Sunday, April 19, 2020

क्रिस्टोफर कॉडवेल का द्वंद्वात्मक विज्ञान – रॉब वालेस

आलोचना-61 (2019) में प्रकाशित 

क्रिस्टोफर कॉडवेल

बीसवीं सदी के मार्क्सवादी आलोचकों में क्रिस्टोफर कॉडवेल एक बड़ा नाम है। 
1907 में जन्मे कॉडवेल 1937 में स्पेन के गृहयुद्ध में फासीवादियों के खिलाफ 
लोकतांत्रिक मोर्चे की ओर से लड़ते हुए, 29 साल की उम्र में मारे गए। इतनी 
कम उम्र में ही समकालीन साहित्य और विज्ञान पर उन्होंने गंभीर चिंतन किया 
था। इसके लिए उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन और औजारों का इस्तेमाल किया। वे 
ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। उनकी मौत के बाद साहित्य और 
विज्ञान की आलोचना पर उनकी आठ किताबें प्रकाशित हुई हैं। दुनिया भर में 
इनमें से कुछ किताबों को पाठ्य-पुस्तकों के रूप में पढ़ा गया है। इसके अलावा 
उनके दो कविता संग्रह, दो कहानी संग्रह और एक जासूसी उपन्यास, डेथ 
ऑफ ऐन एअरमैन, भी प्रकाशित हुए।

यह बड़े अचरज की बात है कि कॉडवेल ने मुख्यधारा के समाजविज्ञानियों द्वारा 
डार्विन के विकासवाद की ग़लत व्याख्या की आलोचना करते हुए जैविकी के 
ऐसे गंभीर सवालों को छेड़ा, जिन पर आज गंभीर बहस छिड़ी हुई है, जब 
जैविकी पर आणविक स्तर की बेहतर समझ बन चुकी है। रॉब वालेस ने 1986 
में प्रकाशित उनकी किताब 'हेरिडिटी ऐंड डेवलपमेंट' की गहन समीक्षा की है
जिसकी शुरुआत में कॉडवेल का रोचक परिचय है।


इंकलाबी बायोलॉजी
क्रिस्टोफर कॉडवेल का द्वंद्वात्मक विज्ञान रॉब वालेस

मंथली रीविउ' के नवंबर 2016 अंक में प्रकाशित आलेख

आइस ऑफ हीरोइक हार्ट सील्स प्लाज़्मिक सॉएल / व्हेयर थिंग्स 
लुडिक्रस्ली टेक रुट” चार्ल्स डॉनेली –1937

(बिखरी हुई माटी को बहादुर दिल की बर्फ ढक लेती है / और वहाँ चीज़ें 
बेतुके ढंग से जड़ पकड़ती हैं)


अगले साल ख़ारामा की जंग की अस्सीवीं बरसी होगी।

फरवरी 1937 में फ्रांसिस्को फ्रांको के फासीवादी हमले के खिलाफ माद्रिद 
शहर को बचाने में लड़ते हुए ग्यारह हजार रिपब्लिकन मारे गए थे। इनमें से 
ज्यादातर आलमी एकजुटता के तरफदार थे। स्पेन के गृहयुद्ध के इस चरण पर
विद्रोही राष्ट्रवादी और रिपब्लिकन ताकतों के बीच मुल्क बराबर-बराबर बँटा 
हुआ था।1 माद्रिद पर इसके पहले हुआ एक हमला खदेड़ा जा चुका था। इसके 
बाद रिपब्लिकन ताकतों ने मान्सानारेस नदी के किनारों पर अपनी सुरक्षा 
मजबूत की। माद्रिद की दक्षिणी बस्तियों पर हमला करने पर फ्रांको को भारी 
नुकसान उठाना पड़ता। इसी बीच में सिएरा दे गुआदार्रामा की पहाड़ियों पर 
पापुलर फ्रंट की ताकत ने शहर के उत्तरी हिस्से में जेनरल एमीलिओ मोला के 
सिपाहियों को रोक रखा था।

फ्रांको के हिमायती राष्ट्रवादियों ने रिपब्लिक की जंग के दौरान तय की गई अस्थायी राजधानी से माद्रिद का संपर्क तोड़ने की ओर ध्यान दिया। उन्होंने वालेन्सिया की ओर सड़क पर कब्जा जमाने के लिए उत्तर की ओर घूमने से पहले दक्षिण की ओर गश्त लगाना तय किया। फ्रांको ने जंग लड़ते हुए पुख्ता हो चुके अपने 40,000 मोरक्कन (मोरक्को से आए) सिपाहियों और मुसोलिनी की भेजी एक टुकड़ी के सिपाहियों को हमला करने का हुक्म दिया। 11 रवरी को ये सेनाएँ ख़ारामा नदी पार कर गईं। दिमित्रोव बटालियन और ब्रिटिश बटालियन समेत पंद्रहवीं अंतर्राष्ट्रीय ब्रिगेड की तीन बटालियनों को लेकर रिपब्लिकन जेनरल होसे मिआहा ने हमले का सामना किया।
12 रवरी की सुबह, चिचोन शहर से चार टुकड़ियों वाली ब्रिटिश बटालियन आगे बढ़ी। एक छोटी घाटी से चढ़ते हुए दुश्मन-फौज के पूरब की ओर ख़ारामा के पठार पर पहुँचने के दौरान सिपाहियों ने कई निजी चीज़ें बाँटी।नमें इस्पानी भाषा में लिखी और मार्क्सवाद पर भारी किताबें, नीत्से और स्पिनोज़ा की प्रतियाँ, बौद्ध धर्म पर रीस डेविड्स की किताबें और अनगिनत कविता-संग्रह शामिल थे। ख़ारामा की लड़ाई में शामिल जेसन गर्नी ने अपने संस्मरण में कहाउनमें से अधिकतर यह मानते थे कि कुछ ही घंटों में लड़ाई खत्म हो जाएगी और उसी दिन बाद में किसी वक्त वापस इकठ्ठा करने के खयाल से अपना सामान कहीं ढंग से जमाते गए।”2 पठार पार कर चुकने के बाद ब्रिटिश टुकड़ियों ने कासा ब्लांका (सफेद हवेली नामक) पहाड़ी पर और उसके आस-पास मोर्चा गाड़ा। पहाड़ी के बीच की चोटी पर एक छोटा फार्महाउस थाजिससे रिपब्लिकन सिपाहियों को आड़ भी मिल रही थी और वही जर्मन तोपचियों के निशाने पर भी थी। पीछे की ओर मशीन–गन चलाने वाली एक ब्रिटिश टुकड़ी ने मोर्चा गाड़ा।ससे आगे की ओर जमे हुए मोर्चे का बचाव हो पा रहा था।

खून से रंगा ख़ारामा

आज की तरह उन दिनों भी वह घाटी जैतून के पेड़, झाड़ियों और पथरीली 
दर्रों से भरी थी।ससे दोनों ओर की फौजों को मिल रही आड़ बहुत पुख्ता 
नहीं थी, पर राष्ट्रवादी कहीं ज्यादा तजुर्बेदार थे और बेहतर औजारों से लैस थे। 
ब्रिटिश टुकड़ी में सिर्फ  आई आर ए (आईरिश रीबब्लिक आर्मी) से आए भूतपूर्व स्वयंसेवक किट कॉनवे की कमांड तले एक कंपनी को स्पेन में जंग लड़ने का तजुर्बा था।3 और मशीन–गन वाली टुकड़ी को यह जानकर घोर हताशा होनी थी कि रूसी माक्सिम बंदूकों के साथ सही गोलाबारूद नहीं भेजा गया था। कम तजुर्बा और कामचलाऊ असलाह रिपब्लिकन फौजों के लिए तबाही की वजह सिद्ध हुए, भले ही वे बड़ी शिद्दत से जूझ रहे थे और उनकी मोर्चाबंदी भी मजबूत थी। ब्रिटिश सिपाही बुरी तरह हार गए। बारह तारीख को मोर्चे पर मौजूद 600 सिपाहियों में से सिर्फ 225 ही मौत और घायल होने से बच पाए।

गर्नी नाम का सिपाही अपने मुल्क ब्रिटेन में संगतराश का काम करता था। 
ब्रिटिश कमांडर टॉम विन्ट्रिंगहैम ने उसे जंग के बारे में जानकारी लेने के लिए 
भेजा

मैंने देखा कि घायल लोगों के एक समूह को मरहम-पट्टी के लिए किसी 
ठिकाने पर ले जाया गया था, ... जहाँ इसका कोई इंतज़ाम नहीं था,... और 
उन्हें वहीं छोड़ दिया गया था। करीब पचास स्ट्रेचर(चौखटे) वहाँ पड़े हुए थे 
और हरेक पर कोई लेटा हुआ था, पर

सिपाहियों में से कई मर चुके थे और बाक़ी में से अधिकतर सुबह तक मर 
जाने की हालत में थे। इनमें से ज्यादातर गोलाबारूद से ज़ख्मी हुए थे और 
चोटें इतनी भयंकर थीं कि हालत में सुधार होने की कोई उम्मीद न थी; ये 
सभी ऐसे सिपाही थे जिनको मैं अच्छी तरह जानता था और कइयों को तो 
बहुत करीब से जानता था एक अठारह साल का यहूदी युवा… पीठ पर 
लेटा हुआ था… उसकी अंतड़ियाँ नाभि से बाहर निकलकर गुप्तांग तक फैली 
हुई थीं। घिनौनीसी मटमैली कुंडलियों में अंतड़ियाँ पड़ी हुई थीं। जब उन 
पर मक्खियाँ चक्कर लगातीं तो वे जरा फड़क–सी उठती थीं। वह पूरी तरह 
जगा हुआ था… एक सिपाही जिसे मैं खास तौर पर बहुत पसंद करता था
सीने में नौ गोलियों से लगी चोटों से मर रहा था। उसने मुझे अपना हाथ 
थामने को कहा… और मैं तब तक थामे रहा जब उसका हाथ निस्तेज हो 
गया और मैं जान गया कि वह मर चुका था। मैं बिल्कुल बेबस-सा एक से 
दूसरे तक जाता रहा… कोई भी रो या चीख नहीं रहा था… वे सब पानी 
माँग रहे थे, पर मेरे पास पिलाने को पानी नहीं था। उनकी पीड़ा और उनकी 
मदद करने में अपनी नाकामी से मैं इस कदर दहशत से भर गया कि मुझे 
लगा कि मेरी आत्मा को स्थायी चोट पहुँच चुकी थी।4

सके बाद से कासा ब्लांका पहाड़ी को खुदकुशी की पहाड़ी कहा जाने लगा। बच 
गए स्वयंसेवक पीछे हटकर बटालियन के हेडक्वार्टर में आ गए। राष्ट्रवादियों ने 
तेजी से उन मोर्चों पर धावा बोला, जो अब खाली हो चुके थे। पर अब तक 
मशीन-गन की टुकड़ी को सही गोला-बारूद मिल चुका था, उन्होंने उन्हें रोके 
रखा। अगले दिन ब्रिटिश टुकड़ी को फिर बड़ी हार मिली। विन्ट्रिंगहैम ने 
“यांक” बर्ट लेवी को उद्धृत करते हुए लिखा है:

तीन बजे के करीब दुश्मन ने हमारे दायीं ओर के पठारी छोर पर दो गोले 
दागे। दायीं ओर ताककर मैं हैरान रह गया कि चौथी टुकड़ी के सिपाही 
कमांडर ओ० (बर्ट ओवर्टन) की अगुवाई में करीब 25 गज की दूरी तक जान 
लगाकर दौड़भाग रहे हैं। फिर कंपनी (टुकड़ी) नंबर दो के हैरी (फ्राई) और 
मैंने मशविरा किया और बीच में खड़ी मशीन-गन को करीब 50 गज दायीं 
ओर भेजा और बाद में जब हमने 25 और 50 के गुटों में दुश्मन के सिपाहियों 
को झाड़ियों में से होते हुए पहाड़ी पर चढ़ते हुए देखा, तो हैरी ने वापस 
मशीन–गन को अपनी पहले की जगह पर वापस लौटाने का आदेश दिया।

ओ० ने हमें पीछे हटने के लिए संदेश भेजा, पर यह जानते हुए कि पिछले 
दिन उसने कैसी कमजोरी दिखलाई थी, फ्राई ने उसकी बात पर जरा भी 
ध्यान नहीं दिया। फिर फ्राई पीछे तक गया और वापस लौट कर उसने हमें 
कहा कि हम हर हाल पर अपने मोर्चे पर डटे रहेंगे और ओ० की कही किसी 
बात पर जरा भी ध्यान नहीं दें…

दुश्मन की बंदूकों से चलती गोलियों की तादाद बढ़ चली। फिर मैं सामने की 
बंजर ज़मीन के पार देखने के लिए50 गज अपनी दायीं ओर चला और मैंने 
बड़ी तादाद में फासिस्टों को वहाँ मौजूद पाया।


विन्ट्रिंगहैम ने आगे लिखा: “लेवी और फ्राई ने मुझे ओ० की कायरता के बारे में 
एक लफ्ज़ भी कभी नहीं कहा था। अगर मुझे यह पता होता कि 12 तारीख को 
वह कैसे अपने सिपाहियों को छोड़कर भाग गया था तो मैंने उसे 13 को फ्राई 
के मोर्चे के बगल से बचाव के लिए सिपाही न दिए होते।”

बगल से कोई सुरक्षा न होने से, हर तरफ से टुकड़ी घिरती चली। और “पत्थर 
की दीवार की ओर से आते फासिस्ट ऊपर चढ़ते चले जा रहे थे, जहाँ ओ० 
को अपने सिपाहियों को तैनात करना था। दायीं ओर पीछे से लेवी पर हमला 
कर रहे फासिस्ट ओ० की बंदूकों के 100 गज सामने थे। वह पीछे दौड़ते हुए 
सड़क पर ऐसी जगह पहुँच चुका था, जहाँ उसके सामने जैतून के पेड़ थे और 
ज़मीन में ढलान थी। इस वजह से जो जिम्मेदारी मैंने उसे सौंपी थी, उसके 
लिए वह पूरी कर पाना असंभव हो गया था। और वह महज कुछ गोलीबारी और दो मौतों की वजह से पीछे हट गया था।”5

जाहिर है कि यह प्रहसन महज एक कायर कमांडर का मसला ही नहीं था
बल्कि अधूरी तैयारी, कमज़ोर असलाह और माद्रिद में अपने से ज्यादा 
ताकतवर दुश्मन के खिलाफ ग़लत रणनीति और नेतृत्व से निकला था। दो 
दिनों में दो सौ ब्रिटिश सिपाही मारे गए और लड़ते रहने के काबिल केवल 140 ही बचे रह गए। कमाल की बात थी कि ब्रिटिश मोर्चा एक और रात बुलंद रहा। 
पर अगले दिन तोप-टैंकों की मदद से राष्ट्रवादियों के हमले ने रिपब्लिकन 
ताकतों की अगली कतार को कुचल डाला। तमाम नुकसान और शारीरिक और मानसिक रूप से पूरी तरह थक चुकने के बावजूद, बचे हुए 140 जवानों ने बहादुरी के साथ मोर्चे को वापिस हासिल किया। इससे फासिस्ट हैरान रह गए। उन्होंने ग़लती से एकजुटतावादियों (इंटरनैशनलिस्ट्स) को अपनी ओर से आई नई फौजें समझ लिया। ख़ुदकुशी-पहाड़ी के पार पठार के किनारे रिपब्लिकन कतारें फिर से जम गईं। दोनों ओर से मोर्चाबंदी हो गई और जंग की बाक़ी अवधि तक ख़ारामा में गतिरोध जारी रहा।

मोटरसाइकिल चलाने वाला लोहार

ख़ारामा की लड़ाई के पहले दिन, 12 फरवरी, के अंत में 3 नं० टुकड़ी के दो 
जवानों ने चार्कोट लाइट मशीनगन का भार संभाला। वे ख़ुदकुशी-पहाड़ी पर से 
पीछे हट रही ब्रिटिश फौज को आड़ दे रहे थे। क्लेम बेकेट ने लोहार के काम की 
ट्रेनिंग ली थी और वह ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी (सी पी जी बी) का सदस्य 
था।6 1920 के बाद के दशक में आखिरी सालों में धड़ाधड़ बढ़ रहे 
मोटरसाइकिलों के जाल में वह भी तेज़ी से दौड़ रहा था। मेले के मैदानों में मौत 
के गुबंद (डोम ऑफ डेथ) में मोटरसाइकिल चलाने में उसने नाम कमाया था। 
इसके बाद तेज चलने वाले वाहनों की सड़कों (स्पीड-वे) पर रेस में वह 
शामिल होने लगा। खास तौर पर कामगार वर्गों में इस खेल की लोकप्रियता 
बढ़ने के साथ बेकेट और उसके साथियों ने एक नया स्टेडियम बनाने में अपनी 
बचत लगा दी। हाँ ‘डेयरडेविल’ (साहसी) बेकेट ने, जिसे ग्रेहम स्टीवेंसन ने 
अपने ज़माने का डेविड बेकम (प्रसिद्ध फुटबाल खिलाड़ी) कहा है, 15000 
लोगों के सामने प्रतियोगिता जीती 1930 के इस रेसिंग स्टार को तेज 
गति के एहसास में बेहद मजा आता था, उसे भीड़ से उठते गरजते शोर का 
हल्का सा एहसास ही होता था; वह उस बुलबुले में खो जाता था, जिसे बड़े 
खिलाड़ी ‘द ज़ोन’ (रहस्यमय इलाका) कहते हैं।7

पर मोटरसाइकिल की दुनिया के वे शुरुआती दिन बड़े बेरहम थे। स्टेडियम के 
मालिक बेतज़ुर्बा जवानों को खेल में शामिल कर लेते थे, जिससे कई बार बड़ी 
चोटें और यहाँ तक की मौतें हो जाती थीं। इस शोषण को रोकने की कोशिश में 
बेकेट ने ‘द डर्ट-ट्रैक राइडर्स एसोसिएशन’ नामक ट्रेड यूनियन बनाने में मदद 
की; “उसके चमड़े के जैकेट के नीचे सोने का दिल था। वह दिल कामगार 
लोगों के संघर्ष के साथ एक ताल में धड़कता था।”8 1930 के बाद के पहले 
सालों में बेकेट आम लोगों के इस्तेमाल की खुली जगहों के लिए मुहिम में 
सक्रिय हो गया। ब्रिटिश वर्कर्स स्पोर्ट्स फेडरेशन की मैनचेस्टर शाखा द्वारा 
आयोजित किंडर ट्रेसपास में वह शामिल हुआ, जिसमें 400 घुसपैठियों ने 
पुलिस और ज़मींदारों के साथ लड़ाई लड़ी, कि उन्हें वहाँ आने दिया जाए। इसे 
बाद में पीक डिस्ट्रिक्ट नैशनल पार्क बना दिया गया। (द किंडर ट्रेसपास : अप्रैल 1932 में 400 से ज्यादा लोग किंडर स्काउट नामक दलदली पठार में गैरकानूनी ढंग से घुस गए। - अनु0)

फिर स्पेन में जंग छिड़ गई। सी पी जी बी की मैनचेस्टर शाखा के दूसरे सदस्यों 
के साथ बेकेट भी अंतर्राष्ट्रीय ब्रिगेड में शामिल हो गया। बेकेट ने मोर्चे से अपनी 
पत्नी को लिखा: “मुझे पता है कि तुम समझ लोगी कि अगर मैंने मदद न की 
होती तो मैं कभी भी संतुष्ट न रह पाता। फासीवाद के प्रति नफ़रत की वजह से 
ही मैं यहाँ आया हूँ।”

हरफनमौला उपसंपादक

चार्कोट गन पर लगा दूसरा आदमी क्रिस्टोफर सेंट जॉन स्प्रिग था, जिसे 
क्रिस्टोफर कॉडवेल के नाम से बेहतर जाना जाता है। अपने भाई के साथ 
मिलकर हवाई उड़ान और एप्लाइड साइंस की किताबें छापने का धंधा शुरू 
करने से पहले पंद्रह साल की उम्र में उसने स्कूल की पढ़ाई छोड़कर किशोर 
पत्रकार का काम किया था। वह छिप–छिपकर जासूसी उपन्यास और कविताएँ 
भी लिखता था। उसके राजनैतिक विचार आम परंपरागत किस्म के थे। सच है 
कि,

1926–27 में थोड़े वक्त तक क्रिस्टोफर ने एसोसिएशन ऑफ ब्रिटिश मलया 
(मलेशिया) के लिए पहले उप-संपादक और बाद में संपादक का काम 
किया। पत्रिका का मुख्य उद्देश्य रबर और टिन के बाज़ार का विकास था। 
ब्रिटिश मलया की विचारधारा ब्रिटिश साम्राज्य के पक्षधरों की थी और स्प्रिग 
भाइयों को यह ग़लत नहीं लगती होगी, क्योंकि 1926 की आम हड़ताल के 
दौरान उन्होंने हड़ताली कामगारों की जगह स्वयंसेवक बनकर काम करने की 
पेशकश की थी।10


पर लेबर पार्टी की नपुंसकता, मुल्क में आर्थिक-संकट, फासीवादियों के ब्रिटिश 
संगठन की बढ़ती ताकत, बुर्जुआ संस्कृति के विकार, मार्क्स को पढ़ना और 
वैज्ञानिक भौतिकवाद की अपनी समझ से निकलते निजी रास्तों के चक्कर 
लगाते हुए 1934 में कॉडवेल सी पी जी बी का सदस्य बन गया। "पहली जंग से 
तो बच गए, नए आतंक सामने आ गए। तंगी से बनी टूटन में सब कुछ खत्म हो 
रहा है,” कॉडवेल ने अपने जमाने के उपदेशात्मक लहजे में लिखा,

नात्सीवाद से बर्बरता और आतंक का सैलाब आ गया है। आगे क्या है
लगातार गहराते महा-संकट सा शस्त्रों का बढ़ता भंडार, सामूहिक पागलपन
राष्ट्रों का बौखलाए पागल कुत्तों जैसा व्यवहार। लगता है कि यह सब ऐसे 
लोगों को बड़े घोर संकट की भयंकर दिशा में ले जा रहा है। इन्हें इनकी वजहें 
मालूम नहीं हैं। अब भी बुर्ज़ुआ लोग आज़ाद होने का नाटक कैसे कर सकते 
हैं, वे कैसे मान सकते हैं कि उन्हें निजी स्तर पर मुक्ति मिल रही है? यह 
तभी हो सकता है जब कोई पहले से ज्यादा घटिया ग़फलतों में डूब जाए
कला, विज्ञान, भावनात्मकता और आखिर में अपने जीवन को ही नकार दे। 
बुर्ज़ुआ संस्कृति से उपजा मानवतावाद आखिर में उससे अलग होता जा रहा 
है। भयंकर खुला नंगा पूंजीवाद सारे आस्मां में छाता जा रहा है। और इससे 
अलग हो गई, या ज़बरन अलग की गई, मानवता को या तो सर्वहारा वर्गों के 
हाथ चढ़ना होगा या चुपचाप किसी कोने में दुबककर अपना गला काटना 
होगा।11

अपनी माँ की शादी के पहले वाले नाम से कॉडवेल ने दिन में 5000 शब्दों 
की चौंधियाती गति से बड़े आलेख लिखे। ये लेख जैविकी, भौतिकी, गणित
मनोविज्ञान, काव्यशास्त्र, और राजनीति की पड़ताल करते हुए द्वंद्वात्मक 
भौतिकवाद के विभिन्न प्रयोगों पर थे।12 साथ में वह कविता-कहानी भी 
लिखता रहा।

1936 में विक्टोरिया पार्क में हुई फासिस्टों की सभा के विरोध में हुए हििंसक 
प्रदर्शन में कॉडवेल शामिल हुआ।13 वह पारिस गया, जहाँ पापुलर फ्रंट 
(लोकप्रिय मोर्चा) ने आम चुनाव जीता था और वहाँ हफ्ते में 40 घंटे काम 
और दो हफ्ते तनख्वाह सहित छुट्टी की व्यवस्था लागू की गई थी। वतन 
लौटकर उसने ऐल्डस हक्सली के शांतिवाद की प्रतिक्रिया में लंबा पर्चा लिखा। 
दिसंबर 1936 में पापुलर फ्रंट के समर्थन में स्पेन में ऐंबुलेंस चलाने के लिए वह 
स्वयंसेवक बना। वहाँ पहुँचकर वह इंटरनेशनल ब्रिगेड में शामिल हो गया। “मैं 
एक मशीन-गन का नंबर 1 प्रभारी हूँ, या सही कहा जाए तो यह ‘फ्यूसिल 
मित्रेलूस’ (फ्रांसीसी नाम) है; पुरानी पड़ चुकी और बहुत विश्वसनीय न होने 
पर भी काम की है,” उसने अपनी मित्र एला लामोर को लिखा, जिसका 
जीवन-साथी जॉन लामोर कॉडवेल की टुकड़ी में काम कर चुका था, “मैंने 
सोचा था कि यहाँ आने के बाद मैं पार्टी सदस्यता की जिम्मेदारी छोड़ दूँगा और 
लिखने का काम करूँगा। पर जैसा होना होता है, पार्टी कहीं खत्म नहीं होती। 
सही बात यह है कि मैं एक राजनैतिक गुट का प्रतिनिधि हूँ जो सचमुच पार्टी का 
काम नहीं है। मुझे लेबर पार्टी के एक गुट को प्रशिक्षण देना है और मैं दीवार 
पत्रिका का सह-संपादक हूं।”14

अधिकारियों में से किसी को, यहाँ तक कि ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के 
केंद्रीय दफ्तर में भी, इस स्प्रिग/कॉडवेल बंदे के बारे में कुछ भी पता नहीं था। 
तब तक उसका एक ही सैद्धांतिक काम छपा था और जैसा कि जॉन बेलामी 
फोस्टर ने कहा है, बहुत बाद में ही वह “बेशक” अपनी पीढ़ी का सबसे 
बेहतरीन ब्रिटिश मार्क्सवादी ज़हन के रूप में पहचाना गया।15 ज्यादातर अकेले 
में और बिना सुविधाओं के लिखी कॉडवेल की उन रचनाओं पर इतिहासकार ई 
पी थॉम्पसन ने लिखा, “जो सामग्री भेजी गई है, ह महज नया ‘आइडिया’ 
नहीं है (या ताजा भेजा गया कोई पुराना आइडिया), बल्कि यह चीजों को 
देखने का नया तरीका है।”

कॉडवेल की गहरी समझ भरी बातें महज बड़ी तादाद में ही नहीं थीं, बल्कि 
उनमें उनको बाँधते हुए पहले से तैयार एकसूत्री विचार थे। ये पहले से सोचे 
विचार उसे सांस्कृतिक मानवशास्त्र (ऐंथ्रोपोलोजी), भाषाविज्ञान
मनोविज्ञान, दर्शन और शायद भौतिकशास्त्र और ज़हनी–विज्ञान के 
महत्वपूर्ण सवालों तक ले जाते हैं। यहाँ तक कि इन्हीं वैचारिक भ्रमों में से 
कुछ पारंपरिक मार्क्सवाद में भी गहरी पैठ कर चुके थे, यानी जो मार्क्सवाद 
के नाम पर जाने गए विचार थे, वे अपनी खुद की रोशनी के सहारे खड़े थे; 
इस तरह कट्टर मार्क्सवादी परंपरा में कॉडवेल की भूमिका किसी काफिर 
जैसी हो सकती थी।”16



डार्विनवाद का वर्गसंघर्ष

इन और कुछ और कारणों से कॉडवेल के अप्रकाशित लेखों में से एक 
“आनुवंशिकता और विकास (हेरेडिटी ऐंड डेवलपमेंट)” 1986 में ही व्यापक 
रूप से सामने आ पाया, जो मेरे अनुभव में जैविकी पर गहरी सोच का सबसे 
अच्छा काम है।17 यह तकनीकी महारत की वजह से कम और, जैसा लुडभिग 
विटगेन्स्टाइन ने कहा है, ऐसी बातों को समझने की इच्छा की वजह से ज्यादा 
हुआ है, जिन्हें दूसरे लोग देखने की हिम्मत नहीं कर पाते। आखिर कॉडवेल 
जीवविज्ञानी नहीं थे।

रेमांड विलियम्स, टेरी ईगलटन और जे० डी० बर्नाल जैसे दिग्गजों समेत कई 
आलोचकों ने कॉडवेल की आलोचना की है और उसके फूहड़ स्टालिनवाद में 
उसकी कई कमियों की जड़ें ढूँढी हैं, जबकि स्टालिनवादियों ने इन्हीं कमियों 
को बुर्ज़ुआ प्रवृत्तियों में डाला है।18 उसकी मौत के बाद उसके काम का 
संपादन करने वाले जाँ दुप्राक और डेविड मार्गोलीस तक ने कॉडवेल के काम 
में, खास तौर पर जैविकी में, उसके ज्ञान को नज़रअंदाज़ किया है।

हेरेडिटी ऐंड डेवलपमेंट’ में कॉडवेल के बौद्धिक गुणों और उसकी कमियों 
का फ़र्क सबसे साफ दिखता है। इस लेख में ‘जीव-पदार्थ की इच्छाओं’ 
जैसी कमज़ोर मानव-केंद्रिक शब्दावली का इस्तेमाल है; भयंकर नासमझी 
भरी एक दूसरे से उलट बातें हैं, जैसे जीव और परिवेश में बुर्ज़ुआ अलगाव” 
के बरक्सउनमें साम्यवादी सामंजस्य”। द्वंद्वात्मकता का यांत्रिक ढंग से 
इस्तेमाल किया गया है, जैसे “मूल डार्विनवाद ने वाइज़मान के जीवाणु-
सिद्धांत के रूप में इसके बरक्स, खुद ब खुद होती बड़ी तादाद में विविधता 
या ‘बेतरतीब बदलाव' के विरोधी सिद्धांत को जन्म दिया।"19


इन बातों में ज्यादातर सही हैं, पर इन चिंताओं में असल बात छूट जाती है, जैसे 
कहावत है कि पेड़ों को देखते हुए जंगल छूट जाता है। कॉडवेल ने आधुनिक 
द्वंद्वात्मक जीवविज्ञान के कई बुनियादी थीम और नियमों के शब्दचित्र बनाए हैं। 
अस्सी साल पहले किसी ने इन बातों का हिम्मत से विश्लेषण किया हो, यह 
अचंभे की बात है जीन को अफलातूनी अमूर्तन की तरह मानना, जीन 
और परिवेश में अलगाव, कारण-कारक व्याख्या, जीवों का शुरू में लघुरूप में 
होना और वहाँ से विकसित होने का भ्रम, प्रक्रियाओं के आदर्श नियम, परिवेश 
में विविधता के बावजूद एक ही तरह का जीन-संचालित शरीर-रूप विकसित 
होना, परिवेश में मौजूद जीवनिर्जीवों में संबंध बनाना, लाइसेंको के विचारों 
का वामपंथी खंडन और जैसे थॉम्पसन ने लिखा बुर्ज़ुआ वैज्ञानिकों में 
दूरदर्शिता का अभाव (रूसी वैज्ञानिक त्रोफिम लाइसेंको समकालीन जीनेटिक्स के खिलाफ था और उसने इसके खिलाफ मुहिम छेड़ी थी - अनु०)। यह सब कुछ रिचर्ड लेविन्स और रिचर्ड लेवोंतिन के द 
डायलेक्टिकल बायोलोजिस्ट के प्रकाशन के करीब पचास साल पहले की बात 
है, जिसमें इन्हीं में से कई विचारों को बढ़ाया गया है।20

कॉडवेल कोई जीवविकास-वैज्ञानिक नहीं था। अधिकतर जीवविज्ञानियों की 
तरह उसने ‘हेरेडिटी ऐंड डेवलपमेंट’ की शुरुआत डार्विन से ही की है, पर 
उसने व्यक्तित्व-वर्णन कम किया है।21 विकासवाद पर चार्ल्स डार्विन की प्रसिद्ध 
किताब द ओरिजिन ऑफ स्पीसीज़ के छपने के पचहत्तर साल बाद लिखते हुए 
कॉडवेल ने विकासवाद यानी प्रजातियों में बदलाव और डार्विन के कुदरती 
चुनाव के सिद्धांत को अपनाने के फ़र्क से शुरुआत की है, जिसे आज 
आमफहम माना जाता है। डार्विन के इस विचार को कॉडवेल ने ‘बार-बार 
सवालों के कटघरे में खड़ा’ और ‘गठन में धुँधला’ कह कर काटा है। इस वजह 
से पहली नज़र में लगता है कि उसने नव-डार्विनी संयोजन को नहीं समझा है। 
तब तक आर० ए० फिशर, सीवॉल राइट, और जे० बी० एस० हाल्डेन ने 
गणितीय तरीकों का इस्तेमाल कर धारणा के स्तर पर कुदरती चुनाव और 
मेंडेलियन जीनेटिक्स के बीच एकरूपता को दिखा दिया था। बीसवीं सदी के 
शुरुआती सालों में फिर से सामने आए मेंडेलियन जेनेटिक्स में शुरुआत में 
चयन के उलट बातें दिखती थीं।22 बेशक, जब तक दोनों को जोड़ा नहीं गया 
था, कॉडवेल सही राह पर था: डार्विन के सिद्धांत के रास्ते में रोड़े थेजैसा कि 
प्रजाति की जनसंख्या के माहिर वारेन ईवेन्स ने लिखा है:

1900 में मेंडेलवाद की फिर से खोज हुई। इसमें कणों से बनने–बढ़ने का जो 
सिद्धांत है, वह जैविक विकास में अचानक होने वाले बदलावों को मानने 
वालों को सही लग रहा था। ऐसा हुआ कि जल्दी ही बहुत सारे जीवविज्ञानी 
यह मानने लगे कि जीन में अचानक बेतरतीब बदलाव का नव-डार्विनवादी 
सिद्धांत ही सही है।मेंडेलवाद ने डार्विनवाद को खत्म कर दिया है’ यह 
विचार आम होने लगा। दूसरी ओर, प्रजातियों में शारीरिक बदलाव का मापन 
करने वाले इस बात को मानते रहे कि कुदरती चुनाव के द्वारा धीरे-धीरे 
विकास का डार्विन का सिद्धांत सही है और इस तरह वे मेंडेलियन व्याख्या 
की मुख्य बातों से असहमत थे, या कम से कम वे इस बात को नहीं मानते थे 
कि जीव के विकास में इस व्याख्या का कोई बुनियादी महत्व है।23


कुदरती चुनाव के सिद्धांत के पीछे जो तर्क और प्रमाणिकता है, कॉडवेल ने उसे 
खारिज करने की कई खामखयाली कोशिशें कीं। उसने इस बात को दिखलाया 
कि विकासवादी-जीवविज्ञानी विकास के जरिए सफलता को समझाने के लिए 
फिटनेस (दुरुस्ती) की बात दुहराते रहते हैं; बाद में वे इस समस्या से उबर गए 
हैं, उन्होंने प्रजाति में शरीर के एक जैसे लक्षण की खासियतों अनुकूलन 
के जरिए प्राणियों के जीवित रहने और प्रजनन की समझ बनाई है। उसने 
डार्विन के सिद्धांत को काटने के लिए जीव-निर्जीवों की साझी भौतिकता की 
एकरूप समझ बनाने की बेकार कोशिश भी की। निर्जीव वस्तुओं की व्याख्या 
कुदरती चयन के सिद्धांत का काम नहीं है। (हालांकि भौतिक विज्ञानी ली 
स्मोलिन ने ब्रह्मांडस्तर पर ऐसे ही सिद्धांत की कल्पना की है, जिससे बहु-
ब्रह्मांडों की व्याख्या हो सकती है)24

म्यूटेशन की बात करते हुए कॉडवेल कुदरती चुनाव के सिद्धांत पर जीवों में 
विविधता का सार थोपने की पुरजोर कोशिश करता है। वैसे, जीवों में विविधता 
के कई जटिल स्रोतों की उसकी सूची सही है, जिनमें सांस्कृतिक और 
परिवेश-जनित आनुवंशिकता भी शामिल हैं। और इस तरह प्रजातियों के सही 
शुरुआत और विकासवाद मेंसूक्ष्म से स्थूल प्राणियों में बदलने को समझाने में 
जो मुश्किलें आती हैं, जो आज भी मौजूद हैं, उनको वह सुलझाता है।

पर कुल मिलाकर कॉडवेल का मकसद डार्विनवाद को बिल्कुल नकारना नहीं 
है, बल्कि यह दिखलाना है कि ऐसे वैज्ञानिक सिद्धांत और उनके संकटों की 
जड़ें खास सामाजिक सन्दर्भों में होती हैं इसके पहले इस समझ को उसने 
भौतिकी की बात करते हुए सामने रखा था :

डार्विन के समकालीनों के लिए उसके सिद्धांत का महत्व, उनकी 
कल्पनाशीलता पर उसका प्रभाव, ‘पिछली पीढ़ी’ के आक्रामक हमलों से 
तीखे तेवर के साथ उसका बचाव, इन सभी बातों से यह पता चलता है कि 
उस जमाने के अग्रणी लोगों को यह सिद्धांत खास तौर पर खींचता था।

जब हम कुदरती चुनाव के सिद्धांत को परखते हैं तो हम पाते हैं कि नई 
प्रजातियों को बनाने वाले इस औजार की उस जमाने की पूँजीवादी 
अर्थव्यवस्था से अजीब समानता थी, जैसा कि सरमाएदारों ने इसे समझा।25


कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स समेत औरों ने पहले ही तर्क रखा था कि 
डार्विनवाद अपनी विक्टोरियन सामाजिक सांस्कृतिक धरोहर (ब्रिटेन में रुढ़िवादी मूल्यों का जमाना (उन्नीसवीं सदी – रानी विक्टोरिया का शासनकालको पेश करता है।26 पर जिस शिद्दत से कॉडवेल इस सिद्धांत को इसकी वैचारिक मांद से उधेड़ता है, से मान लेना उचित है :

मैनचेस्टर के उदारवाद और खुले बाज़ार को बनाने वाली डार्विन के जमाने 
की राजनैतिक अर्थव्यवस्था इस आस्था पर आधारित थी: अगर हर आदमी 
को खुद समाज में काम आने वाली वस्तुओं के उत्पादन और उनके खुले 
लेन–देन के लिए खुला छोड़ दिया जाए तो वह उसके समेत सभी लोगों की 
अधिकतर भलाई की बात होगी। उसका निजी लाभ समाज के फायदे में 
होगा। सभी विनिमय-मूल्य समाज में बढ़त के लिए होंगे और समाज की 
ज़रूरतों से न ज्यादा, न कम, बिल्कुल सही-सही उत्पादन होगा और हर 
इंसान को अपनी मेहनत की सही कीमत मिलेगी…

लगता है कि सप्लाई और डिमांड के "नियमों" के अधीन, दुनिया के बाज़ार 
में आ रही कुल संपदा के लिए खुली इच्छाओं की जद्दोजहद से समाज की 
तरक्की सुनिश्चित होगी। "संपदा" की जगह "भोजन की सप्लाई", "बाज़ार" की 
जगह "परिवेश", "निजी आज़ाद इरादे" की जगह "वजूद के लिए निजी संघर्ष" 
और " सप्लाई और डिमांड के नियमों" की जगह "भौतिक नियम" पढ़ा जाए
तो डार्विन और उसके समकालीनों द्वारा देखी गई कुदरती दुनिया की पूरी 
तस्वीर उभर आती है।27


कॉडवेल ने इस वर्ग-उल्लास को देश-काल-विशेष निरंतर बढ़ता लाभ कहकर
इसकी ऐतिहासिक व्याख्या की है :

अर्थशास्त्र का यह सिद्धांत व्यापार में सामंती रोक-टोक से बच निकलते 
बुर्ज़ुआ-वर्ग के प्रोग्राम को पेश करता है। आखिर इसी के जरिये पूँजी और 
ज़मीन पर पुराने अभिजात वर्ग के एकाधिकार के खिलाफ 1750–1850 में 
नए बुर्ज़ुआ-वर्ग का इंकलाबी उभार हुआ। जब तक पूँजीवादी विकास की 
गाड़ी को ब्रिटेन खींचता रहा, यह इंकलाबी सिद्धांत (कुदरती चुनाव) “खुले 
बाज़ार” का सिद्धांत रहा, जिसका नतीजा यह होना था कि सबसे ज्यादा 
तरक्कीपसंद मुल्क अपने-आप ही सामाजिक मुनाफे का ज्यादातर उठा ले 
जाएगा।28


शीनें छोटे काम-धंधों को खत्म कर पूँजी जमा करती हैं, जमा पूँजी फैलती है
फिर मुनाफा की दरें कम हो जाती हैं, ढाँचा संकटों में पड़ जाता है। इसे 
अर्थशास्त्रीय महारत या विदेशों में औपनिवेशिक शोषण के जरिए अस्थाई रूप 
से रोके रखा जाता है, और इससे “खुले बाज़ार” के शांतिपूर्ण मैदान के उलट 
निहित जंग, अन्याय और एकाधिकार उपजते हैं:



यानी कि (मैल्थूसियन) अर्थतंत्र की दुनिया में, कुदरती दुनिया में दिखने 
जैसा विकास कुदरती चुनाव से कतई नहीं जनमता, बल्कि कुछ अजीब
हिंसक और अभूतपूर्व ही इससे निकलता है। उत्तर-डार्विनियन इतिहास में 
कुदरती चुनाव कोई कुदरती नियम नहीं है, बल्कि यह समाज में, और वह 
भी किसी भी पूरे समाज में नहीं, बल्कि पूँजीवादी समाज में एक अजीब बात 
है; यह इतना अस्थिर है कि महज अमूर्त खयाल की तरह जीता है और 
सामने आते ही विनाश के रास्ते पर चलते हुए अपने को नकारना शुरु कर 
देता है।29


ह तर्क दिया जा सकता है कि खुद कुदरत पैने दाँतों और पंजों का खेल है, भले 
ही प्रजातियों की आपसी मदद से साथ जीने के कितने भी तरीके हों, और हम 
भी कुदरत का हिस्सा ही हैं। फिर भी कुदरती चुनाव वाला विकास सचमुच 
बाज़ार जैसा ही इस मायने में आज़ाद नहीं है कि जैसे कॉडवेल ने कहा
उसका कोई सामाजिक संगठन” नहीं है, पर ठीक ऐसे ही संगठन से ही 
उसका जन्म होता है। आर्थिक या पारिस्थितिक स्पर्धा भी एक दूसरे पर निर्भर 
इतिहास के नतीजों में जड़े हुए किसी संदर्भ पर निर्भर करती है।

कॉडवेल इसी थीम पर जोर डालता है, जैसा एड्रियन डेस्मांड और जेम्स मूर ने 
कई दशकों के बाद किया।30 बड़ी आर्थिक मंदी के दौरान लिखते हुए कॉडवेल 
स्टेशन छोड़कर जा चुकी ट्रेन की सवारी की तरह डार्विन को बैठाता है, जैसे 
जीवन में हर किसी के साथ होता है:

इस प्रक्रिया के ठीक बीच में डार्विन आता है। स्वार्थ और बेरहमी के साथ 
घमासान जंग (सामाजिक-आर्थिक) छिड़ चुकी थी। पर पूँजीवाद बढ़ोतरी 
की ओर था। इंसान की इंसान से हो रही जंग सभ्यता में उत्पादक ताकतों 
को दबा नहीं रही थी(जैसा आज है), बल्कि उन्हें अब भी बढ़ा रही थी। 
समकालीन बुर्ज़ुआ इंसान की नज़रों में वजूद के लिए चल रही यह खून से 
रंगी जद्दोजहद, तरक्की की ताकत थी। लग रहा था कि उस वक्त की सीख 
यही थी कि वजूद के लिए संघर्ष से तरक्की होती है।

उभरते औद्योगिक बुर्ज़ुआ-वर्ग द्वारा संघर्ष को और ज्यादा तीखा करने की 
लगातार माँग ने डार्विन की जवां सोच पर असर डाला था। मजदूरी की 
लागत बढ़ाने वाले अनाज उत्पादन पर रोक के कानून (कॉर्न कानून
औद्योगिक उत्पादन पर बेड़ियाँ बन गए थे [कॉर्न लॉ-ज़ (अनाजरोक कानून): 1815-46 के बीच यूनाइटेड किंगडम (ब्रिटेन) में अनाज के आयात पर लगाई गई रोक अनु०। इन नियमों से कुछ ही लोगों को फायदा होता था इसलिए भाड़ में जाएँ ऐसे कानून! आर्थिक नीतियों में “कुछ उद्योगों के हित में कानून को हटाए जाने की बात हर खित्ते में हो रही थी। इस इंकलाबी जमात की नज़रों में, जिसमें डार्विन भी शामिल थाजीने के लिए निजी जद्दोजहद को तीखा कर पाना ही तरक्की था। इसलिए कुदरती चुनाव एक वर्ग आधारित सिद्धांत था।31


कॉडवेल ने आगे लिखा कि चर्च ऑफ इंग्लैंड के खिलाफ लड़ाई सिर्फ विकासवाद 
के लिए नहीं, बल्कि एक खास तरह के विकासवाद के लिए थी, जिससे कि 
उस जमाने के बुर्ज़ुआ नज़रिये को प्रतिष्ठा मिल सके। जैसे आन्तोनियो नेग्री ने 
देकार्त के विचारों को और बेर्तोल्त ब्रेख़्त ने गालीलीओ के विचारों को पहचाना
वैसे ही कॉडवेल ने न्यूटन के सिद्धांतों की पहचान यूँ की कि बुर्जुआज़ी और 
अभिजात वर्ग तथा चर्च के बीच हुई पहली वैचारिक लड़ाइयों में उन सिद्धांतों 
की भी एक ही जैसी भूमिका थी।32 कॉडवेल के रचनावाद को विज्ञान के दर्शन 
और इतिहास की अध्येता हेलेना शीहान ने और बड़े परिप्रेक्ष्य में इस तरह 
लिखा है :

बुर्जुआज़ी के विकास के साथ पदार्थ की अवधारणा तक बदल रही थी। 
गालीलीओ और बेकन की समझ में पदार्थ के गुणधर्म होते थे और उसमें ऐंद्रिक 
एहसास होते थे। पर बुर्जुआज़ी के स्वामित्व में पदार्थ की पहचान के लिए
इंसान और कुदरत के बीच नाभिनाल को काटने, खुले बाज़ार के अलावा बाक़ी 
सभी रिश्तों से इंसान को आज़ाद करने, यानी निजी संपत्ति की एकतरफा 
पहचान के लिए, यह ज़रुरी था कि अवलोकन करने वाले को बिल्कुल हटा 
दिया जाए …

जब सरमायादारी का पहला चरण अपनी पराकाष्ठा पर था, जैसे-जैसे 
बुर्जुआज़ी अपने बहिर्मुखी, वर्चस्ववादी, खोजी दौर से हटकर अंतर्मुखी
विश्लेषक काल में सिमटता चला, सरमायादारी का भौतिकवाद अपने उलट 
मनस्तत्ववाद में बदलता चला। अपने दर्शन में वह लक्ष्य-वस्तु से हटकर देखने 
वाले कर्ता की ओर मुड़ा, क्योंकि उसकी पकड़ से वस्तु पिघलती जा रही थी। 
इसलिए दार्शनिकों की यह शृंखला बनी बर्कली, ह्यूम और कांट और 
आखिर में हीगेल। सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट का यही द्वंद्व फिर से बना, पर अब 
अपने विलोमी प्रतिरूप को साकार किया गया, उसके स्रोत की पहचान के बिना 
ही …

जहाँ एक ओर पद्धति और तरीकों ने सब्जेक्ट को खत्म कर ऑब्जेक्ट को 
जगह दी थी और आदर्शवाद ने ऑब्जेक्ट को खत्म कर सब्जेक्ट में मिला दिया 
था, प्रत्यक्षवाद ने दोनों को ही खत्म कर दिया।33

सामाजिकराजनैतिक स्थितियों को काबू में रखने के लिए जब जैसा ठीक 
लगा, उसी मुताबिक कुदरत को नाज़िर इंसानों से अलगथलग करने की 
कोशिश होती रही।


परस्पर गड्डमड्ड अंतहीन रूप

वैसे निहित सामाजिक निर्मितियों के होने से कुदरती चुनाव का सिद्धांत खारिज 
नहीं होता। सभी ज़रूरी विचार और उनके खंडन कहीं और शुरू होते हैं। 
डार्विनियन तंत्र में सरमाएदार भूतों को ढूँढ़ने की कॉडवेल की अपनी कोशिश में 
हमने दुरुस्ती का दुहराव, पदार्थवादी विविधता जैसी कई ऐसी बातों को जाना 
है, जो शुरुआत से ही ग़लत राह पर थे।

पर ‘हेरेडिटी ऐंड डेवलपमेंट’ के कुछ पन्ने पढ़ लें तो हम पाते हैं कि कॉडवेल 
महत्वपूर्ण बातें करता है। बड़ी कुशलता के साथ उन गाँठों को कॉडवेल खोलता 
है, जो प्राणी के परिवेश से अलगाव से उपजी वर्ग–आग्रह की अपेक्षाएँ हैं। वह 
यहाँ से बात शुरू करता है कि डार्विनियन कुदरती चुनाव का सिद्धांत नाकाम 
इसलिए नहीं होता कि इससे बहुत कम ही बातें समझाने की कोशिश हुई है
बल्कि इसलिए कि इसका इस्तेमाल बहुत ज्यादा बातें समझाने के लिए किया 
गया है। इसी विवाद पर स्टीफेन जे गूल्ड ने अपना सारा काम किया है।34 गूल्ड 
ने जीवों के विकास में चुनाव के अलावा और कई सारे वैकल्पिक विधियों की 
झड़ी लगा दी है खास मकसद की ओर बढ़ते हुए प्रजाति में विकास की 
अंदरूनी विधि, एक समुदाय के कई प्राणियों में जिस्मानी बनावट के एक जैसे 
रूप, वक्त के साथ शारीरिक परिवर्तन, जैविक दुनिया में प्राणियों को गोलक या 
ज्यामितिक आकार की तरह समझना (गाल्टन का पॉलीहेड्रन), क्रमवार 
विकास की सत्ता की धारणा, विकास में कई बार अचानक कई प्रजातियों का 
विलुप्त हो जाना और ऐतिहासिक सीमाएँ और भिन्न प्राणियों में होने वाली वृद्धि 
और बिखराव की प्रक्रियाओं में व्यापक एकरूपता।

पर कॉडवेल यहाँ इस बात को समझाने की ओर नहीं जा रहा है। प्राणी में 
बदलाव को बढ़ते–बदलते पूर्ण स्वरूप में देखने का पहले से अनुमान लगाते हुए 
कॉडवेल चेतावनी देता है, “प्राणी और उसके परिवेश को सटीक विलोम मानते 
हुए अलग कर पाना मुमकिन नहीं है। यथार्थ से अलग हुए विपरीत छोरों के बीच 
रिश्तों में ही जीवन है, ये छोर कुदरत के खिलने में हमेशा एक दूसरे से जुड़े 
रहते हैं। इस रिश्ते को वे परस्पर तय करते हैं।35 इस तरह, कुदरत में जो कुछ 
होता है, उसे विविधता के ऐसे टुकड़ों में नहीं बाँटा जा सकता, जो आपस में 
जुड़कर कुछ बनाते हैं; ऐसी कोशिश से किसी भी विकसित होती जीवन–घटना 
को हम सनकी घटना मानने की ग़लती कर बैठेंगे :

जहाँ तक पर्यावरण के नियमों द्वारा जीवन की प्रक्रियाओं पर नियंत्रण की बात 
है, ये नियम पर्यावरण में निहित नहीं हैं; ये जीवन और परिवेश के बीच रिश्तों 
से बनते हैं। इसलिए इंसान के परिवेश के जो नियम हैं, वे अपने आकार को 
बदलने में सक्षम एक-कोशिका या सूक्ष्म प्राणी, अमीबा, के परिवेश के नियम 
नहीं हैं; कुदरत को बाँधने वाला सबके लिए लागू कोई ‘सप्लाई और डिमांड 
का नियम’ नहीं है। इसलिए हम प्राणी और उसके परिवेश के बीच परस्पर 
क्रियाओं को नियंत्रित करते बाहरी नियमों के समूह को बुनियादी नहीं मान 
सकते। कोई भी ऐसे नियम दोनों के बीच क्रिया-प्रतिक्रिया से पैदा होते हैं 
और यह एक लगातार उभरता रिश्ता होता है।36


जैसे मार्क्स ने पारिस कम्यून के बिखरने पर लिखे आलेख ‘एइटीन्थ ब्रूमेयर’37 
में समझाया है, उसी सोच का सहारा लेकर कॉडवेल ने लघु आकार से 
लगातार होते विकास के निश्चितता के सिद्धांत को नकारते हुए द्वंद्वात्मक सोच 
को स्वीकारा। विकास की राह में जो दुविधाएँ आती हैं, उनके मुताबिक यह 
सोच खुद को बदल भी सकती है: “जीवन का विकास जीवन की प्रवृत्तियों से 
तय होता है, ठीक वैसे, जैसे इतिहास और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था इंसानी 
ख़्वाहिशों से तय होते हैं। पर इतिहास इंसानी ख़्वाहिशें पूरी नहीं करता: वह 
महज उनसे तय होता है, और वापस उनकी नियति तय करता है। इसी तरह
जीवन का विकास प्रवृत्तियों को तय करता है और उनसे तय होता है, पर उन्हें 
ठोस और सटीक रूप से पूरा नहीं करता है।”38

ये प्रभाव कमतर हैं, और कुछ प्राणियों में एहसास की काबिलियत और चेतना 
तक पैदा करते हैं : “प्राणी में बदलाव अपने आप ही जीवन और परिवेश के 
बीच जुड़ाव में बढ़त लाता है, जिसे हम परिवेश-जनित रिश्तों की ज़रूरत की 
चेतना कहते हैं। इस उभार से प्रवृत्तियों में रूपांतर, और उद्देश्यों में बदलाव 
और स्पष्टता ही तय नहीं होते, बल्कि इससे लक्ष्य में बदलाव के प्रति संगति भी 
पक्की होती है।”39

कुल मिलाकर आज जिसे परिवेश के मुताबिक खुद को ढालना माना जाता है
इसी की प्रस्तावना कॉडवेल ने की है और इसे भोजन की सप्लाई तक आगे 
बढ़ाया है; जिसका संदर्भ हाल में फिर से चर्चा में आए वी० सी० वाइन-
एडवर्ड्स में देखा जा सकता है।40

(भोजन-सप्लाई) जीवन और कुदरत के बीच बने खास रिश्तों से निकला हुआ 
है। माल्थूसियन नियमों के विपरीत … जैसा कि प्रजाति के सदस्यों की संख्या 
में बढ़त से होता है, प्रति सदस्य भोजन-सप्लाई में बढ़त होती है, इसी तरह 
एक प्रजाति के सदस्यों की संख्या में बढ़त दूसरी के लिए हानिकारक नहीं है
अगर वह दूसरी के लिए भोजन है। या प्रजातियों के बीच रिश्ते एक दूसरे का 
भला करते हैं, जैसे पक्षी बीज फैलाते हैं, मधुमक्खियाँ पराग-कण फैलाती हैं 
और मूँगों के पॉलिप रीफ बनाते हैं।41


यानी कि कारकों के गड्डमड्ड होने से ही वह विपुल और लगातार उभरती 
पारिस्थितिकी बनती है, जिस पर विकास निर्भर करता है। जीव-निर्जीव
जीवन और परिवेश, इंसान और कुदरत इन जैविक व्यवधानों को जन्म देने 
वाले “तनाव आपस में गड्डमड्ड हैं और इससे कुदरत में बढ़ती जटिलता उभरती 
है।” इसलिए “समय के साथ होते विकास के लिए कुदरती चुनाव जैसे नियमों 
को ढूँढ़ना मायने नहीं रखता, क्योंकि समय कोई डिब्बा या धारा नहीं है, इसे 
‘उभार का माध्यम’ नहीं मानना चाहिए; यह पदार्थ के विकास का महज एक 
पहलू है, जिसका दूसरा पहलू स्पेस या देश है। जो कुछ यथार्थ है, उसी का 
भौतिक उभार।” कई दशकों बाद दूसरे चिंतक भी इसी नतीजे पर पहुँचे।

द्वंद्वात्मक विचारवाले जीव-विज्ञानी रिचर्ड लेवोन्तीन ने 2002 में लिखते हुए 
तर्क पेश किया :

भीतर और बाहर के बीच अलगाव की डार्विन की धारणा आधुनिक जैविकी 
के विकास में एक ज़रूरी बुनियादी कदम थी। इसके बिना हम आज भी 
पुरातनवादी पूर्ण-स्वरूप की सोच के जाल में भटकते रहते… पर इतिहास 
के एक चरण में तरक्की के लिए ज़रूरी शर्तें किसी दूसरे चरण में और आगे की 
तरक्की के लिए बाधा बन जाती हैं… प्राणी न केवल यह तय करते हैं कि क्या 
उचित है और बाहरी दुनिया के ज़रूरी पहलुओं के बीच भौतिक रिश्ते बनाते 
हैं, बल्कि वे लगातार परिवेश को बदलने की काबिलियत रखते हैं… (और
जैसेजैसे बाहरी स्थितियाँ उनके परिवेश का हिस्सा बनती रहती हैं, वे 
उनके औसत गुणों में घटबढ़ करते रहते हैं।42


हाँ तक की स्लावोय ज़ीज़ेक ने भी कहा है :

मसला यह नहीं कि प्राणी कैसे खुद को परिवेश के अनुकूल ढालता है, बल्कि 
यह कि कैसी स्पष्ट सत्ता है, जो खुद को परिवेश के अनुकूल ढाले। और 
यहीं, इस महत्वपूर्ण बिंदु पर अजीब ढंग से, आज के जीवविज्ञानियों की 
ज़ुबान हीगेल की ज़ुबान जैसी लगने लगती है। जैसे खुद को बनाए रखने और 
प्रजनन आदि से बढ़ाते रहने वाले सिस्टम की धारणा के बारे में जब 
फ्रांसिस्को वारेला लिखता है, तो वह जीवन के बारे में हीगेलियन खुद
मुख्तार और लक्ष्यपरिभाषित सत्ता की धारणा को शब्दशः दुहराता है: … 
एक नेटवर्क ऐसी सत्ताएँ बनाता है, जो एक सीमारेखा बनाते हैं, जिससे 
सीमा बनाने वाले उस तंत्र की सीमाएँ तय होती हैं … इस तरह खुद को वह 
कीमिया या भौतिकी के घोल से आज़ाद कर लेता है (बिना बाहरी मदद या 
पर्याप्त संसाधनों के)।”43


डार्विन और लामार्क में कोई विरोधाभास नहीं है

जैविकी में भ्रमात्मक द्वंद्वों के जो विवाद रचे गए हैं, यह व्याख्या इन विवादों से 
छुटकारा दिलाती हैं। एक ओर संयोग से विविधता और दूसरी तरफ चुनाव का 
डिज़ाइन फिल्टर, जिसमें सबसे अच्छे परिवेश में दुरुस्ती का लाभ है, इन दो 
विचारों में परस्पर विरोध “बेतरतीब बदलाव, शृंखला में असंतुलन और जीनोम 
में फिर से अणुओं को सजाने, या बड़े स्तर पर कहा जाए तो सभी अनुकूलन 
क्रियाओं में एक साथ चल रहे हालात से जूझने पर हुए बदलाव और तज़ुर्बे से 
लाए बदलावों को, दरकिनार करता है।”

इसके अलावा अनुकूलन न तो महज आनुवंशिक रूप से मिलता ऐसा तंत्र है
जिसमें सही-ग़लत सब कुछ संतुलित हो और न ही, लामार्कियन नज़रिए में
महज तज़ुर्बे से यह जन्म लेता है। इस दूसरी बात वाली कॉडवेल की आपत्ति 
को शीहान ने ‘लाइसेंकोवाद का भीतर से पर साफ तौर पर खंडन’ कहा है। 
वह इसे सी पी जी बी (कम्युनिस्ट पार्टी) द्वारा “हेरेडिटी ऐंड डेवलपमेंट” को 
दबाने का पर्याप्त कारण मानती है।44 ऐसा इसलिए है कि इस फ़र्क की पहचान 
करते हुए कॉडवेल बुर्ज़ुआ और स्टालिनवादी दोनों से एक जैसी दूरी पर अलग 
हो जाता है। दोनों मत डार्विनियन और लामार्कियन समस्या को खुले 
मैदान में या कई में देखने की बजाय एक ऑब्जेक्ट में देखते हैं और यह मान 
लेते हैं कि प्राणी हमेशा अपने परिवेश के खिलाफ जूझता रहता है। सच यह है 
कि प्राणी और परिवेश एक दूसरे की सनक से मुठभेड़ करते हुए ही उभर सकते 
हैं और जैविक भाषा में, लकीर से हटकर प्रक्रिया के नियम बनाते हैं :

तयशुदा परिवेश या जिंदगी के तज़ुर्बे में ही जंतु के नियत गुण दिखलाई दे 
सकते हैं। जैसे, भोजन में कुछ रसायनों की मौजूदगी से ही रंग उभरते हैं
मैग्नीशियम की खुराक हो तभी मुर्गियों में मातृ-भाव सघन होता है (अधिक 
अंडे देती है) आदि। हर खास गुणवत्ता के लिए परिवेश का सही होना ज़रूरी 
है। एक तरह की खुराक दो नस्लों के मुर्गों पर पीले रंग का छिड़काव 
दिखलाएगी; कोई दूसरी खुराक खाने पर एक पर पीला तो दूसरे पर हरा रंग 
दिखेगा… पितरों से मिली और खुराक-पानी से मिली विशेषताओं में फ़र्क 
कर पाना सचमुच असंभव है ; क्योंकि हर खासियत उत्तराधिकार में मिले 
हालात पर शुरुआती खुराक-पानी की मदद से हुई प्रतिक्रिया ही है… 
(प्राणी के) गुणधर्म अंदरूनी और बाहरी प्रभावों के बीच संतुलन और उनमें 
संयोजन से ही बनते हैं। बाहरी दबावों में बदलाव से लक्षणों में बदलाव होते 
हैं, पर यह तभी होता है जब बाहरी प्रभाव के प्रति उस खास तरह का 
शुरुआती झुकाव प्राणी में हो।45


सी विशेषताओं पर डार्विनियन और लामार्कियन विचारों में झगड़े की जड़ एक 
खास ऐतिहासिक तत्वमीमांसा में है, जहाँ ये दोनों विचार ज्ञानप्राप्ति में 
अवरोधों से आते हैं, जिसपर नसीम निकोलस तालेब46 ने लिखा है। कॉडवेल 
ने आगे इस तरह लिखा है :

आज़ादी का मतलब क्या है और आज़ाद सोच और निश्चितता के बीच क्या 
रिश्ता है इन दोनों बातों पर बुर्ज़ुआ-वर्ग में अज्ञान न होता तो यह 
अस्पष्टता नहीं सामने आती। क्या आज़ाद खयाल ज़रूरत के प्रति चेतना का 
अभाव है, जैसा कि बुर्ज़ुआ सोचते हैं? ऐसा है तो संयोग से होती विविधता 
को उत्तराधिकार में मिली विविधता से अलग किया जा सकता, क्योंकि एक 
खुद ब खुद और आज़ाद है और दूसरी तयशुदा है। पर सच यह है कि संयोग 
से मिली विविधता ऐसी बात है, जिसकी वजहों के बारे में हमें कुछ नहीं पता
और ऐसी ही स्वतः-स्फूर्त विविधता भी है…

इसलिए पितरों से मिली विशेषताओं के प्रसार वाले लामार्कियन सिद्धांत और 
भ्रूण से ही पूर्ण शरीर के लगातार बनने के वाइज़मैन के जर्म प्लाज़्म सिद्धांत 
में कोई फ़र्क नहीं है। जब दोनों को प्राणी और परिवेश के मुताबिक सही-
सही परिभाषित किया जाए, तो वे एक दूसरे के विरोध में नहीं, बल्कि एक ही 
पूर्ण का हिस्सा दिखेंगे …47


स तरह से देखा जाए तो तरक्कीपसंद सुधार भी सही दूरी तक जाते नहीं 
दिखते। मसलन कोनराड वैडिंगटन के जेनेटिक ऐसिमिलेशन सिद्धांत के 
मुताबिक प्राणी के व्यवहार में परिवेश के प्रति होती प्रतिक्रिया कुछ पीढ़ियों के 
बाद जीनोम में एक दिशा में प्रवाहित या शामिल हो जाती है।48 इसके बाद 
परिवेश फिर बदल जाए तो भी जीन में टँकी नई विशेषताएँ अभिव्यक्त होती हैं। 
चाहे इससे जितनी भी रूढ़ियाँ टूटती हों, कॉडवेल की सोच के ढाँचे में 
वैडिंगटन का “विकास और बदलाव में संबंधकोई विशेष जगह नहीं ले पाता।


जैविकी में विवाद ज़रूरी क्यों हैं

इसके बाद कॉडवेल अपने रचनावाद पर वापस आता है। इस तरह वह मॉरिस 
गोडेलियर की बाद में लिखी थीसिस49 को अपने वक्तों में ढूँढ लेता है। वह 
बतलाता है कि कैसे बुर्जुआज़ी बाज़ार से जुड़ी अपनी ज़रूरतों को कुदरत की 
धारणा पर थोपता है (और वापस उल्टी दिशा में जाता है): “वह जीवन को 
मृत परिवेश के बरक्स खड़ा देखता है। परिवेश या बाज़ार के न बदलने वाले 
स्थिर स्वरुप से कुछ समस्याएँ सामने आती हैं, जिनका समाधान जीवन को या 
उत्पादक को करना है … यह धारणा अपनी सामाजिक भूमिका के प्रति बुर्ज़ुआ 
के समझ का प्रतिफलन ही है : आज़ादी का मतलब निर्जीव वस्तुओं को संपत्ति 
मानने का बेरोक अधिकार ही है; और उन वस्तुओं के निहित नियमों को समझ 
कर मुनाफे के लिए वह उनका इस्तेमाल करता है।”50

संपूर्ण यथार्थ बुर्ज़ुआ को चाहेअनचाहे तिकड़मबाजी करने के लिए मजबूर कर 
देता है, हालाँकि वह नाटक करता है कि बुनियादी तौर पर वह ऐसा नहीं कर 
सकता:

चूँकि सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट गड्डमड्ड हैं, संपत्ति की तिकड़मबाजी का 
मतलब ही इंसान के साथ धोखाधड़ी है, जिसमें बुर्ज़ुआ खुद शामिल है… वह 
जंतुओं के जनने को नियंत्रित कर उनके शरीर (मांस) और अंगों का 
इस्तेमाल करने की कोशिश करने को मजबूर होता है। जब सर्वहारा वर्ग 
इंकलाब की पहली लहर में हिल उठता है, तब वह इंसान की सोच  
उसकी इच्छाओं और चाहतों पर नियंत्रण करने को मजबूर हो जाता 
है… यह बुर्ज़ुआ की ज़रुरत बन जाती है कि वह तालीम का इंतज़ाम करे 
और अपनी बातें फैलाए। उसने सिर्फ जायदाद पर अधिकार की बात की थी
पर जाहिरा तौर पर अब वह जंतुओं और इंसान पर वर्चस्व जमाने तक पहुँच 
जाता है और इस तरह वह उनके स्वभाव की ज़रूरतों को समझने की 
कोशिश करने लगता है। इस तरह जैविकी और मनोविज्ञान में उसकी घुसपैठ 
होती है।51


इन वजहों से विज्ञान की ये दोनों शाखाएँ इतनी विवादास्पद हैं, क्योंकि इन दोनों 
से यह जाहिर होता है कि कैसे खुद बुर्ज़ुआ ऐसी स्थिति से उभर आते हैं, जहाँ 
वे जानते हैं कि उन्हें तिकड़म करनी होगी :

यहाँ मैदान सबसे ज्यादा ‘खतरनाक’ है। किसी भी पल बुर्ज़ुआ को पता चल 
सकता है कि उसकी इच्छा पहले से तय है। बर्कली, ह्यूम, शेलिंग, फिख़ते
कांट और हीगेल जैसे कई सारे चिंतकों ने इसी एक काम पर खुद को 
न्यौछावर कर दिया है, जिसे “दर्शन” कह दिया जाता है, कि पदार्थ से मनस् 
को हटाकर किसी तरह बुर्ज़ुआ आज़ाद इरादे को बचा लिया जाए और हीगेल 
इसे हद से बाहर तक ले जाता है। मार्क्स इसे उलट कर मन को वापस 
पदार्थ में ले आता है और इस तरह साम्यवाद का दर्शन पैदा होता है।52


हाल में हीगेलियन चिंतन के फिर से वापस लौटने के पक्षधरों को इस खंडन से 
परेशानी होगी, पर इसे कुछ हद तक सही ठहराया जा सकता है। इसके लिए 
एक ओर तो हम विषय-अनुशासन की धारणा को ही ले सकते हैं और दूसरी 
ओर भौतिक-विज्ञान से ईर्ष्या यानी अध्ययन के तमाम विषयों में अध्येताओं 
द्वारा भौतिक विज्ञान की तरह अपने काम में जटिल बातों को टुकड़ों में बाँट कर 
देखने के गणित और निश्चितता के तरीकों के इस्तेमाल को ले सकते हैं
हालांकि फिज़िक्स में इस तरह के सरलीकृत मॉडल काफी हद तक खारिज हो 
चुके हैं।53

(निरंतर; संदर्भ एक साथ अगली पोस्ट में)

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