(29 नवंबर 2022 को छत्तीसगढ़ साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित ' मुक्तिबोध प्रसंग'
के उद्घाटन सत्र में दिया व्याख्यान – पुराने कुछ लेखों में से पंक्तियाँ जोड़कर ये नोट तैयार
किए थे - एक बड़ा हिस्सा अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच द्वारा प्रकाशित 'भाषा की
लड़ाई' से लिया है। )
एक बड़े रचनाकार को पढ़ना दरअसल खुद को गहराई तक पढ़ना होता है। निजी ज़िंदगी
और समाज के बीच समझौतों और संघर्षों का जो सिलसिला है, उसे हम कैसे समझें,
खुद को इसमें कहाँ और कैसे तलाशें, यह समझ हमें उम्दा अदब से मिलती है। मेरी
बदकिस्मती यह है कि मैंने मुक्तिबोध को बड़ी उम्र में और विदेश में रहते हुए पढ़ा।
आलोचना में मेरी रुचि कम थी। इसलिए कविताएँ कहानियाँ ही पढ़ता था। अपनी समझ
कम थी - पर मुक्तिबोध को पढ़कर कौन न प्रभावित होता? पर कविताएँ कहानियाँ पढ़ना
एक बात है और रचनाकार के जीवन के साथ रचनाओं के अंतर्संबंध को समझ पाना कुछ
और बात है। इससे भी आगे अपने अंतर्द्वंद्वों को बेहतर देख पाना और समझना -
मुक्तिबोध को पढ़कर यही प्राप्ति है। खास तौर पर 'सब चुप, साहित्यिक चुप और कवि-
जन निर्वाक' के अँधेरे में जीने की यंत्रणा पढ़ कर अगले छ: दशकों में सब बिकते चले के
जमाने तक के सफर में खुद की तलाश करना,यह ताकत हमें मुक्तिबोध से मिलती है।
बहुत बाद में मुक्तिबोध के जीवन के बारे में मैंने जाना। गाँवों में, छोटे शहरों में, अध्यापक
की सामान्य ज़िंदगी जीते हुए साहित्य-लेखन के प्रति ऐसी गहरी प्रतिबद्धता देखकर
अचरज होता है। इससे भी अधिक अचरज होता है जब हम उनके अध्ययन की
व्यापकता को जानते हैं। समकालीन विश्व-साहित्य और बौद्धिक उथल-पुथल पर उनकी
क़माल की पकड़ थी। ऐसे समय में जब बड़े शहरों में भी किताबें आसानी से उपलब्ध न
होती होंगी, उन्होंने कैसे कहाँ से जानकारी हासिल की, सोचकर हैरानी होती है।
कविताओं से भी ज्यादा उनकी कहानियों ने मुझ पर असर डाला। कहानियाँ पढ़कर
लगता है कि वे अपने समकालीन अस्तित्ववादी विचारों से प्रभावित थे। पर इसका
मतलब यह भी होता है कि उनके जीवन में निजी संघर्षों की उलझनें रही होंगीं, जिनके
बारे में हम कम ही जानते हैं। उनकी कहानियों में 'सतह से उठता आदमी' में यह संघर्ष
सबसे तीखा बन कर सामने आता है। 'अँधेरे में' और 'ब्रह्मराक्षस' जैसी कविताओं में भी
यह दिखता है, पर कविता की अपनी शर्तें हैं और इसलिए वहाँ सीधे-सीधे कुछ भी कहना
मुश्किल हो जाता है। जीवन के तनाव जितनी साफगोई से कहानियों में पेश होते हैं,
कविता में वे उस ढंग से नहीं आते जैसे कि हम जानकर भी चुप रह जाएँ और उन पर
बात न करें। वहाँ सियासी सोच और निजी जद्दो-जहद का ऐसा घालमेल है कि हम जीवन
के विशेष पहलुओं को छानने की कोशिश करते हुए बार-बार असफल होते हैं। आज जब
हर ओर 'कहीं आग लग गई' और 'कहीं गोली चल गई' का माहौल है, संवैधानिक
संस्थाओं पर लगातार हमले हो रहे हैं, ऐसे में खुद को, अपनी इंसानियत को बचा रखने
के लिए हम फिर-फिर मुक्तिबोध को ढूँढते हैं।
बहरहाल मैं आलोचक नहीं हूँ, दोस्तों के कहने पर कोई दो-तीन लेख मुक्तिबोध पर लिखे
हैं, जो पत्रिकाओं में छपे हैं। कुछ अलग कहने की कोशिश की है, शायद कोई गौरतलब
बात कह नहीं पाया हूँ। यहाँ मौजूद नामी आलोचकों के सामने मेरा कुछ कहना हिमाकत
होगी। अच्छे आलोचक अपनी बात रखते रहेंगे, मैं यहाँ एक खास मुद्दे पर ध्यान दिलाना
चाहता हूँ। इसे एक तरह की माइक्रो-स्टडी कह सकते हैं। राजकमल प्रकाशन से नेमिचन्द्र
जैन के संपादन में आई मुक्तिबोध रचनावली के आखिरी खंड में कई रोचक लेख हैं।
इसमें उनकी भारत के इतिहास पर वह किताब भी शामिल है, जिसमें वे अतीत को
सांस्कृतिक नज़रिए से देखते और दिखाते हैं। वह वक्त था जब दुनिया भर में इतिहास
लेखन पर सवाल उठ रहे थे। जैसा हावर्ड ज़िन ने अपनी किताब People’s History
of United States के पहले अध्याय में लिखा है, इतिहास महज विजेताओं और
विजितों की कथा नहीं होता, इतिहास आम लोगों की रोज़ाना जद्दो-जहद की कहानी है।
1952 में 'नया ख़ून' पत्रिका में शामिल एक लेख रचनावली के इस खंड में शामिल है -
‘अंग्रेज़ी जूते में हिन्दी को फिट करते ये भाषाई रहनुमा।' इस लेख में हिंदुस्तानी ज़बान
की पैरवी करते हुए कृत्रिम और तथाकथित तत्सम शब्दावली के इस्तेमाल के खिलाफ
एक कातर और साथ ही नाराज़गी भरी चीख है। रोचक बात यह है कि मुक्तिबोध ने हिन्दी
और हिन्दुस्तानी ज़बान के साथ हो रहे इस ज़ुल्म और ज़ुर्म को अंग्रेज़ी जूते में हिन्दी को
फिट करना कहा है। यह हिन्दुस्तानी ज़बान के खिलाफ अंग्रेज़ीवालों और संस्कृतवादियों
के बीच समझौते की ओर संकेत है। 1952 में यह मुमकिन था कि भारतीय भाषाओं में
पठन-पाठन की सामग्री तैयार करने पर भरपूर तवज़्ज़ो हो, ऐसी कोशिशों को माली मदद
दी जाए। पर मुल्क की भाषाबहुलता को महज दो ज़बानों में समेटने की बीमारी हमारे
संपन्न तबकों पर हावी थी और उनके चुने हुक्मरान इसी दिशा में सोच रहे थे। जैसे कि
मुल्क एक सामंती जायदाद है, जिस पर उनकी बपौती है। पर बराबरी और लोकतात्रिक
हक़ कुदरती चाहतें हैं और इंसान बार-बार हार कर भी हक़ों के लिए खड़ा होता रहता है।
दक्षिण एशिया में मादरी ज़बान के लिए जंग शुरू हो चुकी थी - पूर्वी पाकिस्तान इस जंग
में प्रेरणा का समंदर बन कर सामने आ चुका था। बांग्लादेश की आज़ादी के बाद से
बांग्ला ज़बान में लगातार अहम भाषाई बदलाव दिख रहे हैं। भारत में अंग्रेज़ीवालों और
संस्कृतवादियों का वर्चस्व आज भी है और इसके नतीजतन जिस 'पथरीली चुप्पी और
जड़ीभूत उकताहट' का जिक्र मुक्तिबोध उस लेख में कर रहे थे, वह अलग-अलग तरह
के विस्फोट बन कर फूटता रहा है। जहाँ हर कोई इस भ्रांति में क़ैद है कि अंग्रेज़ी सीखकर
वह हाकिमों की जमात में आ जाएगा, वहीँ अपनी ज़बान में ज्ञान पाने की सीमाओं से
परेशान बौखलाए लोग नफ़रत की सियासत के दाँवपेंच का शिकार होते चले हैं। देश के
अधिकतर लोग टीवी देख कर अंग्रेजी की गुटर-गूँ सुन तो लेते हैं पर उन्हें यह भाषा समझ
नहीं आती। अंग्रेज़ी में वंचितों के पक्ष में प्रखर भाषण दे रहा विद्वान उनके लिए कुछ तो
मनोरंजन का पात्र है, और कुछ अवचेतन में पलते आक्रोश का कारण। यही आक्रोश
आखिर फासीवादी विकृतियों की ओर जाने में मदद करता है। मजेदार बात यह है कि
अंग्रेज़ी वाले यह सोचते हैं कि उनकी बहसों को देश गंभीरता से ले रहा है। अरे! जो
अंग्रेज़ी समझता ही नहीं, वह इस गुटर-गूँ को क्या समझेगा।
भाषा के मनोविज्ञान के इन पहलुओं पर बात कम होती है, पर पिछली सदी में भाषाविदों ने
हमें बार-बार चेताया है। समाज विज्ञान और दर्शन में ढेरों बड़े शोध भाषा से जुड़े हुए
हैं। सौ साल पहले ही अमेरिकन भाषाविद एडवर्ड सापिर और उनके शागिर्द बेंजामिन
ह्वोर्फ ने भाषाई निश्चितता का सिद्धांत दिया था, कि भाषा के अलावा हमारे वजूद में और
कुछ अर्थ ही नहीं रखता, जिसे हम दुनिया मानते हैं, उसे भाषा ही हमारे लिए बनाती है -
यह शायद कुछ अतिरेक ही था; पर उसके बाद भी पिआजे, देरीदा, फूको, हाबेरमास,
विटगेन्स्टाइन और लाकान जैसे दिग्गजों ने भाषा के बारे में गहरा चिंतन किया है। हमारी
विश्व-दृष्टि, जीवन के प्रति हमारा नज़रिया, इनके साथ भाषा का गहरा संबंध है। हम
अपनी बात को औरों तक पहुँचाने, सही-ग़लत के बारे में अपनी समझ साझी करने के
लिए भाषा का इस्तेमाल करते हैं। भाषा ही जैविक विकास का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है।
सदी के अंत में सबसे बड़े माने गए मनोवैज्ञानिक जाक्स लाकान की सबसे ज्यादा पढ़ी
गई उक्ति है - ‘द अनकांशस इज़ स्ट्क्चर्ड लाइक अ लैंग्वेज (अवचेतन की संरचना भाषा
की तरह होती है)’। अगर अवचेतन और भाषा के बीच ऐसा गहरा संबंध है तो निश्चित ही
मादरी ज़बान का महत्व हमारी आम समझ से कहीं ज्यादा है। हमारे देशी विद्वान अंग्रेज़ी
में हमें बतलाते हैं कि थोपी गई भाषा मनुष्य के सामान्य विकास में बाधा पहुँचाती है और
कई तरह की विकृतियाँ पैदा करती है। बहुत सारी बहस इस पर होती रही है- पिछले सौ
से भी ज्यादा सालों में इस पर बहुत कुछ लिखा गया है, इसके बावजूद वे अंग्रेज़ी को
चुनते हैं। यह चयन एक तरह का चरमपंथी रवैया है। यह जानते हुए कि देश की आबादी
के बहुत बड़े हिस्से को अंग्रेज़ी नहीं आती, यह तय करना कि हम अपना सारा बौद्धिक
काम अंग्रेज़ी में करेंगे, जाहिर तौर पर एक ज़िद्दी, और अड़ियल रवैया है। यह और बात है
कि अपने आम पाखंडी और सामंती रवैयों की तरह ही वे भारतीय भाषाओं के पक्ष में
बोलने वालों को चरमपंथी कहते हैं।
मुक्तिबोध कहते हैं - ‘जो लोग भारतीय संस्कृति के नाम पर एक ओर भाषा में प्राचीन
संस्कृत शब्दों के समान नए शब्द बनाने पर तुले हुए हैं, ठीक वे ही लोग भारतीय जनता
से इतनी दूर हैं कि वे न उसकी आवश्यकताएँ समझते हैं, न उसे समझने की उन्हें कोई
चिंता ही है।' पिछले डेढ़ सौ सालों में ऐसे तत्सम लफ्ज़ गढ़े गए जो कभी संस्कृत में भी
नहीं थे। मसलन अंग्रेज़ी के सामान्य शब्द aberration के लिए 'विपथन' और
reversible के लिए 'उत्क्रमणीय' जैसे शब्द बने। ऐसी कृत्रिम शब्दावली से लदी
मानक हिन्दी एक ऐसी भाषा बनी, जिसे कोई कहीं नहीं बोलता है। कमोबेश ऐसा ही और
कई भारतीय भाषाओं के साथ हुआ। बहरहाल सामाजिक उथलपुथल के बावजूद भाषाएँ
विकसित होती रहीं। सभी मुख्य भाषाओं में आधुनिक साहित्य लिखा गया। अब
ग्लोबलाइज़ेशन के दबाव में सरकारों की जनविरोधी अंग्रेज़ी-परस्त नीतियों और अन्य
कारणों से हाल यह है कि भाषाएँ कब तक बचेंगी, यह सवाल हमारे सामने है। हम वापस
मुक्तिबोध को पढ़ते हैं; वे कहते हैं - ‘हर काम करने के दो तरीके हैं : (1) या तो उसे
जनता की दृष्टि से किया जाए, (2) अथवा जनता-विरोधी प्रतिक्रियावाद की दृष्टि से - इस
दृष्टि को आप भारतीय संस्कृति का नाम दें या कोई और। ये दो तरीके एक दूसरे से इतने
अलग हैं कि उसमें कोई समानता नहीं है।'
मुक्तिबोध को न तो अंग्रेज़ी से और न ही संस्कृत से कोई समस्या है, समस्या इनके ज़बरन
थोपने से है। वे कहते हैं कि 'जहाँ वर्तमान भाषाओं में विशिष्ट अर्थवाची शब्द ही नहीं हैं,
वहाँ निश्चय ही संस्कृत से ऐसा शब्द लेना चाहिए।' वे सरल शब्दों को चुनने की सलाह देते
हैं, जैसे 'पुनर्वास' की जगह 'शरणार्थी-उद्धार'। आज हम इस पड़ाव पर पहुँच गए हैं कि
हमें पता ही नहीं है कि हमारी भाषाओं में विशिष्ट अर्थवाची शब्द हैं भी या नहीं। मसलन
मुझे चालीसेक साल की उम्र में ही पता चला कि 'ताना-बाना' दरअसल कबीर की
कविता ही नहीं, बल्कि जुलाहों के उपकरण हैं। अपनी ज़बानों में प्रचलित ऐसे अल्फाज़
हमने सचेत रूप से भूले और खोए हैं।
भाषा के बारे में सोचते हुए, खास तौर पर जब हम तालीम और सीखने के माध्यम की
बात करते हैं, पहली और बुनियादी बात संज्ञान यानी कॉग्निशन पर होनी चाहिए। कुदरती
तौर पर इंसान की काबिलियत को पूरी तरह खिल पाने के लिए जिन प्राथमिक औजारों
की ज़रूरत है, उनमें से भाषा अहम है। अंग्रेज़ी-संस्कृत-हिन्दी के पक्ष-विपक्ष में बहस इस
मुद्दे पर न होकर राष्ट्र, साइंस-टेक्नोलोजी, अंतर्राष्ट्रीय प्रसंग, आदि पर होती रहती है।
मैं हिन्दी या दीगर भारतीय भाषाओं के पक्ष में क्यों हूँ? जाहिर है कि हिन्दी महज एक
भाषा है, जिसमें पढ़ते-लिखते हुए मुझे अपने होने का कोई मतलब या मकसद दिखता
है, जो अंग्रेज़ी में नहीं दिखता है। पंजाबी या बांग्ला में लिख कर भी मुझमें ऐसे एहसास
पनप सकते थे। मुझे स्कूली तालीम हिन्दी में मिली, स्कूल में जिन अध्यापकों और बच्चों
के साथ बातचीत की, वे सब हिन्दी बोलते थे, इसलिए हिन्दी में पढ़ना-लिखना अधिक
स्वाभाविक रहा। इसमें कोई शक नहीं कि अगर मेरी पढ़ाई बांग्ला माध्यम स्कूल में हुई
होती, तो आज मैं हिन्दी में नहीं लिख रहा होता। मेरे पिता ने मुझे हिन्दी माध्यम स्कूल में
क्यों भर्ती करवाया- यह भाषाई निर्णय कम और कौमी और वर्ग-चेतना का निर्णय अधिक
रहा होगा। बापू सरकारी ड्रायवर था, उसने पंजाबी साहित्य में कुछ पढ़ाई की थी, पर
कोलकाता शहर में उसकी पहचान एक मजदूर की थी। हालांकि बांग्लाभाषी कामगार
लोग कम न थे, पर उसकी अपनी पहचान खुद की बनाई हुई नहीं थी। आज जिसे हम
आसानी से एक देश कहते हैं, उनके जमाने में वह आज से भी अधिक बहुराष्ट्रीय या
बहुजातीय था। उस जमाने में कोलकाता शहर में एक पंजाबी कामगार के बच्चे की भाषा
बांग्ला नहीं हो सकती थी।
इन बातों को समझना इसलिए ज़रूरी है कि भाषा का सवाल सिर्फ बोलने, पढ़ने या
लिखने का सवाल नहीं, यह उन तमाम सियासी मुद्दों से जुड़ा हुआ है, जिनसे हम
लगातार जूझते हैं।
एक संस्कृतिबहुल देश में अपनी एकांगी समझ थोपना, और इस तरह की संकीर्ण सोच
को देशभक्ति कहना बीमारी से कम नहीं है। किशोरावस्था तक जब अंग्रेजी कम आती
थी, हिन्दी के साथ जुड़ना जिन कारणों से था, उन्हें आज मैं सही कारण नहीं मानता।
जैसे हिन्दी राष्ट्रभाषा है - यह ग़लत धारणा तब थी। किसी भी राष्ट्र की एक भाषा होती है,
होनी चाहिए, यह ग़लत धारणा थी। राष्ट्र-हित नामक कोई अमूर्त बात होती है, जिसके
लिए सबको अपनी ज़िंदगी न्यौछावर करनी चाहिए - ये बातें बकवास ही नहीं, कुछ
संकीर्ण और निहित स्वार्थों के हित में रची गई बातें हैं।
मुझे पंजाबी कवि लाल सिंह दिल की कविता 'मातृभूमि' याद आती है - सत्यपाल
सहगल ने इसका हिन्दी में तर्जुमा किया है।
प्यार का भी कोई कारण होता है?
महक की कोई जड़ होती है?
सच का हो न हो मकसद कोई
झूठ कभी बेमकसद नहीं होता!
तुम्हारे नीले पहाड़ों के लिए नहीं
न नीले पानियों के लिए
यदि ये बूढ़ी माँ के बालों की तरह
सफेद-रंग भी होते
तब भी मैं तुझे प्यार करता
न होते तब भी
मैं तुझे प्यार करता
ये दौलतों के खजाने मेरे लिए तो नहीं
चाहे नहीं
प्यार का कोई कारण नहीं होता
झूठ कभी बेमकसद नहीं होता
खजानों के साँप
तेरे गीत गाते हैं
सोने की चिड़िया कहते हैं।
देशभक्ति को हाकिम तय नहीं करेंगे और वह झूठी महानताओं से जुड़ी हो, यह ज़रूरी
नहीं है। हम जहाँ जन्मे-पले, उस ज़मीं से हमें प्यार है - वह जैसी भी है।
बहस इस बात पर होनी चाहिए कि लोकभाषाओं की शब्दावली वापस मुख्यधारा की
भाषाओं में कैसे लाई जाए। संज्ञान के स्तर पर किस भाषा की अहमियत है, इस पर बात
होनी चाहिए। पर हम ऐसे सियासी खेल में फँस गए हैं कि 1952 में मुक्तिबोध की फ़िक्र
के हल तो मिले नहीं, वे और गहराते चले हैं। उनके शब्द हैं - ‘सदियों से भारत में जो …
शब्दावली प्रचलित है, उसका तिरस्कार करना यह बतलाना है कि हम अपनी विरासत,
अपनी परंपरा के प्रति मात्र संप्रदायवादी दृष्टि अपना रहे हैं, और 'भारतीय संस्कृति' के
नाम पर संप्रदायवाद को न केवल जन्म दे रहे हैं, वरन् उसे लगातार बढ़ाते जा रहे हैं।'
आह! उनकी रूह आज के भारत को देखकर कैसी तड़पती होगी।
आगे देखिए – ‘यही कारण है कि संप्रदायवाद (1) विरासत में पायी हुई उर्दू शब्दावली
का विरोध करता है; (2) हिन्दी अखबारों और हिन्दी लेखकों द्वारा बनाई हुई
पारिभाषिक शब्दावली को उपेक्षा की दृष्टि से दिखता है; (3) बोलियों में प्रचलित
पारिभाषिक शब्दावली को छूता तक नहीं है, जैसे, बिजली के निगेटिव और पॉजटिव तार
के लिए लखनऊ की तरफ प्रचलित शब्द हैं - ठण्डा तार, गरम तार आदि; और (4) अन्य
हिन्दीतर भाषाओं में प्रचलित शब्दावली से सहायता लेेने की बात तो सोची ही नहीं
गयी।'
आज न तो पहले जैसे अखबार हैं और न हैसियत वाले आज़ादखयाल अखबारनवीस।
इसलिए दूसरा बिंदु तो बेमानी हो गया है।
फिरकापरस्ती में उलझी एक समस्या वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली की है।
ज्यादातर तकनीकी शब्द न केवल बनावटी हैं, बल्कि वे जटिल हैं, जैसे मिसाल के लिए
ऊपर विपथन और उत्क्रमणीय का जिक्र किया गया है। जटिलता धारणाओं या
अवधारणाओं की वजह से नहीं, शब्द संरचना में कृत्रिमता की वजह से है।
शायद 1988 में मैंने ज्ञानरंजन को लिखा कि हिन्दी में विज्ञान-लेखन हिन्दीभाषियों के
खिलाफ षड़यंत्र है। इसके बाद जब भी मौका मिला है, लगातार इस बारे में मैं कहता रहा
हूँ। यह माँग कि विज्ञान की एक मानक शब्दावली होनी चाहिए - यह बात मुझे तंग करती रही
है। इसके पीछे समझ यह है कि यूरोपी ज़बानों में विज्ञान की तरक्की के साथ मानक भाषा
बनती चली थी। यह बात सच है, पर एक तरह का आधा-सच है। नवजागरण में पहला हमला
भाषा पर हुआ था। धर्म और दर्शन की किताबों को जनता की भाषा में लिखने की माँग थी।
गौर कीजिए कि हमारे यहाँ भी भक्ति-आंदोलन पंडितों की भाषा में नहीं हुआ था - फरीद,
वासवन्ना से लेकर कबीर, नानक, लालन तक यह हमेशा ही जनता की भाषा में हुआ था।
पश्चिम में विज्ञान की भाषा लगातार सरल और सहज होती रही है। इसके उलट हमारे यहाँ
पिछले डेढ़ सौ सालों में कृत्रिम संस्कृतनिष्ठ शब्दावली गढ़ी गई। मुक्तिबोध ने तब कहा था -
‘जो भारतीय संस्कृतिवादी, एक ओर, हिन्दी को दुरूह से दुरूह बनाने पर तुले हुए हैं, वे
दुरूह से दुरूह पारिभाषिक शब्दावली भी बनाते हैं।'
मेरी समझ में दुनिया में कहीं भी कोई बड़ी वैज्ञानिक खोज तब तक नहीं होती जब तक
विज्ञान की बुनियादी तालीम मादरी ज़बान में नहीं होती। विज्ञान महज नई खोजों के बारे
में सूचना नहीं है। यह इंसानी फितरत है जो हमें लगातार कुदरत और कुदरत से हमारे
संबंधों के बारे में सोचने को मजबूर करती है। हम जो लिखें, उसमें विज्ञान के इस पहलू
को उजागर करने की कोशिश होनी चाहिए। पिछली सदी के बड़े वैज्ञानिकों में से एक
रिचर्ड फाइनमैन ने छोटे बच्चों को विज्ञान सिखाने की भाषा के मुद्दे पर कहा है कि शब्द
सीखना ज़रूरी है, पर पहले हमें विज्ञान सीखना है। चाभी घुमाने पर खिलौना क्यों चलता
है, इसके जवाब में 'एनर्जी' शब्द पर प्रतिक्रिया देते हुए वे कहते हैं कि आप तो यह कह
दो कि खुदा खिलौना चला रहा है। हिंदुस्तानी ज़बानों में विज्ञान की शब्दावली को आप
मजाक कह सकते हैं या एक ख़ौफ़नाक सपना। 'एनर्जी' अंग्रेज़ी ज़बान का आमफ़हम
लफ्ज़ है। फिर भी उन्हें आपत्ति थी। किसी ज़बान को क़त्ल करने का इससे बेहतर कोई
तरीका नहीं हो सकता है कि वैज्ञानिक शब्दावली को आम लोगों की पहुँच लायक न रखा
जाए। मेरी सीमित समझ यह है कि विज्ञान पढ़ाते हुए हमें अपनी तमाम ज़िंदा ज़बानों में
मौजूद तकनीकी शब्दावली को वापस ढूँढ लाना साथ-साथ करना होगा।
हिंदीभाषियों में से विज्ञान में महारत रखने वाले अधिकतर लोग हिंदी में आदतन नहीं
लिखते हैं। चूँकि पेशेवर वैज्ञानिक दिनभर अंग्रेज़ी में काम कर रहे हैं, अपने शोध-परचे
आदि अंग्रेज़ी में लिखकर छापते हैं, उनके पास हिंदी में लिखने का वक्त कम होता है।
धीरे-धीरे वे हिंदी में लिखने की क्षमता खो बैठते हैं। हिंदी में ज्यादातर विज्ञान लेखन
उनके द्वारा हो रहा है, जो खुद पेशेवर वैज्ञानिक नहीं हैं। वैज्ञानिकों का लिखा अक्सर
अंग्रेज़ी से अनूदित मिलता है। आगे आने वाली पीढ़ियों में पढ़े-लिखे लोगों में भारतीय
भाषाओं में विज्ञान पढ़ने-लिखने वाले लोग कम होते जा रहे हैं। अक्सर इन बातों को
बदलते वक्त का खेल कह दिया जाता है, पर दरअसल ये राजनैतिक सच्चाइयाँ हैं। विज्ञान
की भाषा कैसी हो, इसे अक्सर राष्ट्रवाद, विकास आदि मुहावरों में ढाल कर देखा जाता
है। किसका विकास? यह सवाल उठाया जाए तो हमें बुनियादी तौर पर अलग ढंग से इस
मुद्दे पर सोचना पड़ेगा। विज्ञान क्या है, किताबों में क्या लिखा होना चाहिए, कैसी भाषा
होनी चाहिए, इन सवालों के जवाब हमें पढ़ने या सीखने वाले को ध्यान में रखकर सोचना
चाहिए। चूँकि अब तक ऐसा नहीं किया गया है, इसलिए अपनी भाषाओं में विज्ञान पढ़ने-
लिखने की रुचि लगातार कम होती रही है। यह मुमकिन है कि अगले सौ सालों में
ज्यादातर पढ़े-लिखे हिंदुस्तानियों की मातृभाषा अंग्रेज़ी हो जाए और तब इस मुल्क में
बड़ी खोजें होने लगें। पर आज ऐसा कुछ होता नहीं दिखता है। जैसे-जैसे विमर्श की धुरी
अंग्रेज़ी की तरफ होती चली है, भारतीय भाषाओं में तकनीकी शब्दों का संकट भी बढ़ता
चला है। आम आदमी ही नहीं बुद्धिजीवियों के लिए भी ये भाषाएँ कठिन होती जा रही हैं
और उनके विमर्श में भागीदारी करने वालों का दायरा भी सिमटता जा रहा है। कृत्रिम
तकनीकी शब्दावली के बावजूद आज़ादी से पहले से ही आधुनिक विज्ञान का साहित्य भी
खूब लिखा गया।
यह समझना ज़रूरी है कि हमें पीछे की ओर खींचती तमाम ताकतों के बावजूद आधुनिक
टेक्नोलोजी हमारे जीवन का अंग बन चुकी है। दूरदराज इलाकों में भी बिजली, पानी से
लेकर शिक्षा और मनोरंजन तक हर पहलू में नई तक्नोलोजी हमारे चारों ओर है, हालाँकि
विज्ञान या वैज्ञानिक सोच के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। पर नई टेक्नोलोजी में
आधुनिक विज्ञान की भाषा है। इसलिए अगर हमारी भाषाओं में विज्ञान लेखन नहीं होगा
तो ये भाषाएँ ज़िंदा नहीं रह पाएँगीं। चूँकि विदेशी शब्द अपने इतिहास और संस्कृति में
हमसे सीधे तुरंत नहीं जुड़ते हैं, इसलिए लंबे समय तक हमारा मानसिक विकास पिछड़ा
रहेगा। इसलिए हमारी भाषाओं में विज्ञान लेखन का अनुपात बढ़ना चाहिए। इस वक्त
हिंदी का कोई अखबार विज्ञान पर कोई विशेष पन्ना नहीं निकालता है। यह चिंता की बात
है कि मान लिया गया है यह हमारी भाषा का मसला नहीं है। संपादकों की सोच की यह
सीमा बड़ी समस्या है।
क्या लिखा जाए, कैसी शब्दावली हो, यह दूसरा सवाल है। विज्ञान, वैज्ञानिक पद्धति और
सोच की बात दार्शनिक सवाल खड़े करती है, जिन पर बातें होनी चाहिए, पर इसके लिए
व्यापक हिंदी समाज में कोई तैयारी नहीं दिखती। वैज्ञानिक खोज और नई टेक्नोलोजी
पर ही लेखन होता रहे तो भी ठीक है। हमने अपनी भाषा और शब्दावली को सचेत रूप
से खोया है। आम कामगार लोगों की ज़बान में कारीगरी से जुड़े जो शब्द होते थे, उनका
इस्तेमाल न कर कृत्रिम तत्सम शब्द थोपे गए। इससे भयंकर नुकसान हुआ है। हम
अपने ही खिलाफ षड़यंत्र में शामिल होते रहे हैं। आज तकनीकी शब्दों के लिए अंग्रेज़ी
शब्दों के इस्तेमाल का कोई विकल्प नहीं बचा है। इस स्थिति को हमें मानना होगा। साथ-
साथ हिंदी के बहुभाषी समाज में जहाँ कारीगरी के जैसे शब्द चल रहे हैं, उनको वापस
विज्ञान की शब्दावली में लाने की कोशिश करनी होगी। कई लोगों में यह ग़लत समझ भी
है कि संस्कृत का हर शब्द हिंदी में स्वाभाविक रूप से इस्तेमाल हो सकता है। ऐसी सोच
हमारे कई वैज्ञानिकों भी दिखती है। इसका कारण यह हो सकता है कि उनमें से
अधिकतर सामाजिक-राजनैतिक चिंतन से विमुख हैं और वे ऐसी जातियों से आए हैं,
जिनमें संस्कृत का थोड़ा बहुत प्रचलन रहा है। विद्वानों में यह संशय पैदा नहीं होता कि
शब्दावली क्लिष्ट हो रही है। वे एक तरह की सांप्रदायिक और कुछ सामान्य
पुनरुत्थानवादी सोच से जन्मी मानसिक जड़ता के शिकार हैं। सामान्य छात्रों और
अध्यापकों को परेशानी झेलनी पड़ती है और यह बात जगजाहिर होते हुए भी विद्वानों को
नहीं दिखती है। फाइनमैन ने समझाया था कि शब्द महत्त्वपूर्ण हैं, उनको सीखना है, पर
पहली ज़रूरत यह है कि विज्ञान क्या है, यह समझ में आए। ये दो बातें बिल्कुल अलग हैं
और यह बात खास तौर पर हमारे समाज में लागू होती है, जहाँ व्यापक निरक्षरता और
अल्प-शिक्षा की वजह से आधुनिक विज्ञान एक हौवे की तरह है। एक समय था जब
लोगों को लगता था कि धीरे-धीरे ये नए कृत्रिम शब्द बोल-चाल में आ जाएँगे, पर ऐसा
हुआ नहीं है। भारतीय भाषाओं का जितना नुकसान उन पोंगापंथियों ने किया है जो
संस्कृत के कृत्रिम शब्दों को विज्ञान आदि विषयों में डालते रहे हैं, इतना शायद ही किसी ने
किया हो। आज हिन्दी प्रदेश में विरला ही कोई वैज्ञानिक होगा जो अपने काम को हिंदी
में समझा सकता है। संपन्न सामंती लोग आधुनिक पूँजीवादी संस्कृति का हिस्सा बनते
चले हैं और भाषा के बारे में उनका रुख बदलता रहा है। आज उन को कोई फ़र्क नहीं
पड़ता कि आम लोगों की भाषा क्या है और किस भाषा में कामकाज से उन्हें सुविधा
होगी। उन्होंने पूरी तरह से अंग्रेज़ी को अपना लिया है।
शब्द महज ध्वनियाँ नहीं होते। हर शब्द का अपना एक संसार होता है। जब वे अपने
संसार के साथ हम तक नहीं पहुँचते, वे न केवल अपना अर्थ खो देते हैं, वे हमारे लिए
तनाव का कारण बन जाते हैं। यह सही है कि अंग्रेज़ी में शब्द की उत्पत्ति कहाँ से हुई,
इसे समझकर उसका पर्याय हिंदी में ढूँढा जाना चाहिए। पर लातिन या ग्रीक तक पहुँच
कर उसे संस्कृत से जोड़कर नया शब्द बनाना किस हद तक सार्थक है - यह सोचने की
बात है। किसी भी शब्द को स्वीकार या खारिज करने का सरल तरीका यह है कि वह हमें
कितना स्वाभाविक लगता है, इस पर कुछ हद तक व्यापक सहमति होनी चाहिए। अगर
सहमति नहीं बनती तो ऐसा शब्द हटा देना चाहिए। यह सही है कि वैज्ञानिक शब्दावली
के लिए सटीक शब्द ढूंढने पड़ेंगे, पर ये शब्द पहले लोक-जीवन से लिए जाएँ और धीरे-
धीरे उनमें सफाई की जाए तो समस्या नहीं आती। आज हिन्दी में साइंस की तालीम और
चर्चा के लिए अंग्रेज़ी शब्दों का कोई विकल्प नहीं बचा है। हममें से कई लोग मजबूरी में
अंग्रेज़ी का इस्तेमाल करते हैं, पर अधिकतर मान चुके हैं कि अंग्रेज़ी के बिना अब कोई
राह नहीं। यह बड़ी विड़ंबना है। एक समय था जब तमाम मुसीबतों के बावजूद फारसी
और संस्कृत तक में समकालीन यूरोपी कृतियों के अनुवाद उपलब्ध होते थे। होना यह तय
था कि समय के साथ इन शास्त्रीय भाषाओं के अलावा बोलचाल की भाषाओं में सामग्री
उपलब्ध हो। और तकनीकी तरक्की से यह काम आसान भी होता गया है। पर जापान,
चीन के बरक्स हमारे यहाँ बहुत कम ही लोग इस तरह के शोध या तकनीकी-विकास में
लगे हैं, जिससे एक से दूसरी भाषाओं में अनुवाद का काम आसानी से हो सके।
आज यह भारत में ही है कि जनसंख्या के उस विशाल वर्ग पर, जो आधुनिक समय की
सुविधाओं से वंचित हैं, बौद्धिक विमर्श ऐसी भाषा में होता है जिसका इस्तेमाल उन्हें
वंचित स्थिति में रखने के लिए औजार की तरह किया गया है। भारतीय भाषाओं में विमर्श
सीमित होते जा रहा है। जैसे-जैसे संपन्न वर्ग भारतीय भाषाओं से विमुख हो रहा है,
आर्थिक कारणों से इन भाषाओं की रीढ़ टूटती जा रही है।
बांग्लादेश जैसे छोटे मुल्कों को यह फायदा है कि वहाँ ज्यादातर लोग एक स्थानीय भाषा
में काम चला लेते हैं। तमाम आर्थिक संकटों के बावजूद बांग्लादेश कई मानव विकास
आँकड़ों में भारत से आगे बढ़ गया है और कुल मिलाकर उसकी स्थिति भारत के बराबर
ही है। पर वहाँ भी अंग्रेज़ी का वर्चस्व कम नहीं हुआ है और अंग्रेज़ी को हटाकर बांग्ला या
दीगर और भाषाओं को लाने की कोशिश कमजोर ही है। पाकिस्तान में मुख्य ज़बानें
अंग्रेज़ी और उर्दू हैं, जो खल्क की अक्सरीयत की ज़बान नहीं हैं। ज्यादातर मानव
विकास आँकड़ों में पाकिस्तान भारत से काफी पीछे है। यह देखने की बात है कि इस
पिछड़ेपन में भाषा की भूमिका कितनी है।
एक तर्क जो सतही तौर पर ज्यादा वजनदार दिखता है, वह स्थानीय स्तर पर ताकतवर
लोगों की भाषाओं का कम ताकत वाले लोगों पर अपनी भाषा लादने के खिलाफ अंग्रेज़ी
को खड़ा करने का है। इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल हिन्दी और गैर-हिन्दी ज़ुबानों के
बीच के संकट के संदर्भ में होता है। गहराई से सोचने पर इस तर्क का बेमानी होना
साफ़ हो जाता है। तमिल या कन्नड़ भाषियों को हिन्दी के खिलाफ खड़ा होना है, हिन्दी
थोपने के खिलाफ उनकी लड़ाई वाजिब है और किसी भी हिन्दी प्रेमी को यह बात समझ
में आनी चाहिए। पर क्या इसलिए कि उन्हें अंग्रेज़ी चाहिए? जब हम अपनी ज़बान में
तालीम की बात करते हैं, इसका मतलब सही अर्थ में अपनी ज़बान होना चाहिए।
भोजपुर क्षेत्र के बच्चे को भोजपुरी में, बुंदेलखंड के बच्चे को बुंदेली में और
कबीलाई इलाके के बच्चे को उसकी अपनी ज़ुबान में तालीम मिलनी चाहिए।
संस्कृतनिष्ठ शब्दावली को हिन्दी कहकर थोपने से हिन्दी और दूसरी भाषाओं का
विरोध बढ़ेगा और यह विलुप्ति की ओर और तेजी से बढ़ेगी। यानी लड़ाई अपनी
ज़ुबान के पक्ष में होनी चाहिए, न कि संस्कृत या अंग्रेज़ी के लिए। एक स्थानीय
ज़ालिम से बचने के लिए बाहरी और भी बड़े ज़ालिम को लाने का तर्क क्या मायने रखता
है!
अंग्रेज़ी के पैरोकारों में अगर कोई लड़ाई काफी हद तक सही है तो वह उनकी
लड़ाई है, जिन्हें यह लगता है कि जाति-व्यवस्था पर आधारित शोषण में भाषा की
भूमिका अहम रही है। इसमें कोई शक नहीं कि हिंदुस्तानी ज़बानें दलित अनुभवों और
अभिव्यक्ति को उचित जगह देने में नाकाम रही हैं। पर इसका हल अपनी ज़बानों में जगह
ढूँढने की लड़ाई होनी चाहिए न कि अंग्रेज़ी में। दलित बुद्धिजीवियों की पीड़ा गहरी है और
उसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। पर साथ ही हमें अमेरिका के काले लोगों या
वहाँ के मूल निवासियों से सीख लेनी चाहिए कि उत्पीड़कों की भाषा सीख कर हम
आज़ाद नहीं हो जाते। जो भी थोड़ी बहुत नस्ली बराबरी उन मुल्कों में आई है, वह संघर्षों
से आई है। यूरोपी साहित्य और दर्शन नस्लवादी सोच और भेदभाव से भरा हुआ है।
इसलिए यह मान लेना कि अंग्रेज़ी सीख कर भारत के दलित मनुवाद से आज़ाद हो
पाएँगे, सही नहीं लगता है। बेशक आज अंग्रेज़ी ज़बान में मुक्तिकामी साहित्य की भरमार
है। सदियों की मार से निकलना चाह रहे दलितों को यह भी लगता है कि अंग्रेज़ी ज़बान में
महारत सत्ता और संपन्नता की ओर ले जाती है। आज प्राथमिक स्तर पर स्कूल में भर्ती
हुए 100 बच्चों में से सिर्फ 18 ही हाई स्कूल तक पहुँचते हैं। असफलता के कई कारणों
में भाषा मुख्य है। ज्यादातर बच्चे अंग्रेज़ी और गणित में ही फेल होते हैं। इसलिए इस बात
पर और गहराई से सोचना होगा।
भारत में फासीवाद के उभार पर बहुत सारे चिंतक विमर्श करते रहते हैं। पर एक कारण
ऐसा भी है, जिस पर बातचीत कम हुई है और सुनियोजित ढंग से नहीं हुई है। अगर हम
यह देखें कि गत बीस सालों में कौन सी बातें एक जैसी रफ्तार से बढ़ती रही हैं, तो उनमें
एक मुद्दा भाषा का होगा। अंग्रेज़ी हिंदुस्तानी ज़बान नहीं है।
हम जो भाषा बोलते हैं, वही हमें परिभाषित करती है। जैसे पहले कहा गया, हमारी विश्व-
दृष्टि, जीवन के प्रति हमारा नज़रिया, इनके साथ भाषा का गहरा संबंध है। हम अपनी
बात को औरों तक पहुँचाने, सही-ग़लत के बारे में अपनी समझ साझी करने के लिए
भाषा का इस्तेमाल करते हैं। यह अकारण नहीं है कि नफ़रत फैलाने वाले नेताओं की
भाषा हमारी सांप्रदायिक अस्मिता को जगाने में सफल हो जाती है और गाँधीवादियों से
लेकर तमाम तरक्कीपसंद समूहों का विमर्श जिसमें लगातार अंग्रेज़ी बढ़ती जा रही है,
बड़ी संख्या में लोगों को मुश्किल से छू पा रहा है। खासतौर पर उत्तर भारत में जहाँ
तथाकथित मानक हिन्दी भी लोकभाषाओं से बहुत परे है, यह देखने वाली बात है कि
वहीं पिछड़ापन सबसे ज्यादा है और नफ़रत की राजनीति वहीं सबसे ज्यादा सफल हुई
है।
यह दुनिया तरह-तरह के संकटों और विरोधाभासों से भरी है। ऐसे में सोचने वाले लोगों के
लिए यह ज़रूरी है कि हम ताकतवरों और कमजोर को पहचानें और कमज़ोर लोगों के
पक्ष में बात रखें। आज यह भारत में ही मुमकिन है कि हम स्थानीय भाषा में बातचीत
करने या पढ़ने-लिखने में नाकाबिल रह कर भी किसी संस्थान में ताज़िंदगी काम करते
रहें। एक तरह से यह रवैया स्थानीय आम लोगों को अदृश्य मानने का है, जैसे कि उनके
होने न होने का हमारी ज़िंदगी में कोई असर ही नहीं पड़ता हो।
जो लोग देश के सामान्य जन पर बात करते हैं और किसी भी भारतीय भाषा में
पढ़ते लिखते नहीं हैं, उन्हें खारिज करना जरूरी है, क्योंकि देश में फासीवाद के
उभार का एक कारण वे खुद हैं। देशी भाषाओं में मीडिया का प्रबंधन ऐसे ही लोगों के
हाथ होने के कारण अक्सर इन भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं में अंग्रेज़ी का पिछलग्गूपन
दिखता है। कई हिंदी पत्रिकाओं का नाम अंग्रेज़ी में है, वो भी ऐसे लफ्ज़ जो आम आदमी
नहीं समझता। सौ साल बाद समाज-शास्त्री और संचार विज्ञान के शोधार्थी इस पर काम
करेंगे कि आज का भारतीय बुद्धिजीवी किस तरह की बनावटी दुनिया में जी रहा है और
इसके कारणों में भाषा का सवाल कितना महत्वपूर्ण है। अंग्रेज़ी लचीली भाषा है, अंग्रेज़ी
की शब्दावली बड़ी है; स्वाभाविक है कि अंग्रेज़ी के शब्द भारतीय भाषाओं में आ रहे हैं -
यह सब तो ठीक है, पर जो खलिश है, वह यह है कि बकौल गाँधी 'अंतिम जन' को
उसकी अपनी भाषा में बात करता कौन दिखता है। कुल मिलाकर एक अजीब स्थिति है,
जिसे कई लोग भारत और इंडिया के दो समांतर दुनिया का नाम देते हैं। देशी भाषा में
बातें करते हुए अगर हम महज अंग्रेज़ी का अनुवाद ही कर रहे हैं, तो वह भारत की नहीं,
इंडिया की ही भाषा है। धीरे-धीरे भारत कमजोर पड़ता जा रहा है, चुनांचे वह
फासीवादियों के चंगुल में फँसता जा रहा है। कई लोग कहेंगे कि यह रैखिक युग्मक
(बाइनरी) में फँसी हुई सोच है, पर सचमुच मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह जटिल और साथ ही
सामाजिक घटना के रूप में बड़ी सरल सी बात है। अंग्रेज़ी सीखना या बोलना अपने आप
में कोई दोष नहीं है, पर भारतीय सामाजिक-सियासी मंज़र में कई अंग्रेज़ी वाले एक
अलग सत्ता अपना लेते हैं। यह इंग्लिशवाला होना अपने साथ देशी भाषा के प्रति
उदासीनता ही नहीं, उपेक्षा का स्वभाव लिए होता है। इंग्लिशवाला होना शासक वर्गों के
साथ होना है, आम लोगों से अलग होना है। समझदार लोग भी विमर्श के लिए अंग्रेज़ी को
चुनें, तो आम लोगों तक पहुँचने के लिए कौन बचा रहेगा? जब तक ज़मीनी ज़ुबान में
सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ प्रतिबद्ध सोच रखने वाला कोई है तो ठीक है, जब
शासन की मार या अन्य कारणों से ऐसे लोग नहीं हैं तो मैदान संकीर्ण राष्ट्रवाद के लिए
खुला है। भाषाओं का कमज़ोर होना सिर्फ मुहावरों का विलुप्त होना नहीं है, यह
सामूहिक और निजी पहचान का घोर संकट पैदा करता है। इस संकट से निपटने के
कई तरीके हो सकते हैं - एक तो यह कि हर स्तर पर स्थानीय भाषाओं में काम हो, हर
स्तर पर शिक्षा मातृभाषा में हो। इसके विपरीत फासीवाद वह मरीचिका है जो
सामयिक रूप से उत्पीड़ित इंसान को इस ताकत का आभास देती है कि मेरी बोली
में ताकत न हो न सही, पर अपनी भी कोई हस्ती है। जब भाषा में बिखराव होता है,
जैसा कि आम लोगों पर बोलते हुए अँग्रेज़ीदाँ विशेषज्ञों में दिखता है, तो वह सतही रह
जाती है और सवालों का हल नहीं दे पाती। फासीवादी संगठनों में समकालीन विमर्श
एकतरफा होता है और उनके अधिकतर कार्यकर्त्ता देशी भाषाओं में पारंगत होते हैं। इस
तरह फासीवाद अपनी जड़ें जमाने में सफल होता है।
जो समस्या विज्ञान तक सीमित होनी चाहिए थी, वह धीरे-धीरे समाज-विज्ञान तक फैल
गई है। अब हाल यह है कि हिन्दी प्रदेशों का हर बुद्धिजीवी अंग्रेजी में लिखे विमर्श को
पढ़ता है। सिर्फ भाषा और साहित्य के साथ सीधे-तौर पर जुड़े लोग ही हिन्दी में लिखी
सामग्री कभी-कभार पढ़ लेते हैं। इससे एक तो हिन्दी में समकालीन विमर्श के दायरे
सिकुड़ते जा रहे हैं और दूसरी ओर कम पढ़कर ज्यादा और ग़लत बोलने वालों की संख्या
बढ़ती जा रही है।
तो आखिर समाधान क्या है? यह संभव नहीं है कि हम अंग्रेज़ी का बहिष्कार करने की
मुहिम चलाएँ। ऐसा करना बचकानी बात होगी, पर यह ज़रूर है कि हम इस बात को
समझें कि इंसान का पूर्ण विकास तभी संभव है जब उसे तालीम अपनी जबान में मिले।
अंग्रेज़ी पढ़ाई जाए - जहां ज़रूरत है, जैसे मिडिल स्कूल से अंग्रेजी को एक विषय की
तरह पढ़ाया जाए तो इसमें कोई हर्ज नहीं। पर दुनिया भर में शिक्षाविद् जो कहते हैं हम
उसे सुनें - किसी दूसरी भाषा को सीखने के लिए पहले अपनी भाषा में महारत होनी
ज़रूरी है।
अक्सर लोग हिन्दी की बात करते हुए ऐसी मानक भाषा की बात करते हैं, जो पूरे हिन्दी
क्षेत्र में एक जैसी लागू होती है। ऐसी ही ग़लत धारणा गैर हिन्दी राज्यों और वहाँ की
तथाकथित मानक भाषाओं के साथ है। इसके पीछे एक तरह के संकीर्ण राष्ट्रवाद की
भावना काम कर रही होती है। राष्ट्र-राज्य की धारणा जहाँ से आई है, उस यूरोपी भूखंड
के लोग इस बात को समझ गए हैं कि राष्ट्रीय अस्मिता से इंसान का भला कम और
नुकसान ज्यादा हुआ है, इसलिए वे संस्कृति-बहुल मानवीय अस्मिता पर अधिक जोर देने
लगे हैं। मानव के सर्वांगीण विकास के लिए जो कुछ जरूरी है, उसमें उसकी अपनी भाषा
प्रमुख है। हिन्दी के लिए इससे बड़ी चुनौती और कुछ नहीं कि हम खुले दिमाग से इसके
बहुभाषी स्वरूप को स्वीकार करें। मानकीकरण के बिना तरक्की संभव नहीं, इस ग़लत
धारणा को जड़ से उखाड़ना होगा। अगर हिन्दी को एक सशक्त भाषा बने रहना है, तो
उसे अपनी इस ताकत को समझना होगा कि इसमें हिन्दी प्रदेशों में बोले जाने वाली सारी
भाषाएँ समाहित हैं। इसका मतलब यह हुआ कि न तो हम भोजपुरी, अवधी, बुंदेली आदि
तमाम भाषाओं को हटाकर मानक हिन्दी को प्रतिष्ठित करने की कोशिश करें और न ही
उन भाषाओं को हिन्दी की बोलियाँ कहें। संस्कृत से लिए गए तत्सम शब्दों का इस्तेमाल
ग़लत नहीं है, पर पहली ज़रूरत यह है कि स्थानीय भाषाओं में बोले जाने वाले शब्दों को
अधिक से अधिक जगह दें, इसी तरह फारसी-अरबी से लिए गए शब्दों का इस्तेमाल ठीक
है, पर ज़बरन उन्हें न थोपा जाए। यह विड़ंबना ही है कि आज ज्यादातर लोग यही नहीं
समझ पाते हैं कि हिन्दी, उर्दू, हिन्दुस्तानी दरअस्ल एक ही ज़ुबान है और इसमें तत्सम
और अरबी-फारसी लफ्ज़ों के इस्तेमाल की अलग तहज़ीबें हैं, जिन्हें हम हिन्दी या उर्दू
कहते हैं। कई इस बात पर अटक जाते हैं कि हिन्दी और उर्दू के अलग खुशख़त हैं। सही
है, पर लिपि से भाषा तय नहीं होती है। आज़ादी के वक्त 12% साक्षरता थी। हिन्दी प्रदेश
में इससे भी कम रही होगी। यानी 10% लोग ही लिखने की काबिलियत रखते थे। पर
भाषा सौ फीसद लोगों की होती है। जैसे एक ही लिपि होने से हिन्दी, मराठी और नेपाली
एक भाषा नहीं बन जाते, उसी तरह अलग लिपि का होना हिन्दी और उर्दू को अलग
ज़ुबान नहीं बनाता है।
कभी मैंने भाषा के मुद्दे पर संवाद करती हुई एक गद्य-कविता लिखी थी, उसे पढ़ता हूँ;
उम्मीद है कि संदर्भ आफ समझ जाएँगे।
जो नहीं है उसे सामने रखता हूँ
मैं उनके लिए चाय बिस्कुट लिए खड़ा होता जैसे कोई पुरुष कवि नहीं होता। मैं कहता,
आपको बीड़ी पीनी है तो बरामदे में जाना होगा, घर में बच्चा है। क्या वे नाराज़ होते?
बीबी को कहते कि आपलोग जाइए बरामदे में - हमें नज़रअंदाज़ कर कमरे में सिगरेट पी
ही लेते?
उस दिन उनसे मिल ही गया तो उन्होंने मुझे सिगरेट ऑफर की। मैंने कहा कि मैंने तो कब
की छोड़ दी तो हँसे, कहा कि रख लो, क्या पता फिर कब शुरू कर दो। मैंने कहा कि नहीं
मैं वाकई नहीं पीता तो कहा कि अरे यह खास है - यह पैकेट मुझे शमशेर ने दिया था रख
लो, कभी इस पर कविता लिखना। मैंने पूछा कि कहानी लिखें तो चलेगा। हँसकर कहा
कि कवियों पर कहानी लिखोगे तो लोग तो कविता ही कहेंगे। यह मुझे पता है कि दूर
दराज लोग पूछते हैं कि तुम गद्य में कविता क्यों लिखते हो।
कभी-कभार वह सिगरेट निकाल कर सामने रखता हूँ। अजीब महक मुझे सम्मोहित कर
लेती है और आवाज़ें सुनाई पड़ती हैं क्या पढ़ा है तुमने क्या जानते हो हिंदी की कहानी -
मैं कहता हूँ कि खुसरो मियाँ जो कर गए सो कर गए, कि लोग लगे हैं राममार्ग को सोना
जुग बखानने कि हम जैसे लोग तो वह भाषा ही नहीं समझ पाते और इतना ही होता कि
अवधी ब्रज में ही विज्ञान रच डालते पर ये तो तत्सम से नीचे उतरते ही नहीं और आप
कौन सा ब्रह्मराक्षस कविता में लोगों की बोली में बात करते हैं।
कहना था कि वर्हाडी में चालू हो गए – क्या? मैंने पूछा कि बोली में क्यों नहीं लिखा तो
हँस पड़े बोले कि तुम पढ़ते? फालतू बात छोड़ो और सिगरेट नहीं चाहिए तो लाओ इधर
मैं कभी पी लूँगा।
और इसलिए वह सिगरेट मेरे पास नहीं है।
रखता हूँ, जो नहीं है उसे सामने रखता हूँ। तो?
**
जैसा अँधेरा मुक्तिबोध के जमाने में था, कुछ अर्थों में उससे कहीं ज्यादा गहरा अँधेरा
आज है। उन दिनों भौतिक रूप से अँधेरे से बच निकल कहीं और भाग चलने के उपाय
थे, आज जहाँ हम खड़े हैं, वहीं खुद से पलायन करते हुए अपनी मानवता को भूलते हुए
महज यंत्र बन कर ही जीना संभव है। सही है कि अँधेरा और घना होता जा रहा है।
अधिक चिंता की बात यह है कि यह अचानक उछल कर आता अँधेरा नहीं है, यह सदियों
से जमा अँधेरे का और घनीभूत होना है। मानो अँधेरे ने इतिहास से सबक लेकर धीरे-धीरे
हमारी कोशिकाओं को एक-एक कर ज़ब्त करते हुए हमें पस्त करने की सोची है। इसके
बरक्स उजाले की ताकतें छिन्न-विच्छिन्न हैं, बिखराव की पराकाष्ठा है। ऐसे में हर सचेत
इंसान के अंदर बैठा कोई अज्ञात हृदय की धक्-धक् सुन कर परेशान होता है - 'अँधेरे में'
उसी धक्-धक् को पहचानने को हमें मजबूर करती है।
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