Thursday, July 16, 2020

सब कुछ धुँआ-धुँआ है

जागने पर क्या दिखेगा

धरती को कभी ऐसा देखा न था
जैसे मेरी माँ नहीं, बेटी है
अभी कल की जन्मी
अँगड़ाई लेना सीख रही
धरती लिपटती है मुझ से
तो घबराता हुआ उसका माथा थामता हूँ
कितनी नाज़ुक, नर्म, हल्के-से ताप की गठरी है

धीमे चलता हूँ, धरती कहीं टकरा न जाए
ख़ला में तारों के टुकड़े बिखरे पड़े हैं
कभी भी ठोस-द्रव-गैस हर तरह की टक्कर कहीं से आ सकती है
धरती को गीत गाकर सुलाता हूँ
उसके चेहरे पर महाकाश से आती रोशनी देखता हूँ

धरती रोती है बेचैन होता हूँ
पुचकारता हूँ आगे पीछे चलता हूँ दोलता हूँ
अनकही कहानियों में से चुनिंदा उसे सुनाता हूँ

इस तरह धरती को प्यार करते देख किसान गर्दन उठाकर देखते हैं
फसल रोपते हुए वे धरती के लिए गीत गाते हैं
गर्म हवाएँ थोड़ी देर थमी रहती हैं
बादल रिमझिम संगीत बन बरसते हैं
किसानों को अंदेशा है कि मैं धरती की नज़ाकत से घबरा रहा हूँ
वे भरोसा देते हैं कि धरती मेरा प्यार सह लेगी
उन्होंने धरती की चमड़ी पर जीवन-गाथाएँ उकेरी हैं
हवाएँ बहती हैं कि प्यार उफन रहा है
धीमी बयार और तेज झोंके जब जैसा सही है

देखो, धरती फिलहाल नींद में है
जैसे मैंने दुलार कर सुला दिया हो
पलकें भारी हो आई हों
और सपनों में आरोह-अवरोह चल रहा है

यही वक्त है कि मैं सो लूँ
कौन जानता है कि जागने पर क्या दिखेगा
क्या धरती रहेगी क्या मैं रहूँगा
मोतियों की थाल लिए आस्मां रहेगा
कुछ कहा नहीं जा सकता
सब कुछ धुँआ-धुँआ है
फिलवक्त मैं और धरती
नींद के दोलन में दोल रहे हैं। (इंद्रप्रस्थ भारती -2020)

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