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बेरहमी न देख पाने की हमें आदत हो गई

बेरहमी जो नहीं दिखती है

(हाल में न्यूज़लॉंंड्री हिन्दी में प्रकाशित)

चीन पैदाइशी धूर्त देश है। आजकल हर कोई इस तरह की बातें कर रहा है। चीन में कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही है। चीन ने चालाकी से विश्व व्यापार संगठन के नियमों का फायदा उठाते हुए कई मुल्कों में पैसे लगाकर वहाँ की अर्थव्यवस्थाओं को पूरी तरह चीन पर निर्भर कर दिया है। पड़ोसी मुल्क श्रीलंका और पाकिस्तान में ऐसे बड़े निवेश हुए हैं, जिन पर वहाँ की सरकारों का कोई बस नहीं रह गया है। चीन के अंदर भी सरकार द्वारा लोगों पर हो रहे अत्याचार के बारे में चेतना फैलानी ज़रूरी है। चीन में उइगूर मुसलमानों पर सत्ता का भयंकर नियंत्रण है। हालांकि वहां से ज्यादा मौतों की खबर नहीं आती, पर पश्चिमी मुल्कों में छप रही खबरों के मुताबिक वहाँ डिटेंशन सेंटर या क़ैदखाने बनाए गए हैं, जहाँ उइगूरों को ज़बरन आधुनिक जीवन शैली और पेशों की ट्रेनिंग दी जाती है, ताकि वह अपने पारंपरिक धार्मिक-सामाजिक रस्मों से अलग हो जाएँ। इस पर बीबीसी और न्यूयॉर्क टाइम्स ने रीपोर्ताज तैयार कर फिल्में भी बनाई हैं। इन फिल्मों में उदास या गुस्सैल चेहरे नहीं दिखते, पर इसे पश्चिमी मुल्कों की मीडिया नरसंहार कहती है, क्योंकि यह बड़े पैमाने पर लोगों की सांस्कृतिक पहचान बदलने की कोशिश है। चीन ने सरकारी अधिकारियों को भी उइगूर परिवारों के साथ रहने को भेजा है ताकि वह उनके बारे में जान सकें और उनको मुख्यधारा में शामिल होने में मदद कर सकें। पश्चिमी मीडिया से पता चलता है कि यह दरअसल जासूसी करने का एक तरीका है।

चीन की बेरहमी हमें दिखती है। मानव अधिकार कार्यकर्ता लिउ ज़िआओ बो को लंबे अरसे तक क़ैद में रखा गया और तीन साल पहले ही उन की अस्पताल में मौत हुई है। पर क्या हम इन बातों को इसलिए देख पाते हैं कि यह बेरहमी है, या कि बस चीन को दुश्मन देश मानने की वजह से हम ऐसा सोचते हैं। मसलन काश्मीर के बारे में हमें पता है कि वहां हजारों मौतें हो चुकी हैं। चीन पर सोचते हुए हम मानते हैं कि राज्य-सत्ता द्वारा लोगों की निजी ज़िंदगी पर हुकूमत हमें स्वीकार नहीं करनी चाहिए। काश्मीर या देश के और दीगर इलाकों में मुख्यधारा से अलग लोगों पर पर बनी फिल्मों में हमें उदासी के अलावा कुछ नहीं दिखता, पर क्या सचमुच हमें यह दिखता है? पश्चिमी मुल्कों की मीडिया में विदेशों में बसे उइगूरों के साक्षात्कार छपते हैं और इनसे हमें पता चलता है कि चीन में लोगों के साथ कैसी मुश्किलें हैं। इसका प्रतिवाद होते रहना चाहिए। पर हमारे मुल्क में मानव अधिकार कार्यकर्ताओं के दर्जनों साक्षात्कारों पर हम कितना गौर करते हैं? लिउ ज़िआओ बो को शांति का नोबेल पुरस्कार मिला था। इसकी मुख्य वजह मानव अधिकारों पर उनका काम था। हमारे यहाँ मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को समाज का एक बड़ा वर्ग अर्बन नक्सल, देशद्रोही कह कर उनको धिक्कारता है। सरकार मौका मिलते ही उन्हें बेवजह क़ैद कर लेती है। ठीक इसी वक्त दर्जनों लोग, जिन्होंने ताज़िंदगी समाज की भलाई के लिए काम किया है, जेल में हैं। उनके खिलाफ झूठे इल्ज़ाम लगाए गए हैं, और पुलिस या सरकार उनके खिलाफ सालों तक प्रमाण पेश करने में नाकाम रही है। इनमें से कई बड़ी उम्र के हैं। तेलेगु के इंकलाबी कवि वरावारा राव 81 साल की उम्र में क़ैद में हैं। जेल में रहते हुए कोविड से बीमार होने पर देशभर में कई लोगों ने उनको अस्पताल भेजने की माँग की, तो देर से उन्हें अस्पताल ले जाया गया। उनके परिवार के लोग चीख-चिल्ला रहे हैं कि उनकी सही चिकित्सा नहीं हो रही है, पर कोई नहीं सुन रहा। आंबेडकर के परिवार से जुड़े प्रो० आनंद तेलतुंबड़े हाल में ही सत्तर साल के हो गए। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मैनेजमेंट के अध्येता रह चुके आनंद कोविड महामारी के दौरान अप्रैल में गिरफ्तार हुए। गौतम नवलखा ने हिन्दी में गंभीर वैचारिक पत्रिका 'साँचा' निकली थी और लोकतांत्रिक हक़ों के लिए संघर्षरत रहना उनकी खासियत रही है। वो भी क़ैद हैं। इनके अलावा आठ और लोगों को जनवरी 2018 में भीमा कोरेगाँव में हुई हिंसा मामले के संबंध में गिरफ्तार किया गया, और फिर फर्जी ईमेल के आधार पर इल्ज़ाम लगाए गए। इनमें से ही सुधा भारद्वाज हैं, जिसने अमरिकी नागरिकता छोड़कर और आई-आई-टी कानपुर से पढ़ाई में अव्वल दर्जा पाने के बावजूद भारत के ग़रीबों और आदिवासियों के लिए काम करने के लिए वकालत सीखी और तीन दशकों से समर्पित जीवन गुजार रही थीं। यही ग्यारह नहीं, देशभर में सरकार की मुखालफत करने वाले दर्जनों लोगों को, जैसे नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने वालों को, गिरफ्तार किया गया है। गोरखपुर के अस्पताल में ऑक्सीजन न मिलने से हुई बच्चों की मौत पर विरोध जताने पर डॉ- कफ़ील खान को गिरफ्तार किया गया और वह आज तक जेल में हैं।

चीन में एक बड़ा मध्य-वर्ग है, जो सरकार का समर्थक है, क्योंकि उन्हें बड़ी जल्दी से पूँजीवादी व्यवस्था के फायदे मिले हैं। तालीम, सेहत सुविधाएँ, बहुत अच्छी तो नहीं हैं, पर भारत की तुलना में कहीं ज्यादा बेहतर हैं, हालाँकि पचास के दशक में चीन भारत से बहुत पीछे था। यूरोपी औपनिवेशिक ताकतों द्वारा आर्थिक शोषण और जापान के साथ जंग लड़ कर चीन पूरी तरह तबाह हो चुका था। ऐसी स्थिति से उबर कर आज चीन एक ताकतवर मुल्क बन चुका है। मानव विकास आँकड़ों में वह विकसित देशों के साथ टक्कर लेता है।

भारत में आज़ादी के बाद से ग़रीबों की हालत में जो थोड़े सुधार आए थे, तालीम और सेहत सुविधाओं में बेहतरी हुई थी, नब्बे के दशक में आर्थिक नवउदारवाद आने से आज तक और खास तौर पर पिछले आठ सालों से, उन में फिर से गिरावट आती रही है। धनी-ग़रीब में फ़र्क बढ़ता ही चला है।

चीन की निंदा जरूर की जानी चाहिए, हालांकि काश्मीर में या देश के तमाम और जगहों पर, जैसे छत्तीसगढ़ आदि में आदिवासी इलाकों में हमारी सैनिक या अर्धसैनिक बलों की उपस्थिति जैसी है, उसकी तुलना में चीन की तानाशाही कुछ भी नहीं है। साथ ही माओवादियों द्वारा जन-अदालत चलाकर आदिवासियों पर ज़ुल्म होते रहते हैं। दोनों ओर से पिस रहे ग़रीबों के लिए ज़िंदगी का मतलब एक ख़ौफ़नाक बेरहम तंत्र में मरते जाना है। क्या हमारे अंदर साहस नहीं बचा कि हम जो कुछ चीन में देख सकते हैं, उससे ज्यादा बेरहमी हमारे आसपास होते नहीं देख सकते? क्या हम चीन में बेरहमी सिर्फ इसलिए देखना चाहते हैं कि ऐसा कहते हुए हम बच निकलते हैं क्योंकि हमें कोई जेल में नहीं डालने डालने वाला, जैसा कि हमारे यहां के सबसे खूबसूरत उन इंसानों के साथ हुआ है, जो अपनी-अपनी जगह पर बड़ी हिम्मत और शिद्दत के साथ सरकारी जुल्म और सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ते रहे हैं। यह भी सही है कि ऐसे हालात सिर्फ हिंदुस्तान में नहीं है और इतिहास में पहले भी कई बार ऐसे तानाशाही के हालात हो चुके हैं। हास्यास्पद बात यह है कि जो मुल्क मानव अधिकारों के बारे में बड़ी बातें करते हैं, खासतौर से अमेरिका, वहां तो ऐसे हालात कई बार हो चुके हैं। पहले और दूसरे विश्व युद्ध के दौरान, अमेरिका में नागरिक अधिकार तक़रीबन बिल्कुल खत्म कर दिए गए थे। सरकार ने लोगों के खुल कर सियासी बातें करने या अपनी राजनीतिक राय प्रकट करने पर रोक लगाई हुई थी। किसी को भी जासूसी के नाम पर गिरफ्तार किया जा सकता था। दुनिया भर में सैंकड़ों फौजी अड्डे बनाने वाले और लोकतांत्रिक तरीकों से चुनी सरकारों को पलट गिराने वाले मुल्क अमेरिका ने चीन की बढ़ती फौजी ताकत के खिलाफ प्रोपागंडा छेड़ा हुआ है, हालाँकि चीन ने अपनी सीमाओं से दूर कहीं कोई फौजी अड्डा नहीं बनाया है।

अपने समाज में बेरहमी न देख पाने की हमें आदत हो गई है। हर दूसरे दिन कोई चौंकाने वाली खबर आती है और हम पढ़-देख कर उसे भूल जाते हैं। हाल में बिहार में गैंग-रेप पीड़िता एक लड़की और उसे मदद करने वालों को पौने तीन सौ किलोमीटर दूर किसी जेल में भेज दिया गया क्योंकि उन लोगों ने बयान की प्रति पढ़े बिना हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था और अदालत में इस पर बहस की थी। सुप्रीम कोर्ट के सम्मानित ऐडवोकेट प्रशांत भूषण पर अदालत की अवमानना के नाम पर मुकदमा चलना या प्रसिद्ध पत्रकार विनोद दुआ को पुलिस द्वारा परेशान करना - ऐसी खबरें आम हैं। आज हिंदुस्तान में हर जगह भय का माहौल है और धीरे-धीरे सरकार हर प्रकार के विरोधियों को क़ैद कर रही है। कोविड-19 की महामारी के दौरान यह और भी आसान हो गया है क्योंकि इकट्ठे होकर प्रतिवाद करना मुश्किल हो गया है। लोगों में ख़ौफ़ का माहौल है और अगर लोग इकट्ठे होते हैं तो बाक़ी समाज के लोग उन पर आरोप लगाते करते हैं कि वह बीमारी को फैला रहे हैं। ईमानदारी से सोचने वाले नागरिकों की यह जिम्मेदारी है कि वे यह बात लोगों तक ले जाएँ कि चीन के प्रति नफ़रत की जगह हम चीन में और हमारे यहाँ भी सियासत को समझें। हमारी दुश्मन हुकूमतें हैं, न कि आम लोग। इंसान हर जगह एक जैसा है, वह हिंद-पाक, चीन, अमेरिका-अफ्रीका और धरती पर हर जगह एक-सा है। इंसानियत को सामने रख कर हम बात करें। किसी देश को धूर्त कहने से हमारी स्थिति बेहतर नहीं होगी। हमें दुनिया के हर लोकपक्षी आंदोलन के साथ जुड़ते हुए अपने समाज की सड़न और अपने हुक्कामों से लड़ना होगा ताकि देश में बराबरी के हालात बनें।

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