मुझमें
मुझमें यह कौन बैठा है
जीत का दर्प जिसके ज़हन में बैठा है
वह चलता है जैसे कोई मशीन चलती है
कदम दर कदम वह धरती को जीतना चाहता है
जीतकर
शहर बसाऊँगा
नाम फैलाऊँगा
जो उजड़ गए उन बच्चों की
माँओं की बद-दुआएँ जमा करता रहूँगा
किन दुखों ने मुझे ऐसा बनाया है
क्या कोई कंधा नहीं था जब मैं रोना चाहता था
शौक से यायावरी क्यों न कर पाया
क्यों न चल पड़ा कभी
बसे हुए गाँव-शहरों में से गुजरते
जंगलों, पहाड़ों में से ऊबड़-खाबड़ ज़मीं के साथ न बतियाया
न बैठा, पल भर चैन से संगीत न सुना
न सुना कि हवा की साँय-साँय में कोई गा रहा है
आरोह-अवरोह गाते हुए सैर न किया
परिंदों, जानवरों से प्यार न किया
तस्वीरें न बनाई
वे इलाके, जहाँ मौत के खेल खेल चुका हूँ, कोई मेरे नहीं रहेंगे
औरों की क्या, मैं खुद अपना नहीं रहूँगा
कभी जागना होगा कुछ और बनकर
****
बोझ
फ़ोन पर, ख़त लिखकर, कभी न नहीं कहा
कहते हुए जैसे अपने ही कान दुखते हैं
अपनी ज़ुबान में कभी न नहीं कह पाया
कभी कहा तो ऐसी ज़ुबान में कहा कि खुद समझ न पाया
तर्जमा किया तो न न नहीं रहा
कुछ और कहता गुजर गया
कभी सोचा कि इस पल नहीं
फिर कभी न कह देंगे
इंतज़ार में रहा कि कभी
हर कोई उदासीन हो जाएगा
दीवारें कान बंद कर लेंगी
और चुपके से न कह दूँगा
कह देता तो क्या बिगड़ना था
जो अभी न है हमेशा न रहे ज़रूरी नहीं है
जिस्मोज़हन की ज़रूरतें बदलती हैं
रूह की फरियाद बदलती है
डिलीट भी हो जाता है लिखा हुआ लफ्ज़
सुननेवालों ने न सुनना चाहा होगा
मुमकिन है कि कोई मुखालफत न करता
किसी से माफी नहीं माँगनी पड़ती
न न कह पाना बोझ बन गया चिरंतन
ऐ खुदी, माफ करना
जानता नहीं कि क्यों न नहीं कहा। (वागर्थ -2020)
***
अहल्या
लड़की को पता था।
क्या सचमुच पता था
क्या वह पारदर्शी नकाब बुन सकती थी
उसे मिला था इश्क मजाज़ी
कहा गया था कि जीना है इश्क हक़ीक़ी
जीवन का हर तंतु तत्सम बुनना है
और इस तरह खेल खत्म हो गया।
बाक़ी बचा पत्थर का सनम
खेल देख रहे माँ-बाप-भाई-बहन-देवर-ननद-जेठ....
मान लेना है, समझ लेना है कि पाप हुआ है।
पथरीले अणुओं से बना उसका दिल धड़का होगा
आँखें थक कर जम गई होंगी
जाने कितने दिनों तक न आई नींद
उदासी की मोटी परत बनकर उतर आई होगी
कहते हैं जवानी की नींद गाढ़ी होती है
उँगलियों के छोर तरस रहे होंगे
कि प्रेम की खरोंच जड़ दे फिर से फिर से
हुस्न अमूर्त खयाल बन कर जम गया होगा
कहानी खत्म हो सकती थी
पर नहीं, अभी एक और पुरुष का आना बाक़ी है
स्त्री फिर आज़ाद होगी मर्यादा पुरुषोत्तम के पाँव तले
उसका प्यार कैसा तड़पता है अब तक
इंद्र को क्या पता।
- विपाशा (2019)
मुझमें यह कौन बैठा है
जीत का दर्प जिसके ज़हन में बैठा है
वह चलता है जैसे कोई मशीन चलती है
कदम दर कदम वह धरती को जीतना चाहता है
जीतकर
शहर बसाऊँगा
नाम फैलाऊँगा
जो उजड़ गए उन बच्चों की
माँओं की बद-दुआएँ जमा करता रहूँगा
किन दुखों ने मुझे ऐसा बनाया है
क्या कोई कंधा नहीं था जब मैं रोना चाहता था
शौक से यायावरी क्यों न कर पाया
क्यों न चल पड़ा कभी
बसे हुए गाँव-शहरों में से गुजरते
जंगलों, पहाड़ों में से ऊबड़-खाबड़ ज़मीं के साथ न बतियाया
न बैठा, पल भर चैन से संगीत न सुना
न सुना कि हवा की साँय-साँय में कोई गा रहा है
आरोह-अवरोह गाते हुए सैर न किया
परिंदों, जानवरों से प्यार न किया
तस्वीरें न बनाई
वे इलाके, जहाँ मौत के खेल खेल चुका हूँ, कोई मेरे नहीं रहेंगे
औरों की क्या, मैं खुद अपना नहीं रहूँगा
कभी जागना होगा कुछ और बनकर
****
बोझ
फ़ोन पर, ख़त लिखकर, कभी न नहीं कहा
कहते हुए जैसे अपने ही कान दुखते हैं
अपनी ज़ुबान में कभी न नहीं कह पाया
कभी कहा तो ऐसी ज़ुबान में कहा कि खुद समझ न पाया
तर्जमा किया तो न न नहीं रहा
कुछ और कहता गुजर गया
कभी सोचा कि इस पल नहीं
फिर कभी न कह देंगे
इंतज़ार में रहा कि कभी
हर कोई उदासीन हो जाएगा
दीवारें कान बंद कर लेंगी
और चुपके से न कह दूँगा
कह देता तो क्या बिगड़ना था
जो अभी न है हमेशा न रहे ज़रूरी नहीं है
जिस्मोज़हन की ज़रूरतें बदलती हैं
रूह की फरियाद बदलती है
डिलीट भी हो जाता है लिखा हुआ लफ्ज़
सुननेवालों ने न सुनना चाहा होगा
मुमकिन है कि कोई मुखालफत न करता
किसी से माफी नहीं माँगनी पड़ती
न न कह पाना बोझ बन गया चिरंतन
ऐ खुदी, माफ करना
जानता नहीं कि क्यों न नहीं कहा। (वागर्थ -2020)
***
अहल्या
लड़की को पता था।
क्या सचमुच पता था
क्या वह पारदर्शी नकाब बुन सकती थी
उसे मिला था इश्क मजाज़ी
कहा गया था कि जीना है इश्क हक़ीक़ी
जीवन का हर तंतु तत्सम बुनना है
और इस तरह खेल खत्म हो गया।
बाक़ी बचा पत्थर का सनम
खेल देख रहे माँ-बाप-भाई-बहन-देवर-ननद-जेठ....
मान लेना है, समझ लेना है कि पाप हुआ है।
पथरीले अणुओं से बना उसका दिल धड़का होगा
आँखें थक कर जम गई होंगी
जाने कितने दिनों तक न आई नींद
उदासी की मोटी परत बनकर उतर आई होगी
कहते हैं जवानी की नींद गाढ़ी होती है
उँगलियों के छोर तरस रहे होंगे
कि प्रेम की खरोंच जड़ दे फिर से फिर से
हुस्न अमूर्त खयाल बन कर जम गया होगा
कहानी खत्म हो सकती थी
पर नहीं, अभी एक और पुरुष का आना बाक़ी है
स्त्री फिर आज़ाद होगी मर्यादा पुरुषोत्तम के पाँव तले
उसका प्यार कैसा तड़पता है अब तक
इंद्र को क्या पता।
- विपाशा (2019)
Comments