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चार लाइनें

मसिजीवी ने दो बार याद दिलाया कि चिट्ठों की दुनिया से छूट चुका हूँ। बिल्कुल छूटा नहीं हूँ। पढ़ता रहता हूँ। खुद लिख नहीं पा रहा था। चलो तो चार लाइनें कुछ लिखा जाए।

उत्तरी भारत के दीगर इलाकों में जब लोग बसंत की आवभगत में जुटे होते हैं, हैदराबाद और बंगलूर जैसे दक्खनी शहरों में गर्मी का कहर बरपने लगता है। हम भी इसी दौर में हैं। पता नहीं कैसे वर्षों से खोया धूप का चश्मा ढूँढ निकाला है। बड़े काले शीशों वाली ऐनक।

पानी की समस्या है। नगरपालिका मंजीरा बंध से पानी सप्लाई करती है। पर इसका कोटा है। और जिस तरह चारों ओर धड़ाधड़ मकान बनते जा रहे हैं, पानी बँट रहा है और कुल सप्लाई खपत की तुलना में बहुत कम है। इसलिए बोर वेल का इस्तेमाल हर घर में होता है। बोर वेल के पानी में लवणों की मात्रा अधिक है और पानी का स्वाद अच्छा नहीं है। तो क्या किया जाए? नगरपालिका टैंकरों में पानी बेचती भी है। मंजीरा के अलग रेट और बोर के पानी के अलग। तो जिसके पास पैसे हैं, उसे बढ़िया पानी और जिसके पास नहीं उसे नहीं।

सोचने की बात है। किसानों को पानी चाहिए। झोपड़ियों में रह रहे गरीब लोग घंटों इंतज़ार कर पानी लेते हैं। हमें जो पानी मिलता है, हम उससे खुश नहीं हैं। खास बात नहीं। हजार बार सोची गयी बात। पर फिर भी फिर फिर से सोचने वाली बात।

Comments

लिखने का सोचा.... बहुत भला सोचा।

अगर पानी की बात खास नहीं तो शायद कुछ भी खास नहीं।

वैसे ये केवल कल्‍पना ही है कि कैसे लगते हैं आप इस नए रंगीन चश्‍मे में। :)
ePandit said…
स्वागत है फिर से, आदमी कितना भी व्यस्त हो फिर भी सप्ताह में एक पोस्ट तो लिखी ही जा सकती है।
Pratyaksha said…
लिखा करें ।
लिखा करें नियमित!

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