Tuesday, November 29, 2005

अबोहर का नाम और पंजाब की खस्ताहाल सड़कें

अबोहर का नाम कैसे पड़ा? युवा साथी योगेश डी ए वी कालेज में इतिहास पढ़ा रहा है। अबोहर में ही पला है। उसने बतलाया कि अबोहर में पिछले पाँच हजार साल से लगातार लोग बसे हुए हैं। बृहत्तर हड़प्पा सभ्यता का शहर है। आज भी ऐसी जगहें वहाँ हैं जहाँ खुदाई तो नहीं हुई है, पर इधर उधर प्राचीन काल के स्मारक पड़े हुए मिल जाते हैं। इब्न बतूता तक ने अपने संस्मरणों में अबोहर का उल्लेख किया है। योगेश कर्मठ और सचेत है। चंडीगढ़ में क्रिटीक संस्था में सक्रिय था। अबोहर में छात्रों को नई दिशाएं दिखलाने का बीड़ा उठाया है। जब हम वहाँ गए तो उस रात अभी हाल में पारित सूचना अधिनियम के बारे में राजस्थान से उपलब्ध कुछ दृश्य सामग्री छात्रों को दिखला रहा था। उसने बतलाया कि छात्रों को स्थानीय माइक्रो-हिस्ट्री के अध्ययन के लिए भी वह प्रेरित करता रहता है।

एकलव्य में काम करने के दौरान जो रोचक अनुभव हुए थे, उनमें स्थानीय इतिहास का अध्ययन भी है। मूल प्रकल्पना संस्था के कार्यकर्त्ताओं की होती थी, पर उत्साही शिक्षकों के बल पर ही बात आगे बढ़ती थी। शायद जे एन यू से आए सुब्रह्मण्यम और रश्मि पालीवाल ने यह अभ्यास सोचा था, पर एक गाँव में काम कर रहे किसी शिक्षक के उत्साह से ही मैंने इसे गजब का होते देखा था। माध्यमिक स्तर पर छठी सातवीं के बच्चों को कहा गया था कि वे बड़ों से पूछकर अपने परिवार का वंश-वृक्ष बनाएं और गाँव के बसने और उसके विकास का इतिहास तैयार करें। फिर हर बच्चे से अपना लिखा पढ़ने को कहा गया। बच्चे कल्पनाशील होते हैं और इस तरह का काम करते हुए न जाने कितनी कहानियाँ बनी होंगी। अभी मैंने कैलिफोर्निया के सांता क्रूज़ से प्रकाशित बच्चों की पत्रिका Stone Soup (May/Jun '05) में ग्यारह साल की रोज़ली स्टोनर की कहानी 'Pompeii's Last Day' पढ़ी। कहानी ९७ ईस्वी के समय पर है। विदेशों में बच्चों के इस तरह के काम आम बात है, पर १९८८ में मध्य प्रदेश के पिछड़े गाँव में इतने सारे किशोर इतिहासकारों को देखना सचमुच गजब की बात थी। हमारे बच्चों को मौके मिलें तो वे भी कितना कुछ लिख डालते हैं। मेरी बिटिया अच्छा लिखती है, पर वह अंग्रेज़ी में लिखती है। एकलव्य में काम कर रहे उन दिनों के अधिकतर साथी अभी भी वहीं हैं, हालाँकि अब वह कार्यक्रम अपने मूल स्वरुप में नहीं है। सरकार ने होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम और साथ चल रहे सामाजिक विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम को असंख्य लोगों के विरोध के बावजूद बंद कर दिया। बच्चों की विज्ञान पत्रिका (जिसमें विज्ञान के अलावा बहुत कुछ होता है) 'चकमक' अभी भी निकल रही है। हिन्दी में जो भयंकर शून्य बाल-साहित्य का है, उसको कुछ हद तक पूरा कर रही है।

जिस दिन लुधियाना से अबोहर चले तो लोगों ने पहले ही सावधान कर दिया कि लुधियाना बरनाला सड़क बहुत खराब है, इसलिए मोगा मुक्तसर होकर मलोट जाएं। मोगा तक तो ठीक था, पर आगे मुक्तसर और फिर मलोट तक सड़क इतनी खराब थी कि मेरी गर्दन का कचूमर निकला ही, साथ में यह चिंता खाती रही कि मेरी छोटी गाड़ी का कितना कचूमर निकल रहा है। जाना भी पश्चिम की ओर था और लगातार तीखी धूप चेहरे पर पड़ रही थी। शुकर है कि जाड़ा शुरु हो चुका है नहीं तो बीमार पड़ ही जाते। लौटकर जुखाम तो हो ही गया है।

वैसे अजीब बात यह है कि शहरों के अंदर की सड़कें सब से ज्यादा खराब हैं। हाइवे में जहाँ मरम्मत हो रही है वहाँ तो समस्या है ही, दूसरी जगहों में कोटकपूरा के पास हाइवे की हालत ज्यादा खराब थी। अगर इतने ज्यादा एन आर आई वाले राज्य का यह हाल है तो दूसरी जगहों का क्या होगा। ऐसा भी नहीं कि अभी ही ऐसा हाल है, करीब दस महीने पहले विज्ञान चेतना मशाल लेकर जगराँव से रायकोट गया था, अरे बाप रे बाप इतनी खराब सड़कें! इसी तरह एक बार विज्ञान चेतना वर्ष की कार्यशाला के लिए कोटकपूरा गए तो भी यही नज़ारा। इससे तो मध्य प्रदेश के वही गाँव अच्छे थे, जहाँ जीप नहीं जा पाती थी और साइकिलों पर जाना पड़ता था। कई साल हुए उस ओर गया नहीं हूँ, पता नहीं वहाँ का क्या हाल है। कमाल यह कि ऐसी ही जगहों में जहाँ आवा-जाही में इतनी मुश्किलें हैं, सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों के लिए समर्पित लोग मिलते हैं!

तो अबोहर नाम कैसे पड़ा? योगेश के अनुसार पुरानी रियासतों के कागजात ढूँढना बहुत मुश्किल काम है, फिर भी आम मान्यता है कि यहाँ कोई राजा अभय सिंह हुआ था, जिसके नाम पर अबोहर पड़ा। ऐसा भी माना जाता है कि यहाँ बहुतायत में उगनेवाली चाँदी जैसी कपास की आभा से अबोहर बना।

1 comment:

मिर्ची सेठ said...

बहुत बढ़िया लाल्टु जी। आस पास के इलाकों के बारे में आप की लिखी कलम से पढ़ना अच्छा लगता है। यहाँ परदेस में(वैसे बे-एरिया में देसी बंधूओं की संख्या देखकर कहना नहीं चाहिए) लुधियाना, पटियाला, मोगा की बांते सुनकर लगता है वहीं पहुंच गए। कभी मेरे अम्बाला जाना तो वहाँ की सड़कों के बारे में भी लिखना। मशहूर है "मक्खी मच्छर ते नाला, एन्ना सारयां नाल बणया अम्बाला"

पंकज