Tuesday, February 07, 2006

कविता

जैसे ज़मीन निष्ठुर।
अनंत गह्वरों से लहू लुहान लौटते हो और ज़मीन कहती देखो चोटी पर गुलाब।

जैसे हवा निष्ठुर।
सीने को तार-तार कर हवा कहती मैं कवि की कल्पना।

जैसे आस्मान निष्ठुर।
दिन भर उसकी आग पी और आस्मान कहता देखो नीला मेरा प्यार।

निष्ठुर कविता।
तुमने शब्दों की सुरंगें बिछाईं, कविता कहती मैं वेदना, संवेदना, पर नहीं गीतिका।
शब्द नहीं, शब्दों की निष्ठुरता, उदासीनता।

(साक्षात्कार- मार्च १९९७)

1 comment:

मसिजीवी said...

.........'तुमने शब्दों की सुरंगें बिछाईं,
कविता कहती मैं वेदना,

हॉं कविता ही नहीं षडयंत्र भी हैं - भाषिक संरचना