यह आलेख विज्ञान दिवस के लिए लिखा था। आज 'जनसत्ता' में पहले के तीन पैरा काट कर 'वैज्ञानिक चेतना का अर्थ' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। बीच के अनुच्छेदों से भी कुछ वाक्य कट गए हैं। पूरा आलेख छत्तीसगढ़ खबर में भी आया है।
विज्ञान
दिवस कैसे मनाएँ
इस
साल यह दिन ध्यान खींचता है,
क्योंकि
हिंदुत्ववादी विचारधाराओं
के आक्रामक तेवर और केंद्र
में उनकी अपनी सरकार होने से
फिर से विज्ञान के बारे में
दकियानूसी खयालों को बढ़ाया
जा रहा है। ऐसे में कई लोग जो
उदारवादी और संघ विरोधी होने
का दावा करते हैं,
पर
राष्ट्रवादी सोच की जकड़ में
हैं, अक्सर
आधुनिक विज्ञान के बारे में
भ्रामक सवाल उठाते हैं। यह
बात और जटिल हो जाती है जब
आधुनिक विज्ञान के पक्ष में
कट्टर मत रखने वाले लोग ऐसी
भाषा में बात करते हैं जो आम
लोगों को समझ में नहीं आती है।
हाल में 'द
हिंदू' में
प्रख्यात जीवविज्ञानी पुष्प
भार्गव ने यह लिखकर बहस छेड़ी
थी कि भारत में काम कर रहे
वैज्ञानिक नोबेल पुरस्कार
नहीं जीत सकते,
क्योंकि
देश में आम तौर पर वैज्ञानिक
चेतना का घोर अभाव है। उनका
लक्ष्य भारतीय विज्ञान महासभा
में किसी कैप्टन बोदास के एक
बोगस परचा पढ़ने की घटना था,
जिसमें
दावा किया गया था भारत में
अतीत में विमान उड़ाने की
प्रौद्योगिकी मौजूद थी।
इस
मौके पर विज्ञान के बारे में
कुछ सामान्य बातों को दुबारा
सोच लिया जाए तो ठीक रहेगा।
वैज्ञानिक खोज की प्रवृत्ति
बुनियादी इंसानी फितरत है,
पर कोई
सिद्धांत तभी वैज्ञानिक कहलाता
है, जब
वह कुछ विशेषताओं पर खरा उतरे।
धर्मग्रंथों,
पुराणों
में लिखी बातें और दीगर पारंपरिक
मतों में ये विशेषताएँ या तो
नहीं होतीं या कुछ होती हैं
और कुछ नहीं,
इसलिए
उन्हें वैज्ञानिक नहीं कहा
जा सकता।
पिछले
सौ वर्षों में बोलचाल में
'वैज्ञानिक'
ऐसा
शब्द बन गया है कि हर कोई अपने
मत को वैज्ञानिक कहना चाहता
है। आम समझ ऐसी है कि अगर कोई
खयाल वैज्ञानिक नहीं है,
तो वह
व्यर्थ है। इसी लिए कई आस्तिक
लोग धार्मिक विचारों को
वैज्ञानिक सिद्ध करना चाहते
हैं। इस भ्रम से हमें बचना
चाहिए। अगर जीवन में हर बात
वैज्ञानिक आधार पर तय होती
तो जीवन जीने लायक न रहता।
कल्पना कीजिए कि हम वैज्ञानिक
ढंग से तय करते कि किससे मोहब्बत
करें। इसी तरह ईश्वर में विश्वास
और दीगर आध्यात्मिक बातें
वैज्ञानिक नहीं हैं,
पर इससे
उनका महत्व कम नहीं हो जाता।
अक्सर दो प्रवृत्तियाँ साथ
चलती हैं.
एक यह
कि धार्मिक या पारंपरिक रीति
रिवाज़ों को वैज्ञानिक माना
जाए, दूसरी
कि उन्हें वैज्ञानिक सिद्ध
नहीं किया गया तो क्या हुआ,
विज्ञान
ने कौन सा दुनिया का भला ही
किया है -
हिरोशिमा
को कैसे कोई भूले?
इसके
पहले कि हम यह जानें कि विज्ञान
की विशेषताएँ क्या हैं,
यह जान
लें कि विज्ञान कुदरत को जानने
का ऐसा तरीका है,
जिसमें
दो बड़ी कमियाँ हैं। ये कमियाँ
कमज़ोरियाँ भी हैं और यही
विज्ञान को ताकत भी देती हैं।
एक यह कि धार्मिक अध्यात्म
और सामाजिक परंपराओं की विज्ञान
में खास जगह नहीं है -
इसका
मतलब यह नहीं कि विज्ञान समाज
से अलग शून्य में विचरता है
- दूसरी
यह कि विज्ञान में भावनात्मकता
की जगह नहीं है। वैज्ञानिक
इंसान होते हैं,
उनकी
भावनात्मकता उनके काम को
प्रभावित करती है,
पर
वैज्ञानिक जानकारी पाने के
तरीके में भावनात्मकता आड़े
नहीं आ सकती। इसकी वजह से
वैज्ञानिक खोज का भला बुरा
इस्तेमाल हो सकता है। सरकारें
और दीगर निहित स्वार्थ वैज्ञानिक
खोजों का फायदा उठाते हुए शोषण
और दमन तंत्र चलाते रहते हैं।
यह सचेत नागरिकों का काम है
कि वे सरकार पर दबाव डालें और
विज्ञान का ग़लत फायदा उठाए
जाने को रोकें। वक्त के साथ
अंतराष्ट्रीय स्तर पर ऐसे
कानून बने हैं कि वैज्ञानिक
खोज पर लगाम रखी जा सके,
पर उनको
लागू करवाने के लिए संघर्ष
जारी रखना पड़ता है।
कइयों
को परेशानी है कि सदियों से
चली आ रही मान्यताओं को विज्ञान
खारिज क्यों करता है -
हर कोई
जानता है कि आयुर्वेद,
यूनानी
हकीमी या योग भारतीय चिकित्सा
पद्धतियाँ हैं जिन्हें दुनिया
भर में लोग कारगर मानते हैं,
पर आधुनिक
विज्ञान में यह मान्य नहीं
है। यह बात ग़लत जानकारी पर
आधारित है। दरअस्ल इन सभी
चिकित्सा पद्धतियों के
व्यावहारिक पक्ष पर वैज्ञानिक
शोध जारी है और भारत समेत दुनिया
के कई देशों में कुछ हद तक
इन्हें आधिकारिक मान्यता है।
समस्या तब आती है जब हम इनके
दार्शनिक आधार को वैज्ञानिक
कहना चाहते हैं। सामान्य
मान्यता और वैज्ञानिक सिद्धांत
में फर्क होता है।
विज्ञान
में बार-बार
किए अवलोकन (प्रत्यक्ष),
इनके
आधार पर किए अनुमान,
भिन्न
अनुमानों पर आधारित प्रयोग,
प्रयोगों
में पाई जानकारी के आधार पर
बनाए गए नियमों और आखिर में
सिद्धांत तक पहुँचने की एक
शृंखला है। मसलन कोई भी चीज़
अणुओं-परमाणुओं
की बनी है,
और ये
कण एक दूसरे से अलग विचरते
हैं, इस
धारणा को वैज्ञानिक सिद्धांत
बनने में तकरीबन दो हजार साल
लगे। अणुओं की कल्पना कणाद
और दीमोक्रितुस जैसे मनीषियों
ने की थी, पर
जो रोज़ाना की चीज़ें हम
इस्तेमाल करते हैं,
उनमें
अणुओं की भूमिका क्या है,
इसे
समझने में अरस्तू से डाल्टन
की लंबी यात्रा है। अरस्तू
का अनुमान था कि चीज़ों में
कण एक दूसरे में समाए हुए हैं
और दीमोक्रितुस आदि का अनुमान
था कि अणु एक दूसरे से अलग हैं।
सैंकड़ों सालों तक प्रयोगों
के आधार पर रासायनिक क्रियाओं
के नियम बने। इस के बाद सामने
आए डाल्टन के सिद्धांत को हम
वैज्ञानिक कहते हैं।।इसके
सौ साल बाद ही पदार्थ की संरचना
के नए सिद्धांत सामने आ गए।
पुराने सिद्धांतों की सीमाओं
को समझ कर निरंतर नए सिद्धांतों
का आते रहना विज्ञान में लाजिम
है।
इसी
तरह परमाणु में नाभि और नाभि
के बाहर क्या कुछ है,
इसकी
साफ समझ सौ साल पहले ही बनी।
जो कुछ देखा गया था,
उससे
अनुमान निकले कि कैसे कण परमाणु
के अंदर हो सकते हैं। अलग
अनुमानों में से सही का चयन
रदरफोर्ड के प्रयोग के बाद
ही संभव हुआ जिसमें सोने की
पतली परत पर रेडियोसक्रिय
आल्फा कणों को टकराया गया और
यह देखा गया कि अधिकतर आल्फा
कण या तो सीधे परत में से निकल
जाते हैं या उनके गति पथ में
थोड़ा बदलाव आता है,
पर कुछेक
बिल्कुल सीधे वापस मुड़ आ जाते
हैं। यानी परमाणु में बहुत
ही छोटे से केंद्र में एक तरह
के और उसके बाहर दूसरी तरह के
कण हैं। ऐसे और उदाहरण दिए जा
सकते हैं,
जिनसे
साफ होता है कि विज्ञान और
दूसरी मीमांसाओं में क्या
फर्क हैं।
आयुर्वेद
या योग के दार्शनिक आधार का
विज्ञान की विशेषताओं से कोई
लेना-देना
नहीं। शरीर में कफ-वात-पित्त
का संतुलन बिगड़ जाए तो रोग
होते हैं। यह एक सिद्धांत है,
पर यह
वैज्ञानिक सिद्धांत नहीं
है। इससे इस सिद्धांत का महत्व
कम नहीं हो जाता,
पर अगर
कोई ज़बरन इसे वैज्ञानिक कहे
तो वह धोखेबाजी है। पर आयुर्वेद
में काम ली जाने वाली कई दवाओं
और योग अभ्यासों को वैज्ञानिक
तरीकों से परखा गया है और उन्हें
उपयोगी पाया गया है। ऐसा
होम्योपैथी के लिए नहीं कहा
जा सकता। होम्योपैथी का कोई
वैज्ञानिक आधार नहीं है और
होम्योपैथी की दवाओं को
वैज्ञानिक तरीकों से परखने
पर उनका कोई ऐसा गुण नहीं मिला
है जिससे कि रोग का निदान होता
हो। सिर्फ इस वजह से कि अनगिनत
लोगों को होम्योपैथी से फायदा
पहुँचता है,
यह
मान्यता वैज्ञानिक पद्धति
नहीं कहला सकती। बार-बार
किसी बात का होना मात्र,
जैसे
कई लोगों की नज़र में होम्योपैथी
दवाओं का कारगर होना,
वैज्ञानिक
होने की कसौटी नहीं है।
तो
क्या ऐसी सारी बातें जो पारंपरिक
समाजों में मान्य हैं और जिनका
वैज्ञानिक आधार
नहीं है,
वे
सब खारिज हैं?
नहीं।
बस इतना कि सभी मान्यताएँ
वैज्ञानिक
नहीं होतीं। यह सही है कि आज
की दुनिया में ग्रीको-रोमन
परंपराओं का वैचारिक वर्चस्व
है। पर इस बात से परेशान होकर
सीना पीटते हुए दावा करना कि
हमारी पारंपरिक मान्यताएँ
वैज्ञानिक हैं,
मूर्खता
है। यह यूरोपी उपनिवेशवादियों
की मूर्खता और
हठधर्मिता थी
कि उन्होंने नस्लवादी सोच की
जकड़ में ग्रीको-रोमन
परंपराओं को श्रेष्ठ
माना। चूँकि
पिछली सदियों में पश्चिम में
तकनीकी तरक्की तेजी से हुई,
इसलिए
वहाँ सामान्य
लोगों में नस्लवादी सोच आसानी
से घर कर गई। अगर इसके जवाब
में हम भारतीय-चीनी-अरबी
परंपराओं का डंका बजाने लगेंगे
तो हम भी उसी
संकीर्ण नस्लवादी
सोच का शिकार
हो जाएँगे। ज्ञान-विज्ञान
का विकास कभी
भी धरती के किसी कोने में
अलग-थलग
ढंग से नहीं हुआ। पुराने ज़माने
में भयंकर तकलीफों का सामना
कर विद्वान लोग एक से दूसरे
इलाकों में जाते थे और दर्शन
और अन्य विषयों पर चर्चा करते
थे। इस बारे में बहुत सारी
ऐतिहासिक जानकारी मौजूद है।
धर्मानंद
कोसांबी,
देवीप्रसाद
चट्टोपाध्याय से लेकर आज के
कई इतिहासकारों ने ऐसी जानकारियाँ
हमें दी हैं। इसलिए कोशिश यह
होनी चाहिए कि हम अपने समाज
की कमियों को समझें कि जो कुछ
भी ज्ञान-विज्ञान
यहाँ था,
वह
सबके लिए क्यों नहीं था या
उसके विकास में कैसी रुकावटें
आईं। कई इसका
सरल जवाब यह देते हैं कि यह सब
अंग्रेज़ों की साजिश थी। ऐसे
सरलीकरण से निकलकर हमें जाति
और अन्य कुप्रथाओं की जकड़ में
फँसे अपने मौजूदा हालात में
सुधार लाने पड़ेंगे। मजहब और
परंपराओं के नाम पर लोगों को
भड़काकर और समाज में गैरबराबरी
बनाए रख कर हम कहीं नहीं पहुँच
सकते। हमें इंसान की फितरत
को पहचानते हुए दुनिया
में हर कहीं हो
रहे वैज्ञानिक खोज पर गर्व
करना सीखना होगा और आपस की
मार-काट
से अलग हटकर अपने बच्चों में
जन्मजात वैज्ञानिक चेतना को
ठोस स्वरूप देने के लिए गंभीर
कदम उठाने होंगे। इसके विपरीत
आज समाज और राजनैतिक ताकतें
फिरकापरस्ती,
अंधविश्वास
को बढ़ावा देती हैं। एक ओर तो
पश्चिमी पूँजीवादी मूल्यों
को, पश्चिमी
भाषाओं को और रहन-सहन
के ऐसे तरीकों
को,
जो
उन मुल्कों के लिए ही सही हैं,
हम
अपनाते जा रहे हैं,
दूसरी
ओर हीन भावना और मानसिक भटकनों
में डूबे हम
सीना पीटने लगे हैं कि जो कुछ
भी हमारे मुल्कों में अतीत
में होता था,
वह
श्रेष्ठ है। विज्ञान दिवस पर
हमें इस बीमारी से बच कर
खुले दिमाग से वैज्ञानिक
चेतना को अपनाने की सोचना
चाहिए। इसका
मतलब यह नहीं कि हम अपनी पारंपरिक
रीतियों को वैज्ञानिक
कहते रहें और
न ही यह कि हम उन्हें बेवजह
छोड़ दें। विज्ञान
हममें निहित
तर्कशीलता की ताकत को बढ़ाता
है जो स्थापित शोषण के ढाँचों
को चुनौती देती है। वैज्ञानिक
चेतना का सामान्य एक उदाहरण
यह है कि सुबह या
रात की कुदरती
शांति को हम मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारों
से यांत्रिक शोर फैला कर बर्बाद
न करें। विज्ञान
हमें बतलाता है कि ध्वनि प्रदूषण
से गंभीर बीमारियाँ होती हैं।
रीतियों को ऐसे
निभाएँ कि
वे हमारा नुक्सान न करें।
विज्ञान
हमें नम्र होना सिखलाता है।
विज्ञान से हमें ब्रह्मांड
की देश-काल
विशालता और मानव जीवन की तुच्छता
का पता चलता है। साथ ही विज्ञान
हमें यह अहसास देता है कि मानव
होना, प्राणी
होना, ब्रह्मांड
में होना और इस होने को जान
पाना कितना सुंदर है।
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