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वापस कविता आदि

हिंदी में टाइप करने की दिक्कत को लेकर सुझाव आए हैं|
मैं आमतौर पर लीनक्सवादी हूँ| मामला बडा सीधा है| बिल गेट्स को और धनी बनाने की कोई इच्छा मेरी नहीं है। अपने दफ्तर में लीनक्स और फेदोरा पर इंटर/इंटरानेट इनपुट मेथड से फोनेटिक हिंदी की आदत बना ली| हालांकि टंकन की गति अंग्रेजी की तुलना में कम है| कहीं और जाते हैं, तो विंडोज वाला सिस्टम थमा देते हैं तो ले लेता हूँ| स्वभाव का मारा हूँ| ज्यादा माँग नहीं रखता| पर फिर किसी नए फांट की आदत डालनी पड़ती है|
अब फायरफाक्स के ऐड आन का इस्तेमाल कर रहा हूँ| इसमें ड़ ढ़ नहीं हैं| हर बार ड़ ढ़ लिखते हुए कहीं से कापी पेस्ट करना पड़ता है|

इस बारे में कोई शक नहीं कि हिंदी में टाइप करने की आदत रही होती तो काफी लिखते|

बहरहाल, हाल में हिंदी कविता पर जो बहस चल रही है, वह कुछ लोगों पर केंद्रित है और निश्चित रुप से दु:खदायी है| कुछ बातें जो सामान्यत: कही जा सकती हैं, उन्हें लिख रहा हूँ:

१. आज की कविता का उद्गम पारंपरिक कविता है, पर अपने स्वरुप और मिजाज में वह बिल्कुल अलग है| जिस तरह हमारी मध्य वर्गीय जिंदगी में परंपरा की जगह कम होती जा रही है, कविता में भी परंपरा को हम या तो यांत्रिक रुप से या महज पाखंड की तरह निभाते हैं| इसलिए जबरन परंपरा से जुडने की कोशिश में कविता में पाखंड रह जाता है| कविता जीवन से अलग नहीं हो सकती| हिंदी का आम पाठक और रचनाकार इस वजह से परेशान है| सबसे बड़ी समस्या है कि लिखने वाले ज्यादातर ऊँची जाति के पुरुष हैं और चूँकि आधुनिक समय में लिखना विरोध का ही एक पर्याय सा (पहले से कहीं ज्यादा) बन चुका है, जीवन और लेखन में विरोधाभास हर ओर है| इस बात को हर कोई मान ले तो बहुत सारी बहस यूँ ही खत्म हो जाएगी|

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ऊपर लिखी पंक्तियाँ पंद्रह दिन पहले की हैं|अब वापस हैदराबाद में अपने लीनक्स मशीन पर gedit का इस्तेमाल कर लिख रहा हूँ| फिर से इस ध्वन्यात्मक इनपुट को उँगलियों में ढालने में थोड़ा समय लगेगा। एकबार सोचा कि ऊपर का अपूर्ण प्रसंग ठीक नहीं लग रहा। फिर लगा कि नहीं अपूर्ण सही - हम कौन सा कोई थीसिस लिख रहे हैं। पड़े रहने देते हैं। फिर से पढ़ते हुए बहुत पुरानी एक बात याद आ गई। कोई पचीस साल पहले प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक मृणाल सेन को एकबार अपनी फिल्मों के बारे में बोलते सुना था। उन दिनों उन्होंने अलग किस्म की फिल्में बनानी शुुरु की थीं। मृणाल का मानना था कि पहले वाली फिल्में (जैसे कोलकाता ७१) जिनके लिए बनाई गईं थीं, वे लोग फिल्में देखते नहीं या देखने के काबिल नहीं (आर्थिक विपन्नता, निरक्षरता आदि की वजह से)। जो देख रहे थे उन लोगों के लिए वे फिल्में थीं नहीं। इसलिए अपनी दिशा बदलते हुए नई किस्म की फिल्में (जैसे खंडहर, खारिज) बनाईं, जो मध्य वर्ग के दर्शकों को ध्यान में रख कर बनाई गईं थीं, जिनमें मध्य वर्ग के विरोधाभासों पर जोर था।

बहरहाल पुरानी बात को जरा खींचूँ। यानी कि एक और बिंदु जोड़ दूँ।

२. कविता में शाश्वत सिर्फ संवेदना होती है। कथ्य देश-काल सापेक्ष होता है। संवेदना के शाश्वत स्वरुप की वजह से कविता में प्रतिबद्धता निहित होती है।

बहुत पहले मैंने लिखा थाः

सबने जो कहा
उससे अलग
सच सिर्फ धुंध

शब्द उगा
सबने कहा
गुलाब खूबसूरत

शब्द घास तक पहुँचा
किसी ने देखी
हरीतिमा घास की
किसी ने देखी
घास पैरों तले दबी

धुंध का स्वरुप
जब जहाँ जैसा था
वैसे ही चीरा उसे शब्द ने।
- (कविता-१; एक झील थी बर्फ की; आधार प्रकाशन, १९९०)

इसलिए मुझे रुप और प्रतिबद्धता की बहस निरर्थक लगती है। रुप का बोध गहन चिंतन और मंथन की अपेक्षा रखता है। जो लोग समझते हैं कि कविता महज शब्दों का सौंदर्यपूर्ण विन्यास है, और जो समझते हैं कि प्रतिबद्धता की स्पष्ट घोषणा ही कविता को सार्थक करती है, दोनों ही मुझे गलत लगते हैं। कथ्य के जरिए संवेदना संप्रेषित होती है। यह कविता की सीमा है। अक्सर हमलोग 'पोएटिक टेंशन' की बात करते हैं। आधुनिकता एक ओर जीवन की अनगिनत जटिल और परतों में छिपी सच्चाइयों के साथ हमारा मुठभेड़ कराती है, दूसरी ओर इन सच्चाइयों का बयान करने में हमें पहले से ज्यादा असहाय बनाती है। इसका असर आधुनिक और उत्तर-आधुनिक कविता में दिखता है। कविता के इस पक्ष से वाकिफ हो जाने पर जो कुछ भी स्पष्ट है, वह खोखला और गद्यात्मक लगता है, क्योंकि जीवन में स्पष्टता कम है। तब 'पोएटिक टेंशन' ही हमें कविता लगती है। मुसीबत यह है कि इस स्थिति में कई स्थूल सच्चाइयों के प्रति हमारी संवेदना मर चुकी होती है। जैसे भारत में रहने वाले लोगों को यह नज़र नहीं आता कि हमारी रेलवे की लाइनें और सार्वजनिक शौचालय एक दूसरे का पर्याय हैं। आधुनिक अमूर्त्त कला की दुनिया में नए नए आए लोगों को पुरानी यथार्थ वादी कला बेकार लगती है।

3. अनुभव और परिपक्वता से हम वापस कला के व्यापक आयामों से अवगत होते हैं।

4. न तो हर कही बात कविता है और न ही हमारी पसंद से इतर हर कविता-कर्म खोखला है।

5. अंत मेंः- लगातार पढ़ने लिखने से हम कविता या साहित्य की किसी भी विधा में जो नया है, उसे समझते हैं और कभी कभी उससे प्रभावित भी होते हैं। हिंदी की दुनिया में एक दूसरे पर कीचड़ फेंकना ज्यादा और पढ़ने लिखने की कोशिश कम दिखती है।

Comments

azdak said…
अच्‍छी परतदार बातें रखी हैं, साथी. धन्‍यवाद.
टेक्‍स्‍ट को कंटेक्‍सट प्रभावति कर ही देता है पहले सोचा कोलाज की तरह पढ़ें पर फिर दोनो पीस अलग दिखने बंद हो गए।

शुक्रिया
Anonymous said…
Dhanyaad Mitra.

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