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दलदल में बरगद

'सत्य हिन्दी' वेबसाइट पर आया ताज़ा लेख 

नई शिक्षा नीति : बुनियादी बदलाव या नई जुमलेबाज़ी!

क्या दलदल में कभी बरगद उग सकता है? केंद्र-सरकार ने नई शिक्षा नीति के नाम पर जो मसौदा लागू किया है, पहली नजर में लगता है कि बड़ी मेहनत के बाद और बड़े संजीदा मक़सदों के साथ यह शिक्षा नीति तैयार की गई है। स्कूली तालीम से लेकर कॉलेज और विश्वविद्यालय तक की शिक्षा पर गंभीरता से सोचा गया है। पर यह दलदल में बरगद की छाँव का धोखा है। ऐसे समाज में जहां व्यापक गैर-बराबरी हो, बुनियादी मसलों पर फैसला लेने वाले लोग एक छोटे से संपन्न वर्ग से आएं, और अध्यापक- और छात्र-प्रतिनिधियों को फैसलों में शामिल न किया जाए, तो नीतियाँ हमेशा ही खयाली किले जैसी रहेंगी। मसलन एकबारगी ऐसा लगता है कि स्नातक स्तर पर अगर सभी छात्र कामयाब नहीं हो पाते तो उन पर हमेशा के लिए असफलता का धब्बा न लगे, यह अच्छी बात है। अगर कोई चार साल तक पढ़ाई पूरी नहीं कर सकता, तो पहले साल के बाद वह सर्टीफिकेट लेकर निकल जाए, दूसरे साल के बाद डिप्लोमा लेकर निकल जाए, यह तो अच्छी बात होगी। पर कोई यह भी तो पूछे कि स्नातक स्तर की पाठ-चर्या क्या ऐसी होती है कि पहले साल में पूरे प्रोग्राम के मक़सद का एक चौथाई पूरा हो जाता है? साल भर के बाद छात्र के पढ़ाई छोड़ने पर क्या उसमें इतनी काबिलियत होती है कि उसे प्रमाण पत्र दे दें, जिसके बल पर वह कुछ कमा-खा सके? यह सर्टीफिकेट किसको मिलेगा? पहले साल के बाद या दूसरे साल के बाद पढ़ाई छोड़ने वाले छात्र वही होंगे, जो ग़रीबी या तमाम दूसरे किस्म की समस्याओं की वजह से पढ़ाई जारी नहीं रख पाते। कहां तो सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि हर किसी को मुफ्त तालीम मिले, ताकि आगे चलकर मुल्क की तरक्की में हर कोई पूरी काबिलियत के साथ योगदान करे। हो यह रहा है कि समाज का वह तीन-चौथाई हिस्सा जो आज ऊंची तालीम तक नहीं आ पाता, उसे आधिकारिक रूप से खारिज करने की तरकीब सोची गई है। स्कूली तालीम में कहा जा रहा है कि छठी कक्षा के बाद से पेशेवर प्रशिक्षण दिया जाएगा ताकि बच्चे बड़े होकर हाथों से काम करने में काबिल हों। अगर यह गाँधी के सपने जैसी बात होती कि हर कोई हाथों से काम करना सीखे, तो अच्छी बात होती, पर जाति-व्यवस्था के चंगुल में फँसे समाज में सचमुच इसका मक़सद यही रह जाता है कि बच्चे पारिवारिक धंधों में पारंगत हो सकें। स्कूली तालीम का जो नया ढांचा सोचा गया है, वह अमेरिका जैसे विकसित मुल्क की नकल है। इसलिए मध्य-वर्ग के लोगों को ऐसा लग सकता है कि अब हमारी तालीम का ढांचा भी आधुनिक हो गया है। यह भद्दा मजाक है। महज ढाँचा बदलने से शिक्षा में गुणात्मक बदलाव नहीं आते। क्या पश्चिमी मुल्कों की तर्ज पर समान स्कूली तालीम यहाँ शुरू होगी? क्या किताब कापी, पेंसिल, हर कुछ हर बच्चे को मुफ्त मिलेंगे?

यह कहा गया है कि पांचवी तक बच्चे मातृभाषा या अपने करीब की भाषा के माध्यम में ही पढ़ाई लिखाई करेंगे। पर जब सुविधा-संपन्न स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई होगी, तो क्या किसी से कहा जा सकता है कि वह अपने बच्चों को मातृभाषा माध्यम स्कूलों में भेजे? एक आम आदमी को यह समझा पाना कि अंग्रेजी माध्यम के कुछ ही स्कूल अच्छे होते हैं जहां फीस बहुत ज्यादा है और बाक़ी अयोग्य अध्यापकों का धंधा है, इतना आसान नहीं है। ग़रीब को लगता है कि अंग्रेजी ही सफलता की कुंजी है। सच यह है कि मातृभाषा में ही हमारी सीखने की कुदरती क्षमता पूरी तरह फलती-फूलती है। यह बात शिक्षाविद समझते हैं। वे अपने सम्मेलनों में इस बात पर बहस करते हैं, अंग्रेजी में तर्क रखे जाते हैं। आम आदमी इस बात को नहीं समझ पाता। समाज के संपन्न तबके अंग्रेजी बोलते हैं, इसलिए आम लोगों को लगता है कि उनके बच्चे भी अंग्रेजी बोलने लगें तो वह एक दिन ताकतवर हो जाएंगे । जब तक सभी स्कूलों में समान तालीम का इंतज़ाम नहीं होता, एक जैसी सुविधाएं नहीं दी जाती और हर बच्चे को मुफ्त तालीम नहीं दी जाती, तब तक इस तरह की बहस बेमानी है। बेशक हर बच्चे को अंग्रेज़ी सीखनी है, और इसे माध्यमिक स्तर से एक भाषा के रूप में पढ़ाया जा सकता है। अंग्रेजी को जो सामाजिक रुतबा आज मिला हुआ है, वह खत्म होना चाहिए। आज टेक्नोलोजी का मदद से रोज़ाना ज़िंदगी के सभी काम अपनी जुबान में हो सकते हैं। जब तक हुकूमत और ताकतवर तबके इस बुनियादी बात को नहीं मानेंगे, मातृभाषा में पढ़ने-पढ़ाने की कोशिश कामयाब नहीं होगी।

सदियों से चली आ रही जाति-व्यवस्था में जो हाशिए पर रहने को मजबूर हैं, और वे सभी तबके, जो जेंडर, मजहब, शारीरिक भिन्नता जैसी वजहों से भेदभाव का शिकार हैं, उनको इस नीति में आधिकारिक रूप से दरकिनार करने के तरीके सोचे गए हैं। बाक़ी बातें जैसे ऊँची तालीम में निजी संस्थानों से पैसे जुटाना और विदेशी यूनिवर्सिटीज़ को हमारे यहाँ धंधा जमाने देना, संस्थानों में स्वायत्तता का क्रम, आदि सब बातें सुविधा-संपन्न तबकों के लिए सोची गई हैं, जिन्हें आम लोगों की मेहनत लूटने के अलावा इस देश से कुछ लेना-देना नहीं है। अगर औपचारिक रूप से रैंकिंग भी देखी जाय तो भी हार्वार्ड विश्विद्यालय के किसी स्थानीय कैंपस का रुतबा मूल कैंपस जैसा नहीं होगा। वहाँ शोध पर जोर होगा, यहाँ बाज़ार के लिए प्रोफेशनल्स तैयार किए जाएँगे। मसौदे में ऑनलाइन शिक्षा जोड़ दी गई है, और प्रधान मंत्री ने इस पर काफी सीना पीटा है। देश के आम लोगों के लिए ये निष्ठुर मजाक हैं। देशी ज़ुबानों में सामग्री तैयार करने की कोई गंभीर कोशिश नहीं है, सब कुछ समर्पित भाषा-प्रेमियों का काम बन चुका है, जो हर विषय में पारंगत तो हो नहीं सकते। क्या हर किसी तक नेटवर्क पहुँचता है? मोबाइल पर रिंगटोन और अश्लील तस्वीरें पहुँच रही होगी, पर सबके लिए ऑनलाइन शिक्षा लायक तैयारी हमारी नहीं है, अगर हो भी सकती तो भी नहीं होगी, क्योंकि नीति निर्धारकों को ज्यादातर लोग इंसान ही नहीं लगते। वैसे भी टेक्नोलोजी पर इतनी निर्भरता और इंसान की एजेंसी को दरकिनार करने की ऐसी बेचैनी हमें कहाँ ले जाएगी, यह बड़ा सवाल है। चूँकि इस प्रक्रिया में कॉरपोरेट घराने सरगर्म रहेंगे, इसलिए तालीम का मक़सद भी भी ज्ञान पाने से हट कर बाज़ार की ज़रूरतों में सिमट जाएगा।

नीति में कुछ अनोखी-सी दिखती बातें रखी गई हैं, जैसे विषयों के चयन में छूट। पर व्यावहारिक धरातल पर हमारे संस्थानों में सामंती मानसिकता के प्रशासकों की भरमार है, जिनका काम सिर्फ सत्ता के चाटुकार बने रहकर अपनी सुविधाएँ पुख्ता करनी हैं। राज्य-स्तर के संस्थानों के लिए शोध के अनुदान बढ़ाने की बात कही गई है, पर यह समझने की कोई कोशिश नहीं है कि आज इन संस्थानों में जिस तरह की लाल-फीताशाही, घटिया राजनीति और अविश्वास का माहौल है, इससे कैसे निपटा जाए। क्या तालीम का खित्ता बाक़ी समाज से अलग है कि एक नए मसौदे से ये बुनियादी खामियाँ गायब हो जाएँगी? इसी तरह स्वयंसेवकों और समाज-कर्मियों को जोड़ने के नाम पर दरअसल संघ के कार्यकर्ताओं को शिक्षा-तंत्र के हर कोने में जोड़ने की कोशिश है।

इक्कीसवीं सदी, वैश्विक-स्तर जैसी जुम्ले-बाजी के साथ सरकार ने शिक्षा-नीति भी लागू कर दी, क्या पता कि इसका क्या हश्र होगा। किसी भी देश का असली विकास इस बात पर निर्भर करता है कि तालीम और सेहत जैसे खित्तों पर कितना खर्च किया जा रहा है, न कि राफेल जैसे मारक जहाजों पर। हमारा देश इस पैमाने पर अफ्रीका के कई ग़रीब मुल्कों से भी पीछे है, चीन-अमेरिका की तो क्या बात करें। बहस होती रहेगी, पर आखिरी फैसला तो अवाम ही लेगी, आज भले ही वह कमज़ोर है, वह सुबह कभी तो आएगी।

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