सचमुच
कमाल ही है। पता ही नहीं चलता
कि कैसे वक्त बीतता है। इस बीच
चंडीगढ़, कोलकाता
और अब कुछ दिनों के लिए वापस
हैदराबाद।
इस दौरान हर कहीं गड़बड़झाला। दिसंबर की शुरुआत में लुधियाना में दंगे, फिर हैदराबाद और आस पास तेलंगाना के पक्ष विपक्ष में लड़ाई और कोलकाता में कालेजों और सड़कों में ईंट पत्थर, सोडा वाटर बोतलों, घरेलू बमों और टीयर गैस की मारपीट। अलग अलग जगहें और अलग अलग तरह के संघर्ष। हर जगह भ्रष्ट राजनैतिक ताकतों का नंगा नाच। बीच में इन सब विषयों पर लिखने की कोशिश भी की, पर पूरा कर ही नहीं पाता। चंडीगढ़ में एक रीफ्रेशर कोर्स में साहित्य और संघर्ष पर बोलत हुए संघर्ष की धारणा पर नए ढंग से सोचने का मौका मिला।
बहरहाल कोलकाता में एक अंतर्राष्ट्रीय समम्लन में अपने वैज्ञानिक शोधकार्य पर पर्चा पढ़ने गया था, पर उसी दौरान मौका निकाल कर एक बहुत ज़रुरी काम कर डाला। १९८८ में सुकुमार राय के 'ह य व र ल' का बांग्ला से हिंदी में अनुवाद किया था। अशोक अग्रवाल ने संभावना या पुनर्नवा प्रकाशन से प्रकाशित किया था। मध्य प्रदेश के 'आपरेशन ब्लैकबोर्ड' प्रोग्राम को टार्गेट कर यह पुस्तक निकाली गई थी। तो इस दौरान मैंने यह सारा अनुवाद टाइप कर सिस्टम में डाल दिया। अब किस्तों में इसे पोस्ट कर रहा हूँ।
इस दौरान हर कहीं गड़बड़झाला। दिसंबर की शुरुआत में लुधियाना में दंगे, फिर हैदराबाद और आस पास तेलंगाना के पक्ष विपक्ष में लड़ाई और कोलकाता में कालेजों और सड़कों में ईंट पत्थर, सोडा वाटर बोतलों, घरेलू बमों और टीयर गैस की मारपीट। अलग अलग जगहें और अलग अलग तरह के संघर्ष। हर जगह भ्रष्ट राजनैतिक ताकतों का नंगा नाच। बीच में इन सब विषयों पर लिखने की कोशिश भी की, पर पूरा कर ही नहीं पाता। चंडीगढ़ में एक रीफ्रेशर कोर्स में साहित्य और संघर्ष पर बोलत हुए संघर्ष की धारणा पर नए ढंग से सोचने का मौका मिला।
बहरहाल कोलकाता में एक अंतर्राष्ट्रीय समम्लन में अपने वैज्ञानिक शोधकार्य पर पर्चा पढ़ने गया था, पर उसी दौरान मौका निकाल कर एक बहुत ज़रुरी काम कर डाला। १९८८ में सुकुमार राय के 'ह य व र ल' का बांग्ला से हिंदी में अनुवाद किया था। अशोक अग्रवाल ने संभावना या पुनर्नवा प्रकाशन से प्रकाशित किया था। मध्य प्रदेश के 'आपरेशन ब्लैकबोर्ड' प्रोग्राम को टार्गेट कर यह पुस्तक निकाली गई थी। तो इस दौरान मैंने यह सारा अनुवाद टाइप कर सिस्टम में डाल दिया। अब किस्तों में इसे पोस्ट कर रहा हूँ।
ह
य व र ल
सुकुमार
राय
मूल
बांग्ला से अनुवादः लाल्टू
बड़ी गर्मी है। पेड़ के नीचे छाया में मजे से लेटी हुई हूँ, फिर भी पसीने से परेशान हो गई हूँ। घास पर रुमाल रखा था, जैसे ही पसीना पोंछने के लिए उसे उठाने गई, रुमाल ने कहा, "म्याऊँ!" हद है! रुमाल म्याऊँ कयों कहता है?
आँख खुली और देखा तो पाया कि रुमाल अब रुमाल नहीं, एक मोटा सा गाढ़े लाल रंग का बिल्ला मूँछें फैलाए टुकुर टुकुर मेरी ओर देख रहा है।
मैं बोली, "अरे यार! था रुमाल, बन गया बिल्ला।"
बिल्ला झट से बोल पड़ा, " इसमें क्या परेशानी है? जो अंडा था, उससे क्वांक वांक करता बत्तख बना। ऐसा तो हमेशा ही होता रहता है।"
मैंने जरा सोचकर कहा, "तो अब तुम्हें किस नाम से पुकारुँ? तुम तो सचमुच बिल्ले नहीं हो, तुम तो रुमाल हो।"
बिल्ला बोला, "बिल्ला कह सकती हो, रुमाल भी कह सकती हो, चंद्रबिंदु भी कह सकती हो।"
मैं बोली, "चंद्रबिंदु क्यों?"
बिल्ले ने सुन कर कहा, "यह भी नहीं जाना?" कहकर एक आँख मींचे खी खी कर भद्दी सी हँसी हँसने लगा। मैं बड़ा अटपटा महसूस करने लगी। लगा जैसे इस "चंद्रबिंदु" का मतलब मुझे समझना चाहिए था। इसलिए घबराकर जल्दबाजी में कह दिया, "ओ हाँ हाँ, समझ गई।"
बिल्ले ने खुश होकर कहा, "हाँ, यह तो बिल्कुल साफ बात है - चंद्रबिंदु का च, बिल्ले का श और रुमाल का मा मिलकर बने चश्मा। क्यों, ठीक है न?"
मुझे कुछ भी समझ न आया, पर डर था कि कहीं बिल्ला फिर से अपनी भद्दी हँसी न हँस पड़े। इसलिए उसकी हाँ में हाँ मिलाती गई। इसके बाद वह बिल्ला थोड़ी देर आस्मान की ओर देखकर अचानक बोला, "गर्मी लग रही है तो तिब्बत चली जाओ।"
मैं बोली, "कहना आसान है, कहने से ही तो कोई चला नहीं जाता।"
बिल्ला बोला, "क्यों, इसमें क्या कठिनाई है?"मैं बोली, "कैसे जाते हैं तुम्हें मालूम भी है?"
बिल्ले ने भरपूर हँसी हँसकर कहा, "क्यों नहीं मालूम, यह है कोलकाता, यहाँ से डायमंड हार्बर, फिर रानाघाट और फिर तिब्बत, बस! सीधी राह है, सवा घंटे लगते हैं, जाकर देखो।"
मैंने कहा, "तो जरा मुझे राह दिखा दोगे?"
यह सुनकर बिल्ला अचानक किसी सोच में पड़ गया। फिर सिर हिलाकर बोला, "ऊँहूँ! यह मुझसे नहीं होगा। अगर हमारा झाड़मभैया यहाँ होता, तो वह ठीक ठीक बतला देता।"
मैं बोली, "झाड़मभैया कौन हैं? कहाँ रहते हैं?"
बिल्ला बोला, "झाड़मभैया और कहाँ होगा? झाड़ पर होगा।"
मैंने पूछा, "उनसे मुलाकात कहाँ हो सकती है?"
बिल्ले ने जोर से सिर हिलाते हुए कहा, "यह तो नहीं होगा, ऐसा होने की कोई संभावना नहीं है।"
मैंने पूछा, "ऐसा क्यों?"
बिल्ले ने कहा, "भई ऐसा है - जैसे मान लो कि तुम उनसे मिलने गई उलूबेड़िया गई, तो वह होंगे मोतीहारी में। अगर मोतीहारी जाओ तो सुनोगी कि वह रामकृष्णपुर में हैं। वहाँ जाओगी तो देखोगी कि वह कासिमबाजार गए हैं। किसी भी हाल में मुलाकात न होगी।"
मैंने पूछा, "तो तुमलोग कैसे मिलते हो?"
बिल्ला बोला, "वह बड़ी परेशानी की बात है। पहले हिसाब लगाना पड़ता है भैया कहाँ कहाँ नहीं है, फिर हिसाब लगाकर देखना होगा कि भैया कहाँ कहाँ रह सकता है; उसके बाद देखना होगा कि भैया कहाँ होगा।; उसके बाद देखना होगा..."
मैंने जल्दी उसे रोककर कहा, "यह कैसा हिसाब है?"
बिल्ला बोला, "बड़ा कठिन है। देखोगी कैसा है?," कहकर उसने घास पर एक काठी से एक लंबी लकीर खींची और कहा, "मान लो यह झाड़मभैया है।" इतना कहकर वह थोड़ी देर गंभीरता से चुप होकर बैठा रहा।
उसके बाद फिर उसी तरह का एक दाग खींचा, "मान लो कि यह तुम हो", कहकर फिर गर्दन मोड़कर चुप होकर बैठा रहा।
(अभी और अगले पोस्ट में)
4 comments:
अरे यार! था रुमाल, बन गया बिल्ला।
:0)
रोचक.
Your translation of HAJABARALA is simply delightful! Chhoto-bela-ta mone pore jachchhe. Please post more soon!
बचपन में आबोल ताबोल और ह य व् र ल , दोनों का अनुवाद ( आपका ) पढ़ा है, बहुत मज़ा आया था, यादें फिर जिलाने के लिए शुक्रिया.
इकबाल अभिमन्यु,
बी ए स्पैनिश, जे एन यू
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