Friday, August 28, 2009

पंखा चलता तो शहतीर काँपती

पंजाब विश्वविद्यालय में अध्यापन के दौरान यूनिवर्सिटी और कालेज अध्यापकों के लिए तरह तरह के रीफ्रेशर कोर्सों में भाषण देता था, कभी कभार साहित्य पर भी कुछ कहा है। सत्यपाल सहगल ने एम ए के हिंदी के विद्यार्थियों से शरतचंद्र पर कुछ कहने को कहा था। दो बार शरतचंद्र पढ़ा पाया हूँ। अब मुझे संस्थान में बी टेक के छात्रों को विज्ञान के अलावा हिंदी साहित्य भी पढ़ाने का मौका मिला है। पिछले साल भी पढ़ाया था और इस साल भी पढ़ा रहा हूँ। चूँकि साहित्य में मेरा औपचारिक प्रशिक्षण नहीं है, इसलिए मैं इसे रीडिंग्स या पाठ का कोर्स कहता हूँ। हमलोग कविता कहानियाँ पढ़ते हैं और उन पर चर्चा करते हैं। तुलनात्मक समझ के लिए हिंदी के अलावा विश्व साहित्य से भी कुछ सामग्री पढ़ते हैं। इस बार मैं फिल्में भी दिखा रहा हूँ। बहरहाल आज ज्ञानरंजन की कहानी 'पिता' पढ़ते हुए खूब बातें हुईं।

कोर्स शुरु होने के पहले छात्र समकालीन हिंदी साहित्य से अपरिचित थे। पर रुचि के साथ पढ़ रहे हैं। पाँच कक्षाओं में लगातार कविताएँ पढ़ते रहे तो एक ने कहा कि अब कुछ कहानियाँ पढ़ी जाएँ। इस तरह आज ज्ञानरंजन पढ़ने लगे। पिता एक अजीब प्राणी है या पिता वह व्यक्ति है जिसकी पिछली मजबूरियों की वजह से आदतें ऐसी हो गई हैं कि अब सुविधाओं के होने के बावजूद वह असुरक्षित दरिद्र जीवन बिताता है, इस पर सब ने कुछ न कुछ कहा। मैं कुछ समय बाद पारंपरिक समाज और आधुनिकता पर भी अकादमिक चर्चा छेड़ने वाला हूँ - देखते हैं।

इस दौरान बहुत सी बातें इस तरह की भी हुईं कि उन दिनों रोजाना काम आने वाले सामान, जैसे पंखे, कितने महँगे थे। मुझे यह ध्यान आया कि मेरे बचपन में बिजली की सप्लाई डी सी यानी कि डिरेक्ट करेंट की होती थी। पंखा चलता था तो शहतीर काँपती थी। पंखे की कीमत होती थी दो ढाई सौ रुपए और वह बहुत समझी जाती थी क्योंकि यह किरानिओं जैसे निम्न मध्य वर्ग के लोगों की दो तीन महीनों की तनखाह के बराबर थी। मैंने जब यूनीवर्सिटी लेक्चरर की नौकरी शुरू की तो मेरी मासिक तनखाह रेफ्रिजरेटर या वाशिंग मशीन की कीमत से कम थी। यानी मध्य वर्ग में उपभोक्ता माल की कीमतें जिस गति से बढ़ी हैं, तनखाहें उससे कहीं ज्यादा रफ्तार से बढ़ी हैं।

कुछ लोग आज भी ऐसे हैं जिनके घर बिजली नहीं है। कुछ नहीं बहुत सारे लोग। शादी ब्याह में जेनरेटर चलते हैं तो उन्हें बिजली का पता चलता है। तो प्राक्-आधुनिक, आधुनिक और उत्तर आधुनिक का अनोखा मिश्रण जो भारतीय समाज में है, इसमें 'पिता' जैसी कहानियाँ युगों तक पढ़ी, समझी जाएँगीं और चर्चा में रहेंगी।

बहरहाल, आज एक और पुरानी कविताः- यह साक्षात्कार में प्रकाशित हुई थी, संभवतः १९८९ में। मेरे पहले संग्रह 'एक झील थी बर्फ की' में शामिल है। उन दिनों दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद वाली तानाशाही सरकार थी।

लड़ाई हमारी गलियों की

किस गली में रहते हैं आप जीवनलालजी
किस गली में

क्या आप भी अखबार में पढ़ते हैं
विश्व को आंदोलित होते

आफ्रिका, लातिन अमेरीका
क्या आपकी टीवी पर
तैरते हैं औंधे अधमरे घायलों से
दौड़कर आते किसी भूखे को देख
डरते हैं क्या लोग – आपके पड़ोसी
लगता है उन्हें क्या
कि एक दक्षिण अफ्रीका आ बैठा उनकी दीवारों पर

या लाशें एल साल्वाडोर की
रह जाती हैं बस लाशें
जो दूर कहीं
दूर ले जाती हैं आपको खींच
भूल जाते हैं आप
कि आप भी एक गली में रहत हैं

जहाँ लड़ाई चल रही है
और वही लड़ाई
आप देखते हैं

कुर्सी पर अटके
अखबारों में लटके
दूरदर्शन पर

जीवनलालजी
दक्षिण अफ्रीका और एल साल्वाडोर की लड़ाई
हमारी लड़ाई है।

3 comments:

प्रदीप कांत said...

पिता एक अजीब प्राणी है या पिता वह व्यक्ति है जिसकी पिछली मजबूरियों की वजह से आदतें ऐसी हो गई हैं कि अब सुविधाओं के होने के बावजूद वह असुरक्षित दरिद्र जीवन बिताता है.

----------बहुत अच्छा

अविनाश वाचस्पति said...

पंखे के घूमने से शहतीर का कांपना
न जाने कितनी यादों को कंपा जाता है
यह कंपकंपाना किसी को तो भाता है
किसी को अनायास रूला जाता है।

एक बेहद सुंदर संस्‍मरण।

आपकी यह पोस्‍ट दैनिक जनसत्‍ता हिंदी में दिनांक 23 सितम्‍बर 2009 को संपादकीय पेज पर समांतर स्‍तंभ में प्रकाशित हुई है। शुभकामनाएं स्‍वीकारें।

अविनाश वाचस्पति said...

अपना ई मेल पता भिजवायें तो आपको जनसत्‍ता की स्‍कैन प्रति भिजवा सकता हूं। मेरा ई मेल avinashvachaspati@gmail.com है।