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बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत; बराबरी के आधार पर समाज निर्माण में हर किसी के साथ। समकालीन साहित्य और विज्ञान में थोड़ा बहुत हस्तक्षेप

Sunday, March 08, 2009

एक और आलेख

पिछले चिट्ठे में मैंने मीरा नंदा के लेख का जिक्र किया था। आज के 'द हिंदू' में बृंदा कारंत का आलेख है, जिसमें वर्त्तमान समय में, खास तौर पर भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति में, सौ साल पहले कोपेनहागेन में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की घोषणा के दौरान पश्चिमी मुल्कों में महिलाओं की स्थिति के साथ तुलना की गई है। मीरा का आलेख एक बीस साल की लड़की के अपने ही परिवार के सदस्यों द्वारा हिंसक तरीके से अगवा किए जाने के खिलाफ है। लड़की का अपराध यह कि उसने अपनी पसंद के व्यक्ति के साथ प्रेम और शादी करना तय किया। बृंदा ने आर्थिक मुद्दों और आज की आर्थिक मंदी के समय कामकाजी महिलाओं के बेरोज़गार होने आदि पर जोर दिया है। दोनों ही आलेख बहुत ज़रुरी हैं। मैं अक्सर साथियों से कहता हूँ संघर्ष हमें आगे ले जाता है, निराशा की कोई वजह नहीं है, इसे समझने के लिए पीछे मुड़ कर देखने भर की ज़रुरत है। हम पाएँगे कि समय के साथ लोकतांत्रिक संस्कृति का विकास हुआ है, बराबरी के लिए आवाज बुलंद हुई है। फिर भी ऐसे आलेखों को पढ़कर कभी कभी मन हताश होता ही है। लगता है किस से कहें, कहने को हर कोई प्रगतिशील है, पर जितना कि लोग प्रगतिशील दिखते हैं, उतना होते तो स्थिति इतनी खराब क्यों होती।
बहरहाल, ................

2 Comments:

Blogger भारत भूषण तिवारी said...

दोनों ही आलेख वास्तव में ज़रूरी हैं; धन्यवाद. लैंगिक असमानता के बारे में इंटरनेशनल ट्रेड यूनियन कनफेडरेशन द्वारा जारी एक रिपोर्ट में भी हताशा बढाने वाले आंकडे हैं. फिर भी संघर्ष तो जारी रहेगा.

2:47 AM, March 09, 2009  
Blogger राजेन्द्र मालवीय said...

nouniलालटूजी,
नमस्कार,मैंने आप का नाम एकलव्य,हरदा में सुना था मगर कभी आप से और आप के विचारों से मुलाक़ात नहीं हो पाई. धर्मेन्द्र पारेजी भी कभी कभी आप का जिक्र करते रहे हैं.
आप के ब्लॉग पर टिप्पणी,पढने के बाद ज़रूर करूँगा.

9:54 AM, April 02, 2009  

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