है जो सच नहीं देख पाने को अभिशप्त हैं। इसलिए सैफू रोता रहेगा, खुद को बहुसंख्यकों में से एक साबित करता रहेगा, पर वह बेहोश होकर ही बच पाएगा। होश में रहकर उसे मुक्ति नहीं मिलेगी। इसी तकलीफ में बेचैन होकर हम अतीत में सहारा ढूँढते हैं - 'तब दंगे ऐसे नहीं हुआ करते थे जैसे आजकल होते हैं।' पर इतिहास वर्तमान से कम निष्ठुर नहीं है। स्टीवेन पिंकर की मानें तो मानव सभ्यता लगातार पहले से कम हिंसा की ओर बढ़ती रही है। हिंसा के भयंकर साधन हमारे पास हैं, जो पल भर में पूरी धरती और इस जैसी दस हजार धरतियों को तबाह कर सकते हैं, पर हिंसा की आलोचना का दायरा बढ़ा है। हमने अपने अंदर शैतान को देखना शुरु किया है। घनी हताशा के बीच इसी थोड़ी सी उम्मीद को सँजोए हम जीते चले हैं।

ऊपर मंटो की कहानी के चरित्र का जिक्र हमने इसलिए नहीं किया है कि हमें असगर वजाहत को मंटो की परंपरा में खड़ा करना है, बल्कि यह महज यह दिखलाने के लिए है कि यातना कैसी विकट हो चली है कि निश्छल होना सपनों में चीखने के लिए, खड़े-खड़े सोने के लिए मजबूर होना है। कहने को 'मैं हिंदू हूँ' कहानी हमें इस सच का सामना करने को तैयार करती है कि हमने अपने इर्द-गिर्द ऐसा समाज बनाया है, जहाँ हर वक्त जंग जिड़ी हुई है। कथाकार तो कहानी ही लिख सकता है। पर कितनी कहानियाँ पढ़ कर हम उन सच्चाइयों को देखने के काबिल हो पाएँगे, जो हमारी आँखों के सामने होकर भी नहीं हैं। घर-वापसी का नारा देने वाले कब जानेंगे कि हममें से हर किसी पर यह डर हावी है कि हमें मुख्यधारा से अलग मान लिया जा सकता है, हमारे अंदर कोई तड़पता हुआ मुख्यधारा में शामिल होने की जद्दोजहद में शामिल है।

'मैं हिंदू हूँ' कहानी और भी बहुत कुछ कहती है, यह हमें दिमागी कमजोरी के प्रति अपनी संवेदना की कमी को भी दिखलाती है। वही मुसलमान लड़के जो खुद को कहीं और बहुसंख्यकों में शामिल होने के कायर ख्वाब देख कर अपनी मौजूदा यातनाओं से जूझते हैं, वे अपने साथ एक अधपागल को डरा कर मजा लेते हैं। असगर सर्जनात्मक लेखन से अलग सोशल मीडिया जैसे मंचों पर अपनी दीगर टिप्पणियों में कट्टर धर्म-निरपेक्ष दिखते हैं। नाम से मुसलमानी पहचान से मजबूर, उन्होंने बार-बार हुक्मरानों को कोसा है कि उन्होंने राजनैतिक फायदों के लिए मुस्लिम तुष्टीकरण के तरीके अपनाए हैं। क्रीएटिव लेखन में उनके सरोकार सामाजिक बराबरी के लिए संघर्ष के हैं और इसमें भी उनकी धर्म-निरपेक्षता प्रखर होकर सामने आती है। "शहर में दंगा करने वाले हिंदू और मुसलमान बदमाशों को मिला भी दिया जाए तो कितने होंगे. . . ज्यादा से ज्यादा एक ... दो हज़ार मान लो ... लाखों लोगों की जिंद़गी को जहन्नुम बनाए हुए हैं… ये तो वही हुआ कि दस हज़ार अंग्रेज़ करोड़ों हिंदुस्तानियों पर हुकूमत किया करते थे … इन दंगों से फ़ायदा किसका है … हाजी अब्दुल करीम को फ़ायदा है जो चुंगी का इलेक्शन लड़ेगा और उसे मुसलमान वोट मिलेंगे। पंडित जोगेश्वर को है जिन्हें हिंदुओं के वोट मिलेंगे… क्या हम लोगों को पढ़ा नहीं सकते? समझा नहीं सकते? … मान लो इस देश के सारे मुसलमान हिंदू हो जाएं?… मान लो इस देश के सारे हिंदू मुसलमान हो जाएं? … तो क्या दंगे रुक जाएंगे? … तो क्या … इंसान साला है ही ऐसा कि जो लड़ते ही रहना चाहता है? वैसे देखो तो जुम्मन और मैकू में बड़ी दोस्ती है। तो … हम मैकू और जुम्मन बन जाएं. . .। सारों का हिंदू हो जाना या कि मुसलमान हो जाना इंसानियत और हैवानियत के फ़र्क को नहीं मिटा सकता। मैकू और जुम्मन हिंदू नहीं, मुसलमान भी नहीं हैं, वे महज इंसान हैं, इसलिए उनमें दोस्ती है।

असगर वजाहत का कैनवस बड़ा है। उनके उपन्यासों के अलावा छोटी-छोटी कहानियों, नाटकों में बहुत बड़ी बातें कहने की कोशिश दिखती है। उनका लेखन हमें अपनी असभ्यताओं के प्रति सचेत करता है। अक्सर उनकी कोशिश निरपेक्षता के मानदंड स्थापित करने की दिखती है, पर सचमुच उन्हें पढ़ते हुए हम यह सोचने को मजबूर होते हैं कि क्या बहुसंख्यक अस्मिता को बनाए रखते हुए किसी तरह की मुक्ति संभव भी है या नहीं! जो सच हमें शाश्वत दिखते हैं, उन पर सवाल खड़ा करते हुए ही हम मुक्ति के सही विकल्प खड़े कर पाएँगे। हमारी रोज की हँसी की अश्लीलता से मुक्त हो पाएँगे। एकता की सीख पी ए सी की बूटों की मार से नहीं, साहित्य और कला की मदद से, अपने नैतिकता के बोध से ही मिलेगी। 'हज़ारों लोगों के मारे जाने के बाद भी मुख्यमंत्री मूछों पर ताव देकर घूमता और कहता कि जो कुछ हुआ सही हुआ' का सच एक ओर है तो व्यापक जनविरोध भी है। दंगों की राजनीति होती रहेगी और हम प्रतिरोध की संस्कृति बनाते चलेंगे। इसी उम्मीद के साथ असगर वजाहत की कलम पर सवार होकर 'शाह आलम कैम्प की रूहें' हमें खुद के रूबरू कराती हैं। 'मैं हिंदू हूँ' को पढ़ते हुए यही खयाल ताकत पाते हैं।






Comments

Unknown said…
असगर वजाहत मेरे पसंदीदा लेखक हैं।
बहुत अच्छा और विस्तार से लिखा।

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