Wednesday, May 14, 2014

सबक



संसद के चुनाव हो गए।
देशी और विदेशी स्रोतों से मिले बेइंतहा सरमाया की मदद से, मीडिया के बड़े हिस्से को खरीदकर, तमाम किस्म के ऊल-जलूल झूठ बोलकर, कहीं विकास का झाँसा, कहीं मुसलमानों को भरोसा तो कहीं डर दिखलाकर, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा और सहयोगी दलों के राजग गठबंधन ने सबसे अधिक सीटें जीत लेने का शोर मचाया हुआ है। काफी शोर मचा है कि लड़ाई विकास बनाम भ्रष्टाचार की है। चुनाव खत्म होने पर स्पष्ट हो जाएगा कि न तो भ्रष्टाचार कम होने वाला है और न ही सही मायने में कोई विकास होने वाला है। जो विकास के दावेदार हैं उन्होंने दस हजार करोड़ जिनके फुँकवाए हैं, वे कौन सा दूध के धुले हैं, या यूँ कहें कि वे दूध ही से नहाते हैं; उन्हें तो मय सूद अपनी पूँजी वापस चाहिए। उन्हें अपने धंधों में अधिक से अधिक मुनाफा चाहिए, इसलिए स्टॉक मार्केट भी चुनावों के परिणामों की ओर ताक लगाए बैठा है। विकास के हल्ले के साथ सांप्रदायिक और पोंगापंथी ताकतें एक कदम आगे बढ़ आई हैं। आयुर्जीनोमिक्स नामक किंभुत विषय उग आए हैं।

क्या आम लोग सचमुच बेवकूफ हैं कि वे एक भेड़ चाल में आकर इस तरह अपना ही सत्यानाश कर बैठें। क्या सूचना क्रांति के तमाम पहलुओं के बावजूद देश की स्त्रियाँ इतनी बेवकूफ हैं कि उनको पता नहीं कि उनके प्रति संघ परिवार का नज़रिया क्या है? गौरतलब है कि अभूतपूर्व सरमाया लगाने के बावजूद संघ परिवार को आज तक दक्षिणी प्रांतों में कोई खास सफलता नहीं मिली है। अशिक्षा, ग़रीबी और मानव विकास के तमाम आँकड़ों में हिंदी क्षेत्र दक्षिणी प्रांतों से बहुत पीछे हैं। मीडिया में शोर शराबे का जो प्रभाव हिंदी प्रदेशों में दिखता है, उतना दक्षिण में नहीं दिखता। मीडिया पढ़े लिखे लोगों तक को मानसिक गुलाम बना देता है। मीडिया और सूचना उद्योग से जुड़ी कंपनियाँ अरबों रुपए संज्ञान के नियंत्रण पर शोध के लिये खर्च करती हैं। प्रबंधन में प्रशिक्षण का बड़ा हिस्सा इसी दिशा का है। कम पढ़े लिखे लोगों की क्या बिसात कि ऐसे तूफान के सामने वे टिकें। इसमें अचंभित होने की कोई बात नहीं कि उत्तर भारत के बड़े हिस्से में संघ परिवार का प्रभाव बढ़ा है। गुजरात और महाराष्ट्र में उनकी जड़ें पहले से ही गहरी हैं और कहीं हिंसा तो कहीं राजनैतिक दाँवपेंच से विरोध की ज़मीन को उखाड़ने में वे सफल रहे हैं। पर बात सिर्फ इतनी नहीं है। विकास का झाँसा और सांप्रदायिकता के हो-हल्ले का प्रभाव सिर्फ ग़रीब अनपढ़ जनता पर ही नहीं; कहने को महान संस्कृति वाले हमारे देश के संपन्न और मध्य-वर्गों के कई लोग वास्तव में क्रूर और संवेदनाहीन होकर बहुसंख्यक लोगों के खिलाफ षड़यंत्र में शामिल हैं। उन्होंने तय कर लिया कि अब इन ग़रीब-गुरबा को खत्म करो, इनसे पानी, हवा, मिट्टी सब छीन लो। 
 
शोर मचा कि वाम दल तो ऐसे दलों के साथ हाथ मिला रहे हैं, जिनमें भ्रष्ट नेता भरे हुए हैं। बुर्ज़ुआ लोकतंत्र और संसदीय चुनावी खेल की मजबूरी में गठबंधन की राजनीति करने पर भी वाम को लताड़ मिलती है कि वाम तो अब खत्म हो गया। जैसे कि भारतीय वाम के नेतृत्व में पिछले सौ वर्षों का ज़मीनी आंदोलन का इतिहास, जनांदोलनों का इतिहास, सब कुछ कपोल- कल्पना थे। सच यह है कि आज भी सड़क से संसद तक और ज़मीन जंगल की नैतिक लड़ाई में वाम ही एकमात्र उम्मीद बची रह गई है।

ऐसे में लोकतांत्रिक ताकतों के लिए सबक क्या हैं? कइयों का पहला सवाल यह होगा कि कौन से लोकतांत्रिक? मैं अपने जैसे उन लोगों की तरफ से लिख रहा हूँ, जिन्हें अपनी सारी कमज़ोरियों के बावजूद बेहतर भविष्य के सपने देखने की बीमारी है।

लोकतांत्रिक परंपरा का एक सीधा नतीज़ा वैचारिक विविधता है। हमें आपसी मतों की विविधता का सम्मान करना सीखना होगा। दूसरों को चोट पहुँचाए बिना, अपनी बात कह पाने के तरीके ईजाद करने होंगे। अपनी ऊर्जा एक-दूसरे के साथ बहस और विरोध में नहीं, उनके खिलाफ लड़ने में लगानी होगी जो लोकतंत्र का नाश चाहते हैं। हमें अपने छोटे-छोटे समझौतों को नज़र-अंदाज़ करते हुए एक साझी लड़ाई का मंच तैयार करना होगा। हमारी पहली प्रतिबद्धता उन सब जुझारू साथियों के प्रति है जो जनांदोलनों से लेकर पूँजीवाद के सामने घुटने टेक चुके राज्य के खिलाफ तरह-तरह के जनयुद्ध में जुटे हैं।

बड़े सामाजिक-राजनैतिक संघर्षों में कौन सा सूक्ष्म विचार सफल होता है और कौन असफल, यह पहले से तय नहीं होता। एक मंच पर आने की कोशिशें होती रही हैं; ऐसी बड़ी कोशिशें हाल में लेखक संगठनों की साझा सभाओं और मंचों से आए बयानों में दिखती हैं।

यह विड़ंबना है कि मुक्तिकामी परपरा के विचार - जो सारी मानवता से जुड़े हैं, उसकी समझ पुख्ता करने के लिए हम ऐसी भाषा में विमर्श करते हैं, जो वंचितों की भाषा नहीं है, और अधिकतर ऐसे मुहावरों में तर्क रखते हैं, जो हमारी ज़मीन से नहीं आए। दूसरी तरफ संकीर्ण और सांप्रदायिक राष्ट्रवाद का विचार, जो यूरोप की विशेष परिस्थितियों में जन्मा, और जिसे यूरोप के लोग काफी हद तक खारिज कर चुके हैं, उसका प्रचार प्रसार करने के लिए संघ परिवार पूरी तरह देशी भाषाओं और देशी मुहावरों का इस्तेमाल करता है। यानी फासीवाद के उभार और लोकतंत्र की असफलता का एक भाषाई पक्ष भी है, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए।

हमें अपने बड़े सपने को साकार करने के लिए मौजूदा सभी जनपक्षधर विचारों का इस्तेमाल करना होगा। मार्क्स स्वयं अपने जीवन काल में वैचारिक सीमाओं से निकल कर लगातार नए सवाल-जवाबों से जूझते रहे। बीसवीं सदी के प्रबुद्ध चिंतक और नेता आंबेडकर और शांतिपूर्ण विरोध की रणनीति के पुरोधा गाँधी, जिनको बदकिस्मती से तकरीबन एक उद्योग का नाम बना दिया गया है, और मानवेंद्र नाथ रॉय और लोहिया जैसे चिंतकों से हमें लगातार प्रेरणा लेनी होगी। हमें यह देखना होगा कि सांप्रदायिकता के खिलाफ नोआखाली और कोलकाता में गाँधी कैसे निडर होकर लड़े। अंततः सांप्रदायिकता से लड़ते हुए संघियों के हाथों उनकी जान गई। उनकी आधुनिकता की आलोचना मुख्यतः पूँजीवाद की आलोचना है।

मतलब यह नहीं कि हम इन सभी विचारकों के अंध-भक्त बन जाएँ, पर हम ऐसे हर प्रतिबद्ध विचारक से सीखें, जिसने भी जनता की मुक्ति के संघर्ष की सफलता के लिए काम किया है। एक ऐसा बड़ा मंच हो, जिसमें गाँधीवादियों और लोहियावादियों से लेकर कम्युनिस्ट तक इकट्ठे हो सकें। अस्सी के दशक के आखिरी सालों में ऐसा ही एक मंच बनाने निकले नागभूषण पटनायक हर जगह जाकर कहते थे कि हम इस बात को मान लें कि हममें से हर कोई देशभक्त है। जाहिर है देशभक्ति से उनका मतलब संघी टाइप की संकीर्णता नहीं थी।

दूसरे मुल्कों से मिसाल ढूँढें तो वेनेज़ुएला के ऊगो शावेज़ कोई बड़े विचारक नहीं थे, पर लोगों को अपने साथ लेने में न केवल वे अपने देश में काबिल हुए, बल्कि समूचे लातिन अमेरिका और दुनिया के और दीगर देशों में भी मुक्तिकामी जनता के लिए प्रेरणा के स्रोत बने। यही बात कूबा के बारे में भी कुछ हद तक कही जा सकती है - कास्त्रो का नाम कम्युनिस्ट इतिहास में विचारक नहीं, बल्कि एक कुशल प्रशासक और रणनीतिज्ञ की तरह ही जाना जाता है। चे ग्वेवारा को लोग उनकी रोमांटिक क्रांतिकारी की छवि के लिए ही जानते हैं। इन सब के विपरीत जहाँ भी वैचारिक शुद्धता पर जोर ज्यादा रहा है, वहाँ लोगों के साथ नेतृत्व का संबंध टूटा है और वहाँ साम्राज्यवादी ताकतों को घुसपैठ करने का मौका मिला है। ग्रेनाडा और अफग़ानिस्तान इसके अच्छे उदाहरण हैं। इसके बरक्स वेनेज़ुएला में सैद्धांतिक विचारकों ने अपनी सीमाओं को और शावेज़ की लोकप्रियता को पहचानते हुए उन्हें सत्ता की बागडोर सँभालने दी। उनकी मौत के बाद वैसे ही करिश्मा के किसी नेता के न होने से वहाँ जनवादी ताकतों में विभाजन हो रहा है और इसका फायदा अमेरिकी साम्राज्यवाद को मिल रहा है।

प्रगतिशील आंदोलन ने आंबेडकर को क्रांतिकारी नेता मानकर अपनी गल्ती सुधार ली है। सवाल मुहावरे, लहजे और आत्मीयता का भी है। क्या वाम नेतृत्व समय के साथ बदलते सही मुहावरे ढूँढने में असफल हुआ है? जो लोग मीडिया के झाँसे में आ गए हैं वे ऐसा ही कहेंगे। सच यह है कि देश में चल रहे तकरीबन सभी जनांदोलन किसी न किसी तरह के वाम प्रभाव में हैं। समस्या यह है कि वाम के पास चुनावी तंत्र में बेहद सरमाया का इस्तेमाल और मीडिया के पक्षपात से टक्कर लेने की क्षमता नहीं है। दूसरा खेल गठबंधनों का है। ऐसे दलों के साथ गठबंधन करते हुए जिनकी छवि बिगड़ चुकी है, जवाबदेह तो होना पड़ेगा। जहाँ जितना मौका मिलता है बुनियादी मुद्दों पर वापस जाना होगा और भावनात्मक पक्षों का ध्यान रखते हुए सांगठनिक प्रक्रियाओं को मजबूत कर जनचेतना के लिए संघर्ष करना होगा। अक्सर साथ साथ काम करते हुए अलग-अलग संगठन इस वजह से अलग हो जाते हैं कि उन्हें एक दूसरे पर शक रहता है कि वे अपना प्रभाव बढ़ा कर दूसरे को हाशिए पर धकेलना चाहते हैं। इस प्रवृत्ति का एक ही हल है कि हम इससे होते नुकसान को समझें। आखिर में लोग अपने आप सही रास्ता ढूँढेंगे। शक-सुबहे में फँस कर आंदोलन को बिखरने न दें। अपने बड़े उद्देश्य को सामने रखें। छोटे-छोटे गुटों में प्रभाव बढ़ाकर सामयिक संतोष तो मिल सकता है, पर लंबी अवधि में यह खुद को भी और जनता को भी नुकसान पहुँचाता है। इसलिए बदलती परिस्थिति में पहली शर्त यह होनी चाहिए कि किसी भी तरह से साझी लड़ाई को बिखरने न देंगे। अच्छे प्रार्थियों के साथ गठबंधन हर चुनाव क्षेत्र में हो सकता है, पर जब राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन करना हो तो साफ तौर पर यह बतलाना ज़रूरी है कि यह केवल एक रणनीति है और गठबंधन में शामिल दलों की हर नीति को हमारा समर्थन नहीं है।

अब यह साफ हो गया है कि जनपक्षधर बहुत सारी ऊर्जा आपस की लड़ाई में ही खर्च हो जाती है और संघ परिवार को इसका पूरा फायदा मिला। यह उसी तरह है जैसे 1930 के दशक में जर्मनी में के पी डी और एस पी डी जैसी पार्टियाँ इसी बहस में उलझी हुई थीं कि जर्मन समाज का सही वर्गीय चरित्र क्या है और हिटलर ने सत्ता हथिया ली। जनपक्षी ताकतों में अब भी अगर बिखराव नहीं रुका और हम आपसी बहस में ही सारी ऊर्जा खत्म करते रहे तो यह आम लोगों के साथ विश्वासघात होगा। सामाजिक बदलाव के लिए जो कुर्बानियाँ आंदोलनों के साथ जुड़े कार्यकर्त्ताओं ने दी हैं, वे व्यर्थ न जाएँ यह देखना है। सारी दुनिया में पूँजीवाद का संकट गहरा रहा है। देखना है कि हम हाल के इतिहास से सही सबक ले पाते हैं या नहीं।


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