Skip to main content

आज 'वाङ्चू' पढ़ते हुए


'वाङ्चू' - आज भीष्म साहनी को कैसे पढ़ें?
'बनास जन' पत्रिका के भीष्म साहनी विशेषांक में प्रकाशित

विश्व साहित्य में तकरीबन सभी भाषाओं में प्रवासी जीवन के अनुभव पर बहुत कुछ लिखा मिलता है। अपने परिवेश से हटकर किसी दूसरे मुल्क में जाने पर या अपने ही मुल्क में किसी ऐसे इलाके में जाने पर जहाँ रस्मो-रिवाज भिन्न हों, जैसी मुश्किलें आती हैं, इस पर पूरे विश्व-साहित्य में खूब लिखा गया है। प्रवासी भारतीय जो लंबे समय तक विदेशों में रहे हैं, उन्होंने ऐसे अनुभवों पर उपन्यास या संस्मरण लिखे हैं। भीष्म साहनी की 'वाङ्चू' कहानी में वाचक अपने प्रवास के अनुभव की कहानी नहीं कह रहा, बल्कि वह भारत में आए ऐसे विदेशी की कथा कह रहा है, जिसे उसका अपना देश अपनाना नहीं चाहता और भारत में भी, जहाँ वह बस गया है, यहाँ भी उसके लिए जगह नहीं रहती।

भीष्म साहनी की रचनाएँ अपने समय की जीवंत कथाएँ हैं। इसलिए उन की रचनाओं पर बहुत कुछ लिखा मिलता है, पर 'वाङ्चू' पर बहुत कम ही लिखा गया है। उनकी और दीगर कहानियों, उपन्यासों में समकालीन भारतीय समाज की विसंगतियों पर जोर है। 'तमस' और ऐसी कई रचनाएँ तो देश के विभाजन से उपजी त्रासदी पर हैं। पर गहराई से देखने पर हम जान पाते हैं कि सचमुच उनका लेखन मानव नियति पर है। सामाजिक प्रक्रियाओं से समूह-संस्कृतियों का बनना और ऐसे समूहों का परस्पर के प्रति हिंसा और नफ़रत में बह जाना, इसी के बीच संवेदनशील इंसान का पलना, बचपन से लेकर पूर्ण वयस्क अनुभवों तक से गुजरना, इन बातों को ही हम उनके लेखन में पाते हैं। मसलन उनके 'झरोखे' उपन्यास में ऐसे ही एक चरित्र के जरिए मानव नियति को ही दिखलाने की कोशिश है। इस अर्थ में उनके लेखन में ऐसी सार्वभौमिकता है, जो उसे अनन्य बना देती है। अपने रूप में बिल्कुल अलग होते हुए भी, उनकी रचनाएँ चेखव से प्रेमचंद तक के महान कथाकारों की रचनाओं की श्रेणी में आ जाती हैं।

'वाङ्चू' की कहानी भी ऐसे सार्वभौमिक तज़ुर्बे की ज़मीन पर खड़ी है। अपने देश को छोड़ कर दूसरे देश में जा बसने के कई कारण हो सकते हैं। अक्सर लोग आर्थिक कारणों से विदेश जाते हैं। पूरी तरह बौद्धिक कारणों से विदेश जाना कुछ ही लोगों के लिए संभव होता है। आजकल जब भारतीय युवा अमेरिका और दीगर यूरोपी मुल्कों में जाकर वहाँ बस जाते हैं, इसके पीछे बड़ी वजह पैसा कमाने और बेहतर भौतिक संसाधनों से संपन्न जीवन जीने की ही होती है। कुछ ही लोग ऐेसे होते हैं जिनको विशेष ज्ञान पाने की तड़प होती है और इसी खोज में वे पश्चिम जाते हैं। पुराने जमाने में विदेशों से लोग ऐसे ही कारणों से भारतीय उपमहाद्वीप के देशों में आते थे। धरती पर यही एक ऐसी जगह थी जहाँ मौसम खुशनुमा होने के साथ ही खेतीबाड़ी पर आधारित स्थाई समाज बस पाए थे। बौद्धिक अध्ययन और शोध के छोटे-बड़े केंद्र थे। हाल की सदियों में यहाँ से दूसरे देशों में बड़ी संख्या में लोगों का जाना उन्नीसवीं सदी में ही शुरू हुआ। मसलन कई मुल्कों (तब यहाँ दर्जनों छोटे-बड़े मुल्क थे) से बंधुआ मजदूर बनाकर अफ्रीका महाद्वीप और करिबीयन द्वीपों में लोगों को ले जाया गया।

शैली के लिहाज से 'वाङ्चू' साठोत्तरी 'नई कहानी' कही जाएगी। पर कहानी में कला नहीं, बल्कि चरित्र और घटनाएँ ही ध्यान खीचते हैं। सतही पाठ से यह कहानी महज एक चीनी शख्स के बारे में है, जो भारत आया और अपने जीवन के आखिरी दिनोें में सिर्फ शक्ल से चीनी होने की वजह से भारतीयों की हिंसा का शिकार हुआ। एक औसत भारतीय के मन में चीन के प्रति हमेशा ही विद्वेष का भाव रहा है। यह काफी हद तक नस्लवादी विद्वेष है। यहाँ तक कि हम अपने ही देश के उत्तर-पूर्व के लोगों को उनकी मंगोल शक्ल की वजह से चिंकी कहकर पुकारते हैं। कमाल यह है कि चीन पड़ोसी देश है, कभी भी भारतीय उपमहाद्वीप में हुई बौद्धिक तरक्की से पीछे नहीं रहा, भारतीय भूखंड के इतिहास के बारे में बहुत सारी जानकारी चीनी यात्रियों के लिखे विवरण से मिलती हैं, फिर भी चीनियों को लेकर हमारे मन में न केवल उत्सुकता कम है, बल्कि विद्वेष की भावना भरी हुई है। बीसवीं सदी में बड़ी तादाद में चीनी व्यापारी भारत में आए और कोलकाता जैसे शहरों में बस गए। उनके परिवार के लोगों को हमेशा ही भेदभाव का शिकार होना पड़ा। और आज भी स्थिति कोई बहुत बदली नहीं है। इसके विपरीत ऐसे उदाहरण भी हैं जहाँ भारत के कुछ लोगों ने चीन के बारे में जानने समझने की कोशिश की, यहाँ तक कि आपदाओं में उनकी मदद करने की कोशिश भी की। चीनी साम्यवादी क्रांति के दिनों में डॉक्टर कोटनीस और उनके सहयोगियों की समर्पित सेवा को आज तक चीन कृतज्ञता के साथ याद करता है और भारत-चीन मैत्री में यह एक स्तंभ है।

पर 'वाङ्चू' सिर्फ उस चीनी आदमी की कहानी नहीं है। जाति, नस्ल, धर्म और राष्ट्रीयता के आधार पर संकीर्णता ही इसका असली विषय है। आज इंसान इन सभी संकीर्णताओं से भरा हुआ है। इस संकीर्णता का फायदा उठाने वाले बहुत हैं और जाने-अंजाने हम उनका शिकार बनते हैं। आज देश की जो स्थिति है, उसमें यही माहौल चौंधियाता दिखता है। अपनी पहली लाइन में ही कहानी हमें कहती है कि हम अपने संकीर्ण सोच से अलग हर कुछ को दूर का मानते हैं। - 'तभी दूर से वाङ्चू आता दिखाई दिया।' धरती बहुत बड़ी है, पर जो दिखता है वह दूर दिखे, पर दिखता तो है। वाङ्चू का परिचय एक धर्मपरायण व्यक्ति का है, वह बौद्धभिक्षु नहीं है, पर वह वैसा ही दिखता है, और 'महाप्राण' यानी भगवान बुद्ध की बात करते हुए वह भावविह्वल हो उठता है और उसका गला रुँध आता है। भीष्म साहनी स्वयं पंजाबी हिंदू परिवार के हैं और मुख्यधारा का जो सुर कथावाचक में ढला है वह एक औसत भारतीय दृष्टि का है। कहानी में शुरू से ही हम सचेत हो जाते हैं कि कोई है, जिसका नाम हमारे नाम जैसा नहीं है, जो देखने में हम जैसा नहीं है, जिसके प्रति हम सहानुभूति रख सकते हैं, पर वह कभी भी हममें से एक नहीं हो सकता। वह हमारी तरह शब्दों का उच्चारण नहीं कर सकता, 'अच्छा' को 'अच्चा' कहता है, हमें आसपास हो रही जो घटनाएँ उत्तेजित करती हैं, वह उसे नहीं करतीं। वह - '... बोलता है, न चहकता है। कुछ पता नहीं चलता, हँस रहा है या रो रहा है। सारा वक्त एक कोने में दुबक कर बैठा रहता है।'

इस मायने में यह कहानी रवींद्रनाथ की कहानी 'काबुलीवाला' जैसी है, जिसमें मुख्य चरित्र अफग़ानिस्तान से आया पठान रहमत है, जो किस्मत का मारा ग़रीब है और ग़लत कारणों से जेल जाता है। 'काबुलीवाला' में वात्सल्य है, छोटी बच्ची से पिता जैसा प्यार है; एक खोई, लंबे समय से न देखी बच्ची को किसी और बच्ची में देखना है; 'वाङ्चू' में वयस्क प्रेम के संकेत हैं। दोनों कहानियों के आखिर में आत्मीय संबंध दुनियादारी में खो गए हैं, 'काबुलीवाला' की बच्ची बड़ी हो गई है और अपनी शादी के दिन उसे याद भी नहीं है कि कोई उसे बेटी मान कर पिता सा जान लुटा देना चाहता था और 'वाङ्चू' में लड़की शादी कर घर बसा लेती है, उसके बच्चे हैं; बस एक औपचारिक संबंध है जो कभी किसी ख़त में लिखा जाता है। वाङ्चू और रहमत दोनों ही अपने देश या समाज से कटे हुए हैं, वाङ्चू का विराग बौद्धिक कारणों से है, रहमत का ग़रीबी की वजह से है। दोनों में मानवता छलकती है, पर दोनों को ही हमारे समाज में पहले दर्ज़े की नागरिकता की स्वीकृति नहीं मिल सकती। दोनों से ही अपेक्षा है कि वे यहाँ भावनात्मक संबंध न बनाएँ। रहमत अगर बच्ची को पिता का प्यार देना चाहता है तो वह संदेह का पात्र है, इसी तरह वाङ्चू भी लेखक की मौसेरी बहन के साथ दोस्ती करता है तो वह चिंता का कारण बन जाता है।

एक औसत पाठक जो कहानी को महज कहानी की तरह पढ़ना चाहे, वह शायद उन तमाम पूर्वग्रहों के साथ ही पढ़ेगा। पढ़ते हुए वाङ्चू पर हँसेगा। पढ़ते हुए वह ज़ोर से बोल पड़ सकता है कि अरे इस भिक्षु को लड़की से क्या मतलब। रवींद्र ने शुरू से ही रहमत को ऐसा गढ़ा था कि पाठक लगातार सहानुभूति के साथ ही उसे देखता है। भीष्म साहनी हमारे अंदर के पूर्वग्रही मन को सामने ले आते हैं। इसके बाद यह हमारी नैतिक ताकत का मसला है कि हम खुद के रूबरू कैसी लड़ाई लड़ पाते हैं। इसी कारण से 'वाङ्चू' अपने समय की अग्रणी गल्प-धाराओं से जुड़ जाती है। इसी लिए इसे हम नई कहानी आंदोलन से अलग नहीं कर सकते।

धरती बहुत बड़ी है और हर तरह के रंग-ढंग और विचार के लिए यहाँ जगह होनी चाहिए बशर्ते कि कोई किसी को चोट न पहुँचाए। कहीं भी ऐसी कोई परंपरा या संस्कृति नहीं है जो किसी देश या भौगोलिक प्रदेश के हर व्यक्ति की परंपरा कहला सकती हो। हमें ज़बरन बचपन से यह पढ़ाया जाता है कि कुछ परंपराएँ हमें दूसरों से अलग करती हैं। एकबारगी सोचकर ऐसा लगता है कि यह सच होगा। जैसे हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत कोई अमेरिकी परंपरा तो है नहीं, उसे तो भारतीय परंपरा ही कह सकते हैं। यह सही है कि मानव जीवन के ऐसे पहलू जिनमें सांस्कृतिक अभिव्यक्ति होती है, उनके भौगोलिक विस्तार की सीमाएँ होती हैं। पर सचमुच कौन सी संस्कृति कहाँ शुरू और कहाँ खत्म होती है, यह कौन कह सकता है। परंपराओं को स्थानीय तौर पर स्थापित करना और कुछ खास तरह की परंपराओं को सब के ऊपर थोप देना, यह मानव 'सभ्यता' के अँधेरे पक्षों में से एक है। सचमुच हमें धरती पर पनपे किसी भी सांस्कृतिक-सामाजिक कर्म को अपनी परंपरा मानना चाहिए। उसमें जो अच्छा है, जो बुरा है, उसमें हर इंसान की भागीदारी है। कोई एक परंपरा या संस्कृति किसी दूसरी परंपरा या संस्कृति से बेहतर या बदतर नहीं है। पर मानव का सामाजिक विकास आज जहाँ तक हुआ है, उसमें लकीरें खिंची हुई हैं। लकीरों के पार राज बदलते हैं तो वह 'उन' का मामला है। हमारे मामले लकीर के इस पार के हैं। ये लकीरें हमेशा भौगोलिक ही नहीं होतीं। अपने ही समाज में अपने ही घर के आस-पास ऐसी कई लकीरें हमें एक दूसरे से अलग करती हैं। यह स्थिति कमोबेश दुनिया भर में है। संयुक्त राज्य अमेरिका में अफ्रीकी मूल के लोगों के साथ नस्लवाद तो था ही, दूसरी आलमी जंग के दौरान जापानी मूल के नागरिकों के साथ भी जैसा सलूक हुआ, उसे सोचकर भी दिल दहल उठता है। करीब सवा लाख नागरिकों को शिविरनुमा जेलों में बंद रखा गया। 'वाङ्चू' का सतही पाठ हमें महज एक चीनी आदमी की तकलीफ से ही वाकिफ करवाता है, पर गहराई से सोचने पर वह हमें खुद से रूबरू होने को मजबूर करता है। हम सोचने को मजबूर होते हैं कि आखिर ऐसा क्यों है, अगर एक चीनी आदमी हमारे परिवार की किसी लड़की से अंतरंग संबंध में बँध जाए तो उससे हमें क्यों परेशानी होती है। आज के संदर्भ में हमें पूछना होगा कि आखिर क्या कारण है कि कुछ लोगों को अपने समय की तमाम परेशानियों से हटकर यही बात परेशान करती है कि अपने से गैर मजहब का कोई हमारे भाई-बहन से प्यार करता है। यह बड़े पैमाने पर हिंसा का सबब बन जाती है। क्यों? जन्म से तो कोई भी किसी मजहब या संस्कृति से बँधा नहीं होता तो फिर आखिर बड़े हो जाने पर यह ठेकेदारी कहाँ से उभर आती है? कहानी में संकेत हैं कि हर किसी की तरह वाङ्चू भी अपनी युवावस्था में प्रेम की यातना से तड़पता होगा। पर उसके लिए प्रेम उपलब्ध नहीं है। बस ठिठौली हो सकती है। कथावाचक खुद परेशान रहता है कि उसकी मौसेरी बहन से वाङ्चू की अंतरंगता बढ़ न जाए। वह तभी आश्वस्त होता है जब वह जान लेता है कि दोनों में दूरी बढ़ने वाली है - 'पर मैं इस सूचना से बहुत विचलित नहीं हुआ था। नीलम लाहौर में पढ़ती थी और वाङ्चू सारनाथ में रहता था और अब वह हफ्ते-भर में श्रीनगर से वापस जानेवाला था। इस प्रेम का अंकुर अपने-आप ही जल-भुन जाएगा।' कहानी में वाङ्चू हँस रहा है या रो रहा है पता नहीं चलता, पर क्या यह पता चल सकता है कि आप और हम हँस रहे हैं या रो रहे हैं? कितना अच्छा होता कि हमारी दुनिया ऐसी होती कि हम इस कहानी को एक हास्य कहानी मान सकते और खूब हँसते।

'वाङ्चू' में भीष्म साहनी समाज के इन बंधनों, राष्ट्रभक्ति के अहं और अस्मिता के संकट से उपजी निरंकुशता पर बड़ी चिंताएँ रख गए हैं। चीन लौटने की कोई खास इच्छा वाङ्चू में नहीं थी, वह भारत में जम गया था। - 'अब आ गया है, तो लौट कर नहीं जाएगा। भारत मे एक बार परदेशी आ जाए, तो लौटने का नाम नहीं लेता।'... 'भारत देश वह दलदल है कि जिसमें एक बार बाहर के आदमी का पाँव पड़ जाए, तो धँसता ही चला जाता है, निकलना चाहे भी तो नहीं निकल सकता!'

मित्रों के कहने पर ही वह चीन गया। चीन पहुँचने पर नई क्रांतिकारी सरकार के ग्राम-प्रशासन ने तब तक तो उसकी आवभगत की जब तक भारत-चीन संबंध बिगड़े न थे, फिर जैसे संबंध बिगड़ने लगे, उसके प्रति प्रशासन का रुख बदलता गया। उसका भारत में कई साल बिताना, फिर वापस जाने की चाहत, यह सब कुछ शक की नज़रों से देखा जाने लगा। पार्टी-अधिकारी उसे वर्ग-शत्रु की तरह मानते हुए सवाल करते रहे- 'द्वंद्वात्मक भौतिकवादी की दृष्टि से तुम बौद्ध धर्म को कैसे आँकते हो?' क्या प्रशासन और सुरक्षा संस्थाएँ हर जगह ऐसी ही रहेंगीं? प्रशासन के ऐसे रवैए से आखिरकार आम लोग विरोध का राह ढूँढने को मजबूर कैसे न हों? पुलिस और फौज का होना हमारी सुरक्षा के लिए है। पर संकट के समय में यही संस्थाएँ निरंकुश होकर कमज़ोरों पर अत्याचार करती हैं। हमलोग या तो इतने पिछड़े हैं कि आँख मूँद कर इसे सहते हैं या इतने लाचार हैं कि इसे देखते हुए भी कुछ न कर पाना हमारी नियति बन गया है। वाङ्चू भारत लौटता है तो तुरंत उसके साथ यहाँ की पुलिस ऐसे व्यवहार करती है जैसे कि वह चीन का जासूस हो। आम लोग भी उसे शक की नज़रों से देखते हैं और कुछ तो उसके साथ हिंसक व्यवहार भी करने लगते हैं - 'या तो कहो कि तुम्हारे देशवालों ने विश्वासघात किया है, नहीं तो हमारे देश से निकल जाओ... निकल जाओ... निकल जाओ!' इन सबके बीच अगर कोई उसे इंसान की तरह देखता है तो वह बस एक रसोइया है जिसने अपने 'चीनी बाबू' वाङ्चू को अपना आत्मीय मान लिया है और उसे संत की तरह मानकर उसका सम्मान करता है।

'वाङ्चू' के लिखे जाने के बाद करीब आधी सदी गुज़र गई है। यह कहानी अब केवल कहानी न रहकर एक ऐतिहासिक दस्तावेज बन गई है। इसे पढ़ते हुए हम इतिहास भूगोल और राजनीति के सवाल न उठाएँ तो वह हमारी बौद्धिक दरिद्रता होगी। आखिर भारत और चीन के बीच बेहतर संबंध क्यों नहीं है? भारत-चीन सीमा विवाद क्या है? कहानी पढ़कर जाहिर होता है कि ऐसा नहीं है कि चीन के लोग हम पर हमला करना चाहते हैं। वे तो खुद इस बात से परेशान हैं कि भारत ने उनसे दुश्मनी क्यों रखी है? क्या सचमुच इस मामले में सरकारें जो कुछ हमें बतलाती हैं, वह सब सच है? अगर ऐसा होता तो भारत और चीन की लड़ाई पर हमारी अपनी फौज के अफ्सरों की तैयार की गई रिपोर्ट आज तक गोपनीय नहीं रहती। इस मुद्दे पर सरकारी पक्ष से अलग भी बातें सामने आई हैं और प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आखिर क्या कारण है कि हम इन बातों को जानना तक नहीं चाहते? क्या कोई हमें देशभक्ति के नाम पर अँधेरे में तो नहीं रखे हुए है? ऑस्ट्रेलिया के पत्रकार नेविल मैक्सेल ने इस मसले पर सालों से शोध किया है और इस पर लगातार लिखा है। क्या हम उसके लिखे से वाकिफ हैं? आज 'वाङ्चू' पढ़ते हुए इस सवाल को पूछना लाजिम है। इन सवालों को और आगे ले चलते हुए हमें पूछना होगा कि आम तौर पर दूसरे किसी भी मुल्क के लोगों के बारे में हम कैसा सोचते हैं। ईमानदारी से इस सवाल का जवाब ढूँढें तो हम देखेंगे कि हम वाकई पिछड़े हुए लोग हैं। जो ताकतवर हैं उनके साथ हमारा व्यवहार एक ढंग का है, जो हमारे बराबर या हमसे कमज़ोर हैं, उनके प्रति हमारा व्यवहार सीनाज़ोरी का है। यह खानदानी बदतमीज़ी हमारी विशिष्टता है।
एक और बात जो 'वाङ्चू' हमें बतलाती है, वह हमारी संस्कृति में शोध के प्रति गंभीर उदासीनता है। भारतीय पुलिस सिर्फ वाङ्चू को नहीं, उसके शोध को भी सजा देती है। कोई ज़रूरी नहीं है कि शोध के कागज़ात बर्बाद किए जाएँ, पर ऐसा होता है। कहानी पढ़ते हुए एक आम पाठक इस पर सोचता भी न होगा कि यह एक घोर अपराध है कि वर्षों से किए शोध के काम को नष्ट कर दिया जाए या किसी तहखाने में बंद कर दिया जाए। ऐसा सोच पाना मुश्किल है क्योंकि सदियों से हमारे यहाँ आम लोगों को बौद्धिक कर्म से अलग रखा गया। सुविधासंपन्न राष्ट्रभक्त टिप्पणीकार यही सिद्ध करने में लगे रहते हैं कि दरअसल हमारा समाज तो बड़ा प्रबुद्ध था, पर विदेशियों की वजह से हमारी बौद्धिक संपदा नष्ट हो गई। 'वाङ्चू' बड़े ही सरल ढंग से इस झूठ का पर्दफाश करती है। बार-बार अर्जियाँ देने के बावजूद 'वाङ्चू' के शोध के कागज़ात का एक छोटा हिस्सा ही मिल पाता है। कथावाचक को इसके लिए बहुत परेशानियाँ झेलनी पड़ती हैं। - 'मैं कुछेक संसद-सदस्यों के पास गया, एक ने दूसरे की ओर भेजा, दूसरे ने तीसरे की ओर। भटक-भटक कर लौट आया। आश्वासन तो बहुत मिले, पर सब यही पूछते - 'वह चीन जो गया था वहाँ से लौट क्यों आया?' या फिर पूछते - 'पिछले बीस साल से अध्ययन ही कर रहा है?'
आखिर क्यों? बोधिसत्वों पर किए शोध में ऐसा क्या खौफनाक षड़यंत्र होगा! इस बात को हम सिर्फ पुलिस और सरकारी अफसरों की बेवकूफी कह कर हट जाएँ तो यह धोखाधड़ी होगी। हमें खुद से पूछना पड़ेगा कि हममें बौद्धिक कर्म के प्रति कैसी भावनाएँ हैं।
कोई भी बड़ी रचना अपने कथानक के साथ कई सवाल ले कर आती है। 'वाङ्चू' ऐसी एक बड़ी रचना है। एक स्तर पर यह सिर्फ एक भोले इंसान की कहानी है जो 'भावुक, काव्यमयी प्रकृति का जीवन' जीना चाहता था, 'जो प्राचीनता के मनमोहक वातावरण में विचरते रहना चाहता था', पर जिसके साथ घोर अन्याय हुआ और वह बेवजह तकलीफें झेलते हुए मारा गया। मरने के बाद उसके - 'ट्रंक में वाङ्चू के कपड़े थे, वह फटा-पुराना चोगा था, जो नीलम ने उसे उपहारस्वरूप दिया था। तीन-चार किताबें थीं, पाली की और संस्कृत की। चिट्ठियाँ थीं, जिनमें कुछ चिट्ठियाँ मेरी, कुछ नीलम की रही होंगी, कुछ और लोगों की।' वह जो चला गया, उसके साथ एक 'नीलम' भी चली गई, जिसने हो सकता है कि उसके साथ ठिठौलियाँ करते हुए कभी मन में प्यार का कोई बीज भी सँजोया है, पर वह हसरत--तामीर कभी उजागर नहीं होगा, क्योंकि शुद्धता के प्रहरी बल्लम-भाले-बरछियाँ लिए घूम रहे हैं। कहानी का ज्यादा हिस्सा वाङ्चू का है तो एक बहुत बड़ा हिस्सा नीलम का भी है।

दूसरे स्तर पर यह कहानी हमें बतलाती है कि हमने यह अन्याय होने दिया और हम लगातार ऐसा अन्याय होने देते हैं, दे रहे हैं। आज 'वाङ्चू' पढ़ते हुए हमें इस सचाई को सामने रखना होगा।

Comments

Popular posts from this blog

मृत्यु-नाद

('अकार' पत्रिका के ताज़ा अंक में आया आलेख) ' मौत का एक दिन मुअय्यन है / नींद क्यूँ रात भर नहीं आती ' - मिर्ज़ा ग़ालिब ' काल , तुझसे होड़ है मेरी ׃ अपराजित तू— / तुझमें अपराजित मैं वास करूँ। /  इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूँ ' - शमशेर बहादुर सिंह ; हिन्दी कवि ' मैं जा सकता हूं / जिस किसी सिम्त जा सकता हूं / लेकिन क्यों जाऊं ?’ - शक्ति चट्टोपाध्याय , बांग्ला कवि ' लगता है कि सब ख़त्म हो गया / लगता है कि सूरज छिप गया / दरअसल भोर  हुई है / जब कब्र में क़ैद हो गए  तभी रूह आज़ाद होती है - जलालुद्दीन रूमी हमारी हर सोच जीवन - केंद्रिक है , पर किसी जीव के जन्म लेने पर कवियों - कलाकारों ने जितना सृजन किया है , उससे कहीं ज्यादा काम जीवन के ख़त्म होने पर मिलता है। मृत्यु पर टिप्पणियाँ संस्कृति - सापेक्ष होती हैं , यानी मौत पर हर समाज में औरों से अलग खास नज़रिया होता है। फिर भी इस पर एक स्पष्ट सार्वभौमिक आख्यान है। जीवन की सभी अच्छी बातें तभी होती हैं जब हम जीवित होते हैं। हर जीव का एक दिन मरना तय है , देर - सबेर हम सब को मौत का सामना करना है , और मरने पर हम निष्क्रिय...

फताड़ू के नबारुण

('अकार' के ताज़ा अंक में प्रकाशित) 'अक्सर आलोचक उसमें अनुशासन की कमी की बात करते हैं। अरे सालो, वो फिल्म का ग्रामर बना रहा है। यह ग्रामर सीखो। ... घिनौनी तबाह हो चुकी किसी चीज़ को खूबसूरत नहीं बनाया जा सकता। ... इंसान के प्रति विश्वसनीय होना, ग़रीब के प्रति ईमानदार होना, यह कला की शर्त है। पैसे-वालों के साथ खुशमिज़ाजी से कला नहीं बनती। पोलिटिकली करेक्ट होना दलाली है। I stand with the left wing art, no further left than the heart – वामपंथी आर्ट के साथ हूँ, पर अपने हार्ट (दिल) से ज़्यादा वामी नहीं हूँ। इस सोच को क़ुबूल करना, क़ुबूल करते-करते एक दिन मर जाना - यही कला है। पोलिटिकली करेक्ट और कल्चरली करेक्ट बांगाली बर्बाद हों, उनकी आधुनिकता बर्बाद हो। हमारे पास खोने को कुछ नहीं है, सिवाय अपनी बेड़ियों और पोलिटिकली करेक्ट होने के।' यू-ट्यूब पर ऋत्विक घटक पर नबारुण भट्टाचार्य के व्याख्यान के कई वीडियो में से एक देखते हुए एकबारगी एक किशोर सा कह उठता हूँ - नबारुण! नबारुण! 1 व्याख्यान के अंत में ऋत्विक के साथ अपनी बहस याद करते हुए वह रो पड़ता है और अंजाने ही मैं साथ रोने लगता हू...

 स्त्री-दर्पण

 स्त्री-दर्पण ने फेसबुक में पुरुष कवियों की स्त्री विषयक कविताएं इकट्टी करने की मुहिम चलाई है। इसी सिलसिले में मेरी कविताएँ भी आई हैं। नीचे उनका पोस्ट डाल रहा हूँ।  “पुरुष कवि : स्त्री विषयक कविता” ----------------- मित्रो, पिछले चार साल से आप स्त्री दर्पण की गतिविधियों को देखते आ रहे हैं। आपने देखा होगा कि हमने लेखिकाओं पर केंद्रित कई कार्यक्रम किये और स्त्री विमर्श से संबंधित टिप्पणियां और रचनाएं पेश की लेकिन हमारा यह भी मानना है कि कोई भी स्त्री विमर्श तब तक पूरा नहीं होता जब तक इस लड़ाई में पुरुष शामिल न हों। जब तक पुरुषों द्वारा लिखे गए स्त्री विषयक साहित्य को शामिल न किया जाए हमारी यह लड़ाई अधूरी है, हम जीत नहीं पाएंगे। इस संघर्ष में पुरुषों को बदलना भी है और हमारा साथ देना भी है। हमारा विरोध पितृसत्तात्मक समाज से है न कि पुरुष विशेष से इसलिए अब हम स्त्री दर्पण पर उन पुरुष रचनाकारों की रचनाएं भी पेश करेंगे जिन्होंने अपनी रचनाओं में स्त्रियों की मुक्ति के बारे सोचा है। इस क्रम में हम हिंदी की सभी पीढ़ियों के कवियों की स्त्री विषयक कविताएं आपके सामने पेश करेंगे। हम अपन...