Skip to main content

एक कहानी कुछ विचार

मैं इन दिनों 'रीडिंग्स फ्राम हिंदी लिटरेचर' नामक कोर्स पढ़ा रहा हूँ। 'हंस' पत्रिका के युवा लेखन पर आधारित अगस्त अंक में प्रकाशित दो कहानियाँ पढ़ी गईं। इन पर विषद् चर्चा हुई। एक छात्र (शशांक साहनी) द्वारा संयोजित कुछ टिप्पणियाँ नीचे हैं। दूसरी कहानी (तबस्सुम फातिमा की 'हिजाब') मुझे ज्यादा बेहतर लगी थी, उस पर कम चर्चा हुई, और शशांक को शायद कोई भी टिप्पणी याद नहीं रही। शायद बाकी छात्र इस ब्लाग पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए दूसरी कहानी पर भी कुछ लिखें।


बकौल शशांकः
हमने हिंदी की कक्षा में हंस पत्रिका में प्रकाशित एक कहानी " प्रार्थना के बाहर " (गीताश्री) पर चर्चा की । हमारे साथ हैदराबाद विश्व विद्यालय के हिंदी विभाग के शोध छात्र राजीव भी थे । उन्होने सभी छात्रों से इस कहानी के बारे में अपने-अपने विचार पूछे तो सभी ने कई अलग अलग विचार प्रस्तुत किये । उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं -
-> प्रार्थना इतनी पढ़ी लिखी होने के बावजूद ऐसी गलतियाँ कैसे कर सकती थी ?
-> पिछले विचार पर ये बात उठी की हम किन चीजों को गलत मानते हैं ? समाज में जो सही कहा जाता है क्या हम उसे ही सही मानेंगे ?
-> प्रार्थना जो कुछ भी करती थी वो उसकी मर्ज़ी थी वो किसी का बुरा तो नहीं करती थी तो हम उसे गलत क्यों कहते हैं ?
-> कई लोगो के मन में ये विचार थे की क्या रचना जैसे ईमानदार लोगों को सफलता नहीं मिलती और प्रार्थना जैसे अपनी मर्ज़ी से जीने वाले लोग सफल हो जाते हैं ?
-> चर्चा की शुरुआत में सबको लगा था कि प्रार्थना लोगों से शारीरिक सम्बन्ध बनाने के बावजूद भी पढ़कर अच्छा रैंक ले आई परन्तु तब राजीव ने कहानी कि कुछ पंक्तियाँ वापिस पढ़कर बताया जिनसे साफ़ पता चलता था कि वो परिणाम उसके दिल्ली आने से पहले की मेहनत से आया था | तो इससे ये बात तो सबको साफ़ हो गई थी कि कहानी कहीं से भी प्रार्थना के विचारों को प्रगतिशील नहीं कहती है ।
-> सभी इसी मत में थे कि प्रार्थना के विचार एक आधुनिक महिला के ख्याल थे और पुरुष प्रधान समाज को चुनौती देते थे ।
-> और तब राजीव ने इस बात की तरफ इशारा किया कि वो वही सब कर रही ही जो पुरुष करते हैं तो एक तरह से वो पुरुष प्रधान समाज के ही नक्शे कदम पर चल रही थी । अगर उसे इस पुरुष प्रधान समाज से लड़ना था तो उसे पुरुष बन कर नहीं बल्कि स्त्री बन कर लड़ना चाहिए ।
-> फिर राजीव ने कहानी के दूसरे पहलू पर सबका ध्यान खींचा। उन्होंने कहा कि प्रार्थना की रूममेट रचना को एक आम भारतीय नारी की तरह दर्शाया गया है । उसके जीवन की परेशानियाँ एक आम भारतीय नारी जैसी होती हैं ।

Comments

हिजाब ने अपील किया .इसके अलावा राजेन्द्र यादव ओर मुशर्रफ़ आलम जौकी द्वारा संपादित एक किताब "मुस्लिम जगत की बागी औरते " पढ़कर मुझे यही लगा जितनी बेबाकी ओर साहस से वे लिखती है ..मुआफ कीजिये न जाने किस कारण .वो साहस अधिकतर हिंदी लेखिकाए .नहीं जुटा पाती ...
ghughutibasuti said…
रोचक।
घुघूती बासूती

Popular posts from this blog

फताड़ू के नबारुण

- 'अकार' के ताज़ा अंक में प्रकाशित 'अक्सर आलोचक उसमें अनुशासन की कमी की बात करते हैं। अरे सालो, वो फिल्म का ग्रामर बना रहा है। यह ग्रामर सीखो। ... घिनौनी तबाह हो चुकी किसी चीज़ को खूबसूरत नहीं बनाया जा सकता। ... इंसान के प्रति विश्वसनीय होना, ग़रीब के प्रति ईमानदार होना, यह कला की शर्त है। पैसे-वालों के साथ खुशमिज़ाजी से कला नहीं बनती। पोलिटिकली करेक्ट होना दलाली है। I stand with the left wing art, no further left than the heart – वामपंथी आर्ट के साथ हूँ, पर अपने हार्ट (दिल) से ज़्यादा वामी नहीं हूँ। इस सोच को क़ुबूल करना, क़ुबूल करते-करते एक दिन मर जाना - यही कला है। पोलिटिकली करेक्ट और कल्चरली करेक्ट बांगाली बर्बाद हों, उनकी आधुनिकता बर्बाद हो। हमारे पास खोने को कुछ नहीं है, सिवाय अपनी बेड़ियों और पोलिटिकली करेक्ट होने के।' यू-ट्यूब पर ऋत्विक घटक पर नबारुण भट्टाचार्य के व्याख्यान के कई वीडियो में से एक देखते हुए एकबारगी एक किशोर सा कह उठता हूँ - नबारुण! नबारुण! 1 व्याख्यान के अंत में ऋत्विक के साथ अपनी बहस याद करते हुए वह रो पड़ता है और अंजाने ही मैं साथ रोने लगता हू...

मृत्यु-नाद

('अकार' पत्रिका के ताज़ा अंक में आया आलेख) ' मौत का एक दिन मुअय्यन है / नींद क्यूँ रात भर नहीं आती ' - मिर्ज़ा ग़ालिब ' काल , तुझसे होड़ है मेरी ׃ अपराजित तू— / तुझमें अपराजित मैं वास करूँ। /  इसीलिए तेरे हृदय में समा रहा हूँ ' - शमशेर बहादुर सिंह ; हिन्दी कवि ' मैं जा सकता हूं / जिस किसी सिम्त जा सकता हूं / लेकिन क्यों जाऊं ?’ - शक्ति चट्टोपाध्याय , बांग्ला कवि ' लगता है कि सब ख़त्म हो गया / लगता है कि सूरज छिप गया / दरअसल भोर  हुई है / जब कब्र में क़ैद हो गए  तभी रूह आज़ाद होती है - जलालुद्दीन रूमी हमारी हर सोच जीवन - केंद्रिक है , पर किसी जीव के जन्म लेने पर कवियों - कलाकारों ने जितना सृजन किया है , उससे कहीं ज्यादा काम जीवन के ख़त्म होने पर मिलता है। मृत्यु पर टिप्पणियाँ संस्कृति - सापेक्ष होती हैं , यानी मौत पर हर समाज में औरों से अलग खास नज़रिया होता है। फिर भी इस पर एक स्पष्ट सार्वभौमिक आख्यान है। जीवन की सभी अच्छी बातें तभी होती हैं जब हम जीवित होते हैं। हर जीव का एक दिन मरना तय है , देर - सबेर हम सब को मौत का सामना करना है , और मरने पर हम निष्क्रिय...

मुझे अरुंधती से ईर्ष्या है

मैं उन करोड़ों लोगों में से हूँ, जो इस वक़्त अरुंधती के साथ हैं. ये सभी लोग अरुंधती के साथ जेल जाने की हिम्मत नहीं रखते, मैं भी डरपोक हूँ. पर इस वक़्त मैं अरुंधती का साथ देने के लिए जेल जाने को भी तैयार हूँ. अरुंधती ने जो कहा है वह हम उन सब लोगों की तरफ से कहा है, जो निरंतर हो रहे अन्याय को सह नहीं सकते. देशभक्ति के नाम पर मुल्क के गरीबों के खून पसीने को कश्मीरियों के दमन के लिए बहा देना नाजायज है और यह कभी भी जायज नहीं हो सकता. कश्मीर पर सोचते हुए हम लोग राष्ट्रवाद के मुहावरों में फंसे रह जाते हैं. जब इसी बीच लोग मर रहे हैं, कश्मीरी मर रहे हैं, हिन्दुस्तानी मर रहे हैं. करोड़ों करोड़ों रुपए तबाह हो रहे हैं. किसलिए, सिर्फ एक नफरत का समंदर इकठ्ठा करने के लिए. यह सही है कि हमें इस बात की चिंता है की आज़ाद कश्मीर का स्वरुप कैसा होगा और हमारी और पकिस्तान की हुकूमतों जैसी ही सरकार आगे आजादी के बाद उनकी भी हो तो आज से कोई बेहतर स्थिति कश्मीरियों की तब होगी यह नहीं कहा जा सकता. पर अगर यह उनके लिए एक ऐतिहासिक गलती साबित होती है तो इस गलती को करने का अधिकार उनको है. जिनको यह द...