आज हिरोशिमा दिवस पर उन सभी दोस्तों को याद कर रहा हूँ जिनके साथ पंद्रह साल पहले चंडीगढ़ की 'साइंस ऐंड टेक्नोलोजी अवेयरनेस ग्रुप (स्टैग)' संस्था का काम किया था और सैंकड़ों जगह नाभिकीय शस्त्रों के खिलाफ तैयार किया हिरोशिमा-नागासाकी की विभीषिका पर आधारित स्लाइड शो दिखलाया था, बातें की थीं। कई साल पहले हिरोशिमा दिवस पर नाभिकीय शस्त्रों के खिलाफ आलेख भी लिखे थे। कभी उनको डिजिटाइज़ कर पोस्ट करेंगे। फिलहाल 'समकालीन जनमत' के मई 2012 अंक में प्रकाशित यह आलेख (जैसा कि साथी जानते हैं, मैं प्रतिरक्षा विज्ञान में हर तरह के स्रोत या संसाधन के निवेश के खिलाफ हूँ, पर यहाँ बात किसी और प्रतिरक्षा की हो रही है):
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प्रतिरक्षण
विज्ञान में तरक्की पर चिकित्सा
और शरीर विज्ञान का नोबेल
पुरस्कार
यह
तो अब हर कोई जानता है कि हमें
अधिकतर बीमारियाँ दैवी प्रकोप
से नहीं, बल्कि
हानिकारक बैक्टीरिया या वाइरस
जैसे जीवाणुओं के शरीर में
घुस जाने से होती हैं। आजीवन
अपने इर्द-गिर्द
तरह तरह के अनगिनत जीवाणुओं
के बीच हम जीते हैं। इनका आकार
इतना छोटा होता है कि हम इन्हें
देख नहीं पाते। और इनका हमला
निरंतर चलता रहता है। तो हम
बचते कैसे हैं? इन
हमलों से हमें बचाने के लिए
कौन चौकीदारी कर रहा है?
और जब ये अंदर
आ ही जाते हैं तो शरीर इनसे
भिड़ने के कैसे तरीके अपनाता
है? ऐसे
सवालों पर वैज्ञानिक लंबे
समय से काम कर रहे हैं। हम हमेशा
नहीं बच पाते - कभी
कभी हमलावर जीत जाते हैं,
खासतौर पर
नवजात शिशु या वृद्ध अक्सर
इनसे लड़ाई हार जाते हैं।
अधिकतर शरीर के जटिल प्रतिरक्षण
तंत्र (immune system) की
मदद से हम बच जाते हैं।
हर
चिकित्सा पद्धति में प्रतिरक्षण
की अपनी विशिष्ट समझ है।
आयुर्वेद या अन्य पुरानी
पद्धतियों से अलग आधुनिक
चिकित्सा-शास्त्र
में लगातार वैज्ञानिक शोध पर
जोर बढ़ा है। पिछले सौ सालों
में जीवन और जीवित प्राणियों
में चल रही अनंत क्रिया-प्रक्रियाओं
के बारे में हमारी समझ कई गुना
बढ़ी है। यह समझ अब आणविक स्तर
तक पहुँच गई है। मानव शरीर में
तकरीबन 10 खरब
या इससे भी अधिक कोशिकाएँ हैं।
हर कोशिका में छोटे बड़े कई
तरह के खरबों अणु हैं। शरीर
के स्वास-तंत्र,
प्रजनन तंत्र,
स्नायु तंत्र
आदि कई तंत्र हैं। हर तंत्र
की अलग अलग कोशिकाएँ हैं। जीवन
इन्हीं कोशिकाओं में निरंतर
चल रही प्रक्रियाओं का ही नाम
है। पिछले करीब पचास सालों
में कोशिकाओं में हो रही आणविक
प्रक्रियाओं को और उनके संचालन
में काम कर रहे भौतिक और रासायनिक
सिद्धांतों को समझने में काफी
तरक्की हुई है। प्रतिरोधी
तंत्र के बारे में शोध कार्य
इतना बढ़ चुका है कि आज प्रतिरक्षण
विज्ञान (immunology) उच्चतर
ज्ञान की एक प्रमुख विधा है।
हमारे देश में भी एकाधिक
प्रतिरक्षण विज्ञान संस्थान
हैं। हर बड़े विश्वविद्यालय
में इस विषय पर शोध और शिक्षण
होता है।
बाहर
से शरीर में घुस रहे जीवाणु
(इन्हें
पैथोजेन – pathogen – भी
कहते हैं) अंदर
आते ही कोशिकाओं के परिवेश
के अनुसार अपना स्वरूप बदल
लेते हैं या उपलब्ध प्रोटीन
आदि अणुओं का इस्तेमाल कर बड़ी
तेजी से अपनी संख्या बढ़ा लेते
हैं ताकि शरीर का प्रतिरक्षण
तंत्र नाकाम हो जाए। इसलिए
करोड़ों वर्षों में जैविक
विकास से प्रतिरक्षण के भी
ऐसे जटिल पेंच विकसित हो गए
हैं कि उनको समझना आसान नहीं
है। जब पैथोजेन अपनी संख्या
बढ़ा कर कोशिकाओं में अपनी
जकड़ मजबूत कर लेते हैं,
इसे
कोलोनाइज़ (उपनिवेश
या बस्ती बना लेना)
करना
कहते हैं। प्रतिरक्षण का पहला
भौतिक अवरोध चमड़े या टिशू
की झिल्लियों का होता है। यह
एक तरह की चौकीदारी है,
जिसके
तहत पहले बाहर से आ रहे जीवाणुओं
की पहचान कर उन्हें कोशिकाओं
में घुसने से रोका जाता है।
इसके बाद रासायनिक प्रक्रियाएँ
शुरू हो जाती हैं। कोशिकाओं
में से जीवाणु विरोधी साइटोकाइन
नामक विशेष प्रोटीन अणु सक्रिय
हो उठते हैं और जीवाणुओं पर
हमला बोलते हैं। आम तौर पर इसी
दौरान सूजन, बुखार
आदि लक्षण दिखलाई पड़ते हैं।
खून में फेगोसाइट नामक सफेद
कण होते हैं, जो
जीवाणुओं को खा डालते हैं,
यानी
अपनी आणविक संरचना के विशेष
हिस्सों (receptors) में
पैथोजेन को बाँध कर रासायनिक
प्रक्रियाओं द्वारा उनको
खत्म कर देते हैं। इस तरह
शरीर का जन्मजात
(innate) प्रतिरक्षण
कई तरह के भौतिक,
रासायनिक
और कोशिकीय तरीकों से काम करता
है और पैथोजेन के प्रवेश,
कोलोनाइज़
करने और संख्या में बढ़त को
रोकता है। यह तंत्र किसी भी
बाहरी घुसपैठी के लिए एक ही
जैसा है, यानी
कि अलग अलग जीवाणुओं के लिए
अलग अलग प्रक्रियाएँ नहीं
हैं। इसलिए इसे नान-स्पेसिफिक
(non-specific) या
निर्विशेष प्रतिरक्षण कहते
हैं।
वर्ष
2011 का
चिकित्सा और शरीर विज्ञान का
नोबेल पुरस्कार अमरीका के
स्क्रिप्स शोध संस्थान के
ब्रूस बूटलर, फ्रांस
के राष्ट्रीय वैज्ञानिक शोध
संस्थान के जूल्स हॉफमान को
जन्मजात प्रतिरक्षण पर और
अमरीका के रॉकेफेलर यूनिवर्सिटी
के राल्फ स्टाइनमान को अनुकूली
(adapative) प्रतिरक्षण
यानी स्थिति के अनुसार बदलते
प्रतिरक्षण पर शोध के लिए
दिया गया। पुरस्कार की घोषणा
के तीन दिनों पहले स्टाइनमान
की मोत हो गई थी और नोबेल संस्थान
के नियमों के अनुसार मरणोपरांत
नोबेल पुरस्कार दिया नहीं
जाता, पर
इस बार यह अपवाद हुआ कि स्टाइनमान
को पुरस्कार दिया गया।
ब्रूस
बूटलर का शोध ग्राम नीगेटिव
नामक बैक्टीरिया की कोशिका
की दीवार में मौजूद लिपोसैकाराइड
नामक खास बड़े अणुओं पर केंद्रित
था, जिनके
बैक्टीरिया से निकल कर शरीर
की कोशिकाओं के संपर्क में
आते ही प्रतिरक्षण की क्रियाएँ
जोरों से शुरू हो जाती हैं।
बूटलर ने चूहों पर प्रयोग कर
पोया कि स्तनपायी प्राणियों
की स्वस्थ कोशिकाओं को
लिपोसैकाराइड जैसे जहरीले
(एंडोटॉक्सिन)
अणुओं से
झटका सा लगता है और वे ट्यूमर
नीक्रोसिस फैक्टर (NTF)
आल्फा नामक
साइटोकाइन प्रोटीन अणु की
मदद से इसका सामना करती हैं।
बाहरी तौर पर हमें यह सूजन बन
कर दिखलाई देता है। इसी तरह
जूल्स हॉफमान और सहयोगियों
ने फल-मक्खी
में जन्मजात प्रतिरक्षण में
'टोल'
(जर्मन भाषा
का शब्द – अर्थ है 'अद्भुत'
या 'कमाल
का') जीन
की भूमिका को दिखलाया। जीन
आनुवांशिक गुणसूत्र हैं जो
विभिन्न शारीरिक गुणधर्मों
के लिए सही प्रोटीन अणु बनाते
हैं। हॉफमान की टीम ने उन
प्रोटीन अणुओं को ढूँढा जिनमें
पैथोजेन को पकड़ने के लिए
ग्राही (receptor) जगहें
हैं जहाँ उसे बाँध कर वे बीमारी
की सही पहचान करते हैं। उन
'टोल'
प्रोटीन
अणुओं को बनाने वाली जीन्स
पर भी उन्होंने अनुसंधान किया।
अनुकूली
(adapative) प्रतिरक्षण
जन्मजात प्रतिरक्षण के बाद
आता है। इसमें डेंड्रिटिक
नाम की विशेष कोशिकाएँ हानिकारक
जीवाणुओं की पहचान कर टी (T)
नामक कोशिकाओं
को जगा देती हैं, जो
जीवाणुओं की सतह पर मौजूद
प्रोटीन अणुओं (ऐंटीजेन)
की पहचान के
मुताबिक विशेष रासायनिक
प्रक्रियाएं शुरू कर देती
हैं। इससे न केवल पैथोजेन नष्ट
हो जाता है, बल्कि
हमेशा के लिए विशेष पैथोजेन
के खिलाफ प्रतिरक्षण तंत्र
की मुस्तैदी बढ़ जाती है।
पैथोजेन की स्मृति रह जाती
है और अगर फिर कभी वही बंदा
फिर हमला करे तो प्रतिरक्षण
तंत्र पहले से ही तैयार रहता
है। इसे यानी प्राकृतिक रूप
से मिला प्रतिरक्षण कहते हैं।
डेंड्रिटिक शब्द डेंड्राइट
से बना है, जिसका
मतलब एक लंबे धागे जैसी आकृति
है। डेंड्रिटिक कोशिकाएँ
जन्मजातऔर अनुकूली प्रतिरक्षण
के बीच मेसेंजर यानी दूतों
की तरह काम करती हैं। चमड़ी
जैसी जगह, जहाँ
टिशू बाहरी परिवेश के संपर्क
में आता है, या
नाक, फेफड़ों,
अंतड़ियों
की भीतरी सतह में ये कोशिकाएँ
मौजूद होती हैं। खून में ये
निष्क्रिय सी पड़ी होती हैं।
सक्रिय हो जाने पर ये टी और बी
कोशिकाओं के साथ मिलकर प्रतिरक्षण
का काम करती हैं।
(चित्र विकिपीडीया से साभार) Immunity: प्रतिरक्षण; Adaptive Immunity: अनुकूली प्रतिरक्षण;
Innate Immunity: जन्मजात प्रतिरक्षण; Natural: प्राकृतिक; Artificial: कृत्रिम;
Innate Immunity: जन्मजात प्रतिरक्षण; Natural: प्राकृतिक; Artificial: कृत्रिम;
Passive (maternal): अल्प-सक्रिय (माँ से मिला); Active (Infection): सक्रिय (रोग-संक्रमण द्वारा)
Passive (antibody transfer): अल्प-सक्रिय (बाहर से प्रतिरक्षी कोशिकाएँ लाकर)
Active (immunization): सक्रिय (टीका लगाकर)
Passive (antibody transfer): अल्प-सक्रिय (बाहर से प्रतिरक्षी कोशिकाएँ लाकर)
Active (immunization): सक्रिय (टीका लगाकर)
प्राकृतिक
रूप से अनुकूली प्रतिरक्षण
हमेशा सक्षम हो, यह
ज़रूरी नहीं। इसलिए शरीर को
बचाए रखने के लिए जान बूझ कर
नियत मात्रा में पैथोजेन
मिलाकर टीका (vaccine)लगाया
जाता है, ताकि
अनुकूली प्रतिरक्षण का तंत्र
विकसित हो सके। पहले से
प्रतिरक्षित मेजबान कोशिकाओं
से सक्रिय टी कोशिकाओं का
निकलना दीर्घस्थायी नहीं
होता, इसलिए
यह passive या
अल्प-सक्रिय
प्रतिरक्षण कहलाता है। बाहरी
जीवाणु (पैथोजेन)
या उसके साथ
आए ऐंटीजेन से बने प्रतिरक्षण
को active या
सक्रिय प्रतिरक्षण कहते हैं।
प्रतिरक्षण
पर हुए शोध का मुख्य सवाल हैं
कि चौकीदारी और घुसपैठी जीवाणुओं
को नष्ट करने की प्रक्रियाओं
की शुरूआत कैसे होती है,
उनको ईंधन
कहाँ से मिलता है और इनको और
अधिक पुख्ता कैसे बनाया जा
सकता है। । शोध के निष्कर्षों
से मुख्यतः बेहतर वैक्सीन
बनाने में मदद मिली है। अब तक
असाध्य माने गए कैंसर जैसे
रोगों से निपटने के लिए प्रतिरक्षण
को कैसे मजबूत किया जाए,
यह समझ भी
बढ़ी है। कैंसर और एड्स के
रोगियों पर डेंड्रिटिक कोशिकाओं
की प्रतिरक्षण क्षमताओं का
परीक्षण अभी चल रहा है। इसके
अलावा कई बार प्रतिरक्षण तंत्र
की अधिक सक्रियता से होने वाली
समस्याओं से बचने के नए उपाय
भी विकसित हुए हैं। अगर प्रतिरक्षण
तंत्र ज़रूरत से ज्यादा सक्रिय
हो तो वह फायदेमंद अणुओं को
भी नष्ट करने लगता है। वैज्ञानिक
शोध से उन प्रक्रियाओं को
समझने में और उनके दबाने या
धीमा करने में भी मदद मिली है,
जिनसे ये
समस्याएँ पैदा होती हैं।
स्टाइनमान
खुद पाँच साल पैंक्रीएटिक
(अग्न्याशय)
कैंसर के
रोगी रहे। उन्होंने अपने ही
आविष्कार डेंड्रिटिक कोशिकाओं
की प्रतिरक्षण क्षमता पर
आधारित उपचार से रोग से निदान
की कोशिश की। आखिरी दिनों में
परिवार के लोगों के साथ मजाक
करते हुए उन्होंने कहा था कि
जैसे भी हो, नोबेल
पुरस्कार की घोषणा तक ज़िंदा
रहना है, क्योंकि
मरने के बाद नोबेल नहीं मिलता।
पर पुरस्कार की घोषणा के पहले
ही वे चल बसे।
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