Sunday, March 05, 2006

औरत गीत गाती है

हिंदी कथा हिंदी व्यथा
हिंदी में लिखना जिसे कहते हैं बाई डेफीनीशन व्यथा पूर्ण है।
जो लिखवाते हैं यानी संपादक वे भी व्यथा में डूबे हैं, हम जो लिखते हैं, हम भी।
लघु पत्रिकाओं के संपादक बड़ी मुश्किल से जेब से पैसा लगा लगा के पत्रिका चलाते हैं। हम लोग लिखते हैं, अक्सर पता ही नहीं चलता कि सामग्री पहुँची भी कि नहीं। जब नया लिखना शुरु किया था, तब स्टैंप लगा जवाबी लिफाफा भेजते थे। धीरे धीरे जाना कि यह मूर्खता है क्योंकि हिंदीवाले जवाबी लिफाफा फेंक फाँक देते होंगे। अब तो वे दिन याद भी नहीं हैं। पहली कहानी कमलेश्वर के चयन से सारिका में छपी, पर जब तक छपी सारिका थोड़े दिनों के लिए बंद होकर फिर चली कन्हैया लाल नंदन के संपादन में। कमलेश्वर का खत जब आया था तो मैं फूला न समाया। पर फिर पत्रिका बंद ही हो गई। जब दुबारा प्रकाशन की सूचना मिली तो मैं प्रिंस्टन पहुँच चुका था। उन दिनों कहानी पढ़ कर लोग चिट्ठियाँ लिखा करते थे। घर वालों ने कोई सौएक चिट्ठियों में से छाँटकर तीस भेजीं। लंबे समय तक इनको सँजो कर रखा था। उनमें एक खत बी एच यू में पढ़ रहे एक लड़के का था, जिसने रोते हुए खत लिखा था। अक्सर सोचता हूँ पता नहीं वह कहाँ है। मेरा मौसम (भू भौतिक द्रव गतिकी) शोधकर्त्ता मित्र सुमंत निगम भारत आ रहा था - अच्छी तरह समझाया कि ज्यादा पढ़ी जाने वाली सरिता नहीं सारिका का अंक लाना है। बंदा लौटा तो सरिता लेकर ही लौटा और कहता है कि लाल्टू यार बहुत ढूँढा तेरी कहानी तो मिली नहीं। तब तक घर वालों ने ही प्रति भेज दी थी।
बहरहाल, अब जो कुछ भी भेजते हैं, छप तो जाता है, पर छपता है इतने दिनों बाद कि इसी बीच उसे काट छाँट के कहीं और भेज चुका होता हूँ। हमारे मित्र अजेय कुमार बड़ी शिद्दत के साथ 'उद्भावना' निकालते हैं। उनके पाब्लो नेरुदा अंक के लिए पिछली गर्मियों में एक कविता लिखी थी। हाल में ही अंक छप कर आया है। इसी बीच संशोधित स्वरुप कहीं और जा चुका है। कई बार सोचता हूँ कि अगर समय पर पता चलता रहता तो कितना उत्साह मिलता। मेरी समस्या है कि न तो हिंदी पढ़ने लिखने वालों की संगति मिलती है, न ही इतना समय होता है। बहरहाल, यह रही कविता (पत्रिका में प्रकाशित स्वरुप थोड़ा भिन्न है):
औरत गीत गाती है।

(
पाब्लो नेरुदा की स्मृति में)
शहर समुद्र तट से काफी ऊपर है।
अखबारों में आस-पास के ऐतिहासिक स्थलों की तस्वीरों में थोड़ा बहुत पहाड़ है।
जहाँ मैं हूँ, वहाँ छोटा सा जंगल है। इन सब के बीच सड़क बनाती औरत
गले में जमी दिन भर की धूल थूकती है।
औरत गीत गाती है।
गीत में माक्चू-पिक्चू की प्रतिध्वनि है।
चरवाहा है, प्रेयसी है।
इन दिनों बारिश हर रोज होती है।
रात को कंबल लपेटे झींगुरों की झीं-झीं के साथ बांसुरी की आवाज सुनाई देती है।
पसीने भरे मर्द को संभालती नशे में
औरत गीत गाती है।
उसके शरीर में हमेशा मिट्टी होती है।
दूर से भी उसकी गंध मिट्टी की गंध ले आती है।
वह मुड़ती है, झुकती है, मिट्टी उसे घेर लेती है।
ठेकेदार चिल्लाता है, वह सीधी खड़ी होकर नाक में उँगली डालती है।
मेरे बैठक में खबरों के साथ
उसके गंध की लय आ मिलती है।
भात पका रही
औरत गीत गाती है।
मेरी खिड़की के बाहर ओक पेड़ के पत्ते हैं।
डालियाँ खिड़की तक आकर रुक गई हैं।
सुबह बंदर के बच्चे कभी डालियों कभी खिड़की पर
उल्टे लटकते हैं।
पत्तों के बीच में से छन कर आती है धूप
जैसे बहुत कुछ जैसा है
वैसे के बीच में बदलता आता है समय।
आश्वस्त होता हूँ कि नया दिन है
जब जंगल, खिड़की पार कर आती है उसकी आवाज़।
काम पर जा रही
औरत गीत गाती है।

-
मई 2005 (उद्भावना 2005-06)

5 comments:

मसिजीवी said...

बहुत अच्‍छी कविता।



आपके हम जैसे कई गूंगे पाठक भी हैं जो पत्र नहीं लिखते पर सराहते हैं- सराहते रहते हैं। आप बस जारी रहें।

एक बात कहूँ, खुश्किस्‍मत हैं आप कि आपके इर्दगिर्द 'हिंदी वाले' कम हैं। सृजन के लिए अच्‍छा है

रवि रतलामी said...

हिन्दी लिखने-छापने वालों की कड़वी सत्यता आपने बयान कर दी है!

आलोक said...

आप चण्डीगढ़ से हैदराबाद कब पहुँचे?

लाल्टू said...

अमाँ, यह चण्डीगढ़ से हैदराबाद राज की बात है।
बाकी फिराक, शामे ग़म और निगाहे नाज की...

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

वाह, बडी़ सुंदर कविता है।